Thursday, October 3, 2024
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संसद भवन पर हमले कि बरसी पर जानिए क्या हुआ था उस दिन और उसके बाद

पाकिस्तान ने भारत पर हमले के कई तरीके अपनाये हैं- सीधा युद्ध, अवैध घुसपैठ, आतंकी हमले, आत्मघाती हमले इत्यादि। जब राज्य की ताकत भारत के सामने कमजोर पड़ी तब राज्य द्वारा पोषित आतंकियों की सहायता ली जाने लगी। 2001 के संसद हमले से लेकर 2008 के मुंबई हमले हों या फिर 2016 का पठानकोट हमला- पकिस्तान ने हमेशा अपने जमीन पर कुकुरमुत्ते की तरह पाल रखे आतंकी संगठनों का इस्तेमाल कर भारत में तबाही मचाने की कोशिश की है। आज 2001 में भारत के संसद भवन पर हुए आत्मघाती हमलों की बरसी है। आज जब पूरा देश उस दिल दहला देने वाले हमले में जान गंवाने वाले जवानों की शहादत को याद कर रहा है, आइये जानते हैं उस दिन आखिर हुआ क्या था।

वो तेरह दिसम्बर 2001 का दिन था। संसद की कार्यवाही को स्थगित हुए लगभग चालीस मिनट हो चुके थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और विपक्ष की नेत्री सोनिया गाँधी जा चुकी थी लेकिन तत्कालीन गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवानी सहित कम से कम सौ लोग अभी भी संसद भवन के प्रांगन में ही रुके हुए थे और इनमे कई दिग्गज नेता भी शामिल थे। तभी सफ़ेद रंग की एंबसेडर कार से आये पांच आतंकियों ने संसद भवन के परिसर में घुसकर ताबड़तोड़ गोलियां चलानी शुरू कर दी। रिपोर्ट्स की मानें तो उन्होंने संसद भवन के आसपास कड़ी सुरक्षा घेड़े को चकमा देने के लिए जाली पहचान पत्रों का इस्तेमाल किया था। सुरक्षाकर्मियों की वर्दी पहने आतंकियों ने ठीक दोपहर में संसद भवन के परिसर में प्रवेश किया था।

चश्मदीदों के अनुसार एक आतंकी हमलावर ने अपने शरीर बार बांधे गये बम की मदद से खुद को उड़ा लिया था. बांकी बचे चार आतंकियों को लगभग एक घंटे तक चली गोलीबारी में सुरक्षाबलों द्वारा मार गिराया गया था। उस समय इस पूरी गोलीबारी का टीवी पर लाइव प्रसारण हुआ था। इस हमले में भारतीय सुरक्षाबलों के छः जवान शहीद हुए. इनमे से पेंच पुलिसकर्मी थे जबकि एक संसद का सिक्यूरिटी गार्ड। वहीं संसद भवन में स्थित बगीचे के बागवान को भी अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इस हमले के पीछे कुख्यात पाकिस्तानी आतंकी संगठन जैश-ए-मुहमम्द और लश्कर-ए-तैयबा का हाँथ सामने आया था।

इस हमले के तुरंत बाद इसके पीछे शामिल आतंकियों की धर-पकड़ के लिए भारतीय सुरक्षाबलों और जांच एजेंसियों द्वारा एक बृहद अभियान चलाया गया जिसमे अफजल गुरु, शौकत हुसैन, नवजोत संधू और एसएआर गिलानी सहित कईयों को गिरफ्तार किया गया। नवजोत संधू को छोड़ कर बांकी तीन आतंकियों को फांसी की सजा सुनाई गई। वहीं बाद में एसएआर गिलानी को बरी कर दिया गया और शौकत हुसैन की सजा को कम कर के आजीवन कारावास में बदल दिया गया। शौकत हुसैन को उसके जेल में “अच्छे आचरण” का हवाला देकर उसकी सजा पूरी होने के नौ महीने पहले पहले ही आजाद कर दिया गया था। वहीं अफजल गुरु की दया याचिका को शीर्ष अदालत ने जनवरी 2007 में ख़ारिज कर दिया था. तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुख़र्जी द्वारा भी उसकी दया याचिका ख़ारिज करने के बाद अफजल को फरवरी 2013 में अंततः फांसी दे दी गई थी।

अफजल की फंसी का विरोध भी हुआ था और तब ह्युमन राइट्स वाच की एशिया डायरेक्टर रही मीनाक्षी गांगुली ने इस पर बयान देते हुए कहा था

भारत दोषियों को फांसी देकर सही काम नहीं कर रहा है. केवल लोगों की भावनाओं को शांत करने के लिए फांसी देना गलत है। भारत को फांसी देना बंद करना चाहिए।

वैसे भारत में आतंकियों को बचाने के लिए अक्सर मुहीम छेड़ी जाती रही है। 1993 के मुंबई धमाके के दोषी याकूब मेनन की फंसी रुकवाने के लिए भी कई कथित बुद्धिजीवियों ने अभियान चलाया था। इनमे अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा, वकील राम जेठमलानी सही कई कथित मानवाधिकार कार्यकर्ता और पूर्व-न्यायाधीश शामिल थे। अफजल के मामले में भी फारुख अब्दुल्ला, मुफ़्ती मोहम्मद सईद और अरुंधती रॉय ने उसकी सजा के खिलाफ विरोध दर्ज कराया था।

वहीं संसद हमले के मास्टरमाइंड औए जैश-ए-मुहमम्द के कमांडर शाह नवाज खान उर्फ़ गाजी बाबा को बीएसएफ द्वारा अगस्त 2003 में कश्मीर के नूर बाग़ में हुए मुठभेड़ में मार गिराया गया था।

हमले के बाद संसद की सुरक्षा व्यवस्था में अमूल-चूल बदलाव किया गया। संसद भवन के अंदर सीआरपीएफ, दिल्ली पुलिस और क्यूआरटी(क्‍यूक रिस्‍पॉन्‍स टीम) को तैनात किया गया है। मुख्य जगहों पर अतिरिक्त स्नाइपर भी पहरा देते रहते हैं। साथ ही सुरक्षा के ऐसे इंतजाम भी किये गए हैं जो गुप्त होते हैं यानी दिखते नहीं। किसी भी अप्रिय स्थिति को रोकने के लिए आतंक निरोधी दस्ते लगातार औचक निरीक्षण करते रहते हैं। उच्च तकनीक वाले उपकरण जैसे बुम बैरियर्स और टायर बस्टर्स लगाने में करीब 100 करोड़ रुपये खर्च किये गये।

नोटा से किसका फायदा; मतदाता का, अच्छे उम्मीदवारों का या फिर बुरे उम्मीदवारों का?

देश में पांच राज्यों के लिए हुए विधानसभा चुनावों और उसके ताजा परिणामों के बाद एक बार फिर से नोटा (उपर्युक्त में से कोई नहीं) को लेकर बहस छिड़ गई है। लगभग साढ़े छह प्रतिशत लोगों ने इन चुनावों में किसी भी उम्मीदवार को अपना वोट देने की बजाय नोटा का विकल्प दबाना ज्यादा बेहतर समझा। पांचो राज्यों की इकट्ठे बात करें तो नोटा ने आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी और वाम दलों को काफी पीछे छोड़ दिया। ये सारे दल को मिले मत नोटा को मिली मतों से काफी कम रहे। पांचो राज्यों में नोटा को कुल पन्द्रह लाख वोट पड़े। नोटा को मिले वोटों के महत्त्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राकांपा और माकपा, भाकपा जैसे दलों को भी नोटा से काफी कम वोट मिले।

अगर मध्य प्रदेश की बात करें तो अठारह सीटों पर उम्मीदवारों के हार-जीत का अंतर उन सीटों पर नोटा को मिले वोटों से कम रहा। इसका मतलब ये कि नोटा दबाने वाले लोगों ने अगर किसी उम्मीदवार के लिए वोट किया होता तो शायद उन सीटों पर नतीजे कुछ और होते। ऐसे में इस बात पर चर्चा होना लाजिमी है कि आखिर नोटा से किसको फायदा है? क्या नोटा से जनता को फायदा होता है? या फिर सत्ताधारी दल को? या विपक्ष को? इन सब बातों पर चर्चा करेंगे लेकिन पहले जानते हैं कि सरसंघचालक मोहन भागवत ने क्यों चुनावों से पहले कई बार मतदाताओं को चेताते हुए नोटा न दबाने की सलाह दी थी।

संघ प्रमुख ने सितम्बर में विज्ञान भवन में आयोजित तीन दिवसीय ‘भविष्य का भारत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण, व्याख्यानमाला के अंतिम दिन लोगों के सवालों के जवाब देते हुए कहा था “नोटा में हम लोग सर्वोत्तम को भी किनारे कर देते हैं और इसका फायदा सबसे बुरा उम्मीदवार ले जाता है। होना यह चाहिए कि हमारे पास जो सर्वोत्तम उपलब्ध है, उसे चुन लें। प्रजातंत्र में सौ फीसदी लोग सही मिलेंगे, ऐसा बहुत मुश्किल है।” उनका ये आकलन सही था क्योंकि मतदाता भले ही नोटा दबा कर यह समझे कि उसने सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार कर दिया है लेकिन शायद उसे यह नहीं पता होता कि इस से किसी ऐसे उम्मीदवार की कम अंतर से हार हो सकती है जो उन सबमे सबसे बेहतर हो। ऐसे में नोटा को गए वोट अगर उस हारे उम्मीदवार को जाते तो वह जीत सकता था। अगर इस कारण किसी बुरे उम्मीदवार की जीत हो जाती है तो फिर नोटा दबाने के कोई मायने ही नहीं रह जाते।

उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश को देखा जा सकता है। यहाँ भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा वोट पड़े लेकिन सीटें कांग्रेस को ज्यादा मिली। इसके बावजूद भी कांग्रेस बहुमत के लिए जरूरी सीटों के आंकड़े से पीछे ही रह गई। यहाँ नोटा को 1.4% मत पड़े। वहीं भाजपा और कांग्रेस के बीच मतों का अंतर सिर्फ 0.1% रहा. ऐसे में ये 1.4% वोट अगर दोनों में से किसी भी पाले में गए होते तो उस पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल सकता था जो कि तुलनात्मक रूप से एक ठोस और स्थिर सरकार के लिए जनादेश होता। इसीलिए इस सवाल का उठना लाजिमी है कि क्या नोटा के कारण जिस पार्टी को वोट ज्यादा मिले उसे सीटें कम मिली और जिसे सीटें ज्यादा मिली वो पार्टी बहुमत से पीछे रह गई। ये आंकड़े बताते हैं कि नोटा से जनता का तो फायदा नहीं ही हुआ।

नोटा को लेकर बहस की शुरुआत तभी हो गई थी जब गुजरात चुनाव में तीस सीटों पर उम्मीदवारों के हार-जीत के बीच का अंतर नोटा को मिले मतों की संख्या से कम रहा था। ये अपने-आप में एक बड़ी बात थी।

आरएसएस प्रमुख ने अक्टूबर में दशहरा के मौके पर भी लोगों को नोटा न इस्तेमाल करने की सलाह देते हुए कहा था-“किसी भी पार्टी में सारे गुण नहीं होते हैं। राष्ट्रीय हित में काम करने के लिए सौ प्रतिशत पारदर्शी होना चाहिए। इसलिए जो श्रेष्‍ठ विकल्‍प हो उसे चुनना चाहिए। यदि आप नोटा का विकल्प चुनते हैं तो वह उस पार्टी के पक्ष में जाएगा तो राष्‍ट्रहित के खिलाफ है। इसलिए नोटा को चुनना सबसे खराब को चुनने जैसा है। इसलिए इस तरह का आत्मघाती कदम न उठाएं।” उनके बार-बार इस बात को दुहराने से इस बात का पता चलता है कि उन्हें कहीं न कहीं इस बात का अंदाजा था कि नोटा दबाने को लेकर जो दुष्प्रचार फैलाया जा रहा है उसका विपरीत असर आगामी चुनावों में पड़ सकता है। आखिर वो कौन से लोग थे जिन्होंने सोशल मीडिया पर नोटा को लेकर अभियान चलाया था?

जब सरकार ने एससी एसटी एक्ट को लेकर अध्यादेश जारी किया तब सवर्णों को भड़काने के लिए नोटा का प्रचार किया गया। जब सरकार ने सबरीमाला पर अदालत के फैसले के खिलाफ कोई स्टैंड नहीं लिया तब दक्षिण भारतीयों को नोटा दबाने के लिए भड़काया गया। राम मंदिर का मामला जो कि अदालत में लंबित है, उसे लेकर ये साबित करने की कोशिश की गई कि सरकार राम मंदिर के पक्ष में नहीं है। इसे लेकर हिन्दुओं को भड़का कर नोटा दबाने की सलाह दी गई। ये अपील किसी दल की तरफ से नहीं आती है- ऐसे में ये पता लगाना कठिन हो जाता है कि ये दुष्प्रचार फैलाने वाले लोग कहाँ से आते हैं और कौन हैं। हो सकता है कि इन्हें राजनीतिक उपयोग के लिए इस्तेमाल किया जा रहा हो। या फिर ये भी हो सकता है कि कोई ऐसी पार्टी जिसे हार का डर हो और वह वोटों को अपनी तरफ खींचने में नाकाम होने पर अपने फायदे के लिए नोटा के प्रयोग से जीतने वाली पार्टी को मिलने वाले वोटों की संख्या कम करना चाहती हो।

राजस्थान के ताजा चुनाव परिणामों का ही उदाहरण लेते हैं। यहाँ भी पंद्रह सीटों पर नोटा को मिले वोटों की संख्या उम्मीदवारों की हर-जीत के अंतर से ज्यादा रही। ऐसे में अगर ये वोट किसी उम्मीदवार को पड़ते तो नतीजे कुछ और हो सकती थे। यहाँ भी कांग्रेस बहुमत के करीब जाकर रह गई लेकिन जरूरी सीटों के आंकड़े तक नहीं पहुँच सकी। इसका मतलब ये हुआ कि कांग्रेस को निर्दलीयों या किसी अन्य दल की मदद से सरकार चलानी पड़ेगी। अगर यहाँ नोटा को मिले मत भाजपा या कांग्रेस को मिले होते तो उनके पास आठ-दस ज्यादा सीटें हो सकती थी जिसे किसी पार्टी को स्थिर सरकार चलाने के लिए मिला जनादेश माना जाता। इसीलिए यहाँ भी नोटा को पड़े मतों ने दोनों तरफ का खेल बिगाड़ा।

यहाँ ये बताना जरूरी हो जाता है कि भारतीय लोकतंत्र में नोटा का इस्तेमाल शीर्ष अदालत के आदेश के बाद 2013 के विधानभा चुनावों में पहली बार किया गया था। अदालत का मानना था कि अगर कोई मतदाता किसी भी उम्मीदवार को अपना वोट नहीं देना चाहता है तो फिर वह वो गुप्त रूप से नोटा दबा सकता है। इस आदेश के बाद चुनाव आयोग ने इवीएम में नोटा विकल्प को जोड़ा। लेकिन उसी शीर्ष अदालत ने अगस्त 2018 में दिए अपने निर्णय में राज्यसभा चुनावों में नोटा के इस्तेमाल की इजाजत देने से मना कर दिया। ऐसे में इस सवाल का उठना लाजिमी है कि अगर नोटा एक चुनाव में प्रासंगिक है तो फिर दूसरे चुनाव में वही विकल्प अप्रासंगिक कैसे हो सकता है? क्या राज्यसभा चुनावों में सभी उम्मीदवार बेहतर होते हैं? अगर नोटा एक सही विकल्प है तो फिर इसे प्रत्येक चुनाव में क्यों नहीं इस्तेमाल किया जा सकता है? या फिर ये मान लिया जाए कि राज्यसभा चुनावों में उम्मीदवार बुरे हो ही नहीं सकते क्योंकि अदालत ने वहां नोटा के प्रयोग को मंजूरी नहीं दी। ये एक विरोधाभास है जिसकी चर्चा होनी चाहिए।

सितम्बर में इंडिया टुडे के एक रिपोर्ट के अनुसार भाजपा नेता सी एन अग्रवाल ने ये आकलन किया था कि कुछ लोग भले ही भाजपा से गुस्सा हों पर वो विपक्षी पार्टियों से भी खुश नहीं हैं। उनका मानना था कि नोटा से उच्च जाती, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों से जुड़े उम्मीदवारों पर असर पड़ेगा जबकि दलित उम्मीदवारों को इस से फायदा मिलने की सम्भावना है। ऐसे में बसपा को फायदा होगा। और हुआ भी यही। क्योंकि जहाँ सपा का प्रदर्शन नोटा से भी खराब रहा वहीं बसपा को कहीं-कहीं कुछेक सीटें आ गई। अब सवाल यह उठता है कि क्या नोटा से नतीजों पर वैसा ही प्रभाव पड़ता है जैसा मतदाता चाहते हैं और अगर नहीं तो फिर इसके कारण चुनाव परिणामों में होने वाले उलट-पुलट की जिम्मेदारी किसकी? अगर कुछ लोगों द्वारा नोटा के पक्ष में हवा तैयार करवा कर कोई दल या समूह चुनाव को प्रभावित कर सकता है तो फिर तैयार रहिये; क्योंकि भविष्य में ये खेल और भी बड़े स्तर पर खेला जायेगा।

आंकड़े: पांच राज्यों के चुनाव परिणामों में आप और सपा से काफी आगे निकला नोटा

हाल ही में पांच राज्यों में हुए चुनावों में नोटा ने अहम किरदार अदा किया है। कल आये राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के चुनाव परिणामों को देख कर ये कहा जा सकता है कि प्रमुख पार्टियों की हार-जीत में नोटा ने मुख्य भूमिका निभाई है। अगर पाँचों राज्यों के आंकड़ों को मिला कर देखें तो कुल पंद्रह लाख लोगों ने किसी उम्मीदवार को वोट देने कि बजाय नोटा यानी “उपर्युक्त में से कोई नहीं” का विकल्प चुनना ज्यादा बेहतर समझा। पाँचों राज्यों में नोटा का वोट शेयर 6.3% के आसपास रहा।

सबसे पहले बात मध्य प्रदेश की जहां भाजपा और कांग्रेस में दिन भर कांटे की टक्कर रही। यहाँ नोटा को कुल 1.4 प्रतिशत मत पड़े. ये सपा को पड़े 1.2% और आम आदमी पार्टी को पड़े 0.7% मतों से ज्यादा है। यानी कुल 542000 से ज्यादा लोगों ने यहाँ नोटा का विकल्प दबाया। आंकड़ों से साफ़ है कि मध्य प्रदेश में नोटा को अरविन्द केजरीवाल की आप से दोगुने मत प्राप्त हुए। 2013 में हुए पीछे चुनाव में पांच ऐसे बड़े नेता थे जिनकी हार-जीत का अंतर नोटा वोटों से कम था। इस बार ऐसे नेताओं की संख्या बढ़ कर नौ हो गई है। कुल मिलाकर अठारह सीटों पर नोटा ने इस बार अपना असर दिखा कर चौंकाया है।

वहीं छत्तीसगढ़ एकलौता ऐसा राज्य रहा जहां कांग्रेस ने अपने दम पर बहुमत हासिल किया। यहाँ करीब दो प्रतिशत लोगों ने नोटा का विकल्प चुना। राज्य में नोटा दबाने वाले लोगों की संख्या दो लाख अस्सी हजार के पार रही। वहीं आप को कुल 0.9% मत मिले। इस हिसाब से देखें तो आप से दोगुने से भी ज्यादा मत नोटा को प्राप्त हुए। सपा यहाँ भी नोटा से काफी पीछे रहीं और उसे नोट से दस गुने कम मत मिले। छत्तीसगढ़ में सपा का वोट शेयर 0.2% रहा।

अब राजस्थान के आंकड़ों पर नजर डालते हैं। यहाँ कांग्रेस और भाजपा के बीच मतों का अंतर 0.5% रहा। इसका मतलब यह कि कांग्रेस को भाजपा से भले ही 26 सीटें ज्यादा मिली लेकिन पार्टी वोट शेयर के मामले में भाजपा से आधे प्रतिशत ज्यादा वोट ही बटोर पाई। यहाँ नोटा को 1.3% वोट मिले यानी 467000 से ज्यादा मतदाताओं ने नोटा दबाया। यहाँ भी नोटा को मिले वोटों की संख्या आम आदमी पार्टी को मिले मतों से तीन गुने से भी अधिक रही। आप को महज 0.4% मतों से संतोष करना पड़ा। सपा 0.2% वोट शेयर के साथ सपा छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की तरह राजस्थान में भी नोटा से काफी पीछे रही।

दक्षिण भारतीय राज्य तेलंगाना में केसीआर की पार्टी टीआरएस ने एकतरफा जीत दर्ज किया। यहाँ नोटा को हिंदी बेल्ट के तीनो राज्यों से कम यानी 1.1% मत पड़े। सीपीआई औए सीपीएम- ये दोनों ही वामपंथी वामपंथी दल नोटा से काफी पीछे रहे। हलांकि तेलंगाना के नतीजो को देख कर लगता है कि यहाँ पर नोटा का कोई ख़ास रोल नहीं रहा।

अब बात करते हैं उत्तर-पूर्वी राज्य मिजोरम की। यहाँ एमएनएफ ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया जिस से अब उत्तर-पूर्व के आठो राज्यों में भाजपा या राजग के घटक दलों की ही सरकार है। यहाँ नोटा को पांचो राज्यों में सबसे कम वोट पड़े। यहाँ एमएनएफ और कांग्रेस के बीच मतों का अंतर लगभग साढ़े सात प्रतिशत के आसपास रहा जबकि नोटा को सिर्फ आधे प्रतिशत मत ही मिले।

दिल्ली के विधायक और आप सरकार में मंत्री रहे कपिल मिश्रा ने इन चुनावों में आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन नोटा से भी ख़राब रहने को लेकर केजरीवाल पर तंज कसा। उन्होंने ट्वीट कर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में आप के मुख्यमंत्री उम्मीदवारों तक के भी जमानत जब्त होने को लेकर केजरीवाल को आड़े हाथों लिया।

कुल मिलाकर देखें तो कल आये पांच राज्यों के चुनावी नतीजों से यही पता चलता है कि कम से कम राजस्थान और मध्य प्रदेश में नोटा के कारण कई उम्मीदवारों की हार-जीत पर असर पड़ा है। बता दें कि चुनावों से पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत ने नोटा को लेकर लोगों को चेताया था। उन्होंने कहा था “नोटा का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं होना चाहिए। हमें जो सबसे बेहतर उपलब्ध हो उसे ही चुनना चाहिए। नोटा दबाने से तो कई बार खराब उम्मीदवारों को लाभ हो जाता है।”

सभी आंकड़ों का सोर्स: चुनाव आयोग की आधिकारिक वेबसाइट

मध्य प्रदेश में कांटे की टक्कर में कांग्रेस निकली आगे, वोट शेयर में भाजपा अव्वल

मंगलवार को पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे आये जिसमे सबसे ज्यादा ऊहापोह की स्थिति मध्य प्रदेश में रही। देर रात तक चल रही वोटों की गिनती में कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा आगे निकलते हुए दिखाई पड़ती रही और अंततः कांग्रेस बहुमत से सिर्फ दो सीट पीछे रह गई। चुनाव आयोग की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार कांग्रेस को 114 सीटें आई तो वहीं भाजपा 109 सीटों को अपनी झोली में डालने में कामयाब रही। सपा को एक तो बसपा को दो सीटों से संतोष करना पड़ा। निर्दलीयों के खाते में चार सीटें आई। मतगणना से प्राप्त परिणाम आज सुबह तक साफ़ हुए लेकिन कांग्रेस ने देर रात ही राज्यपाल आनंदी बेन पटेल को ईमेल और फैक्स भेजकर सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया

मध्य प्रदेश की चुनावों की मतगणना किसी टी-20 के मैच की तरह चली जिसने दोनों तरफ के समर्थकों को अपने-अपने पार्टियों के जीतने की उम्मीद तब तक कायम रही जब तक चुनाव आयोग की वेबसाइट पर पूरे नतीजे नहीं आ गए। वहीं कांग्रेस ने भले ही भाजपा से 5 सीटें ज्यादा जीती हो लेकिन वोट शेयर के मामले में वो पीछे रह गई। कांग्रेस को कुल 40.9% वोट पड़े तो भाजपा 41% मत बटोर कर इस मामले में अव्वल रही। इन दोनों पार्टियों के बाद निर्दलीयों का नम्बर आता है जिन्होंने 5.8% मत प्राप्त हुए। निर्दलीयों ने राज्य की चार विधानसभा सीटों पर कब्जा किया है।

उधर मध्य प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष राकेश सिंह ने भी देर रात एक बजे के करीब ट्वीट कर कहा कि जनादेश कांग्रेस के पक्ष में नहीं है और भाजपा भी राज्यपाल से मिल कर सरकार बनाने का दावा पेश करेगी।

लेकिन आंकड़ों की माने तो प्रदेश में कांग्रेस की सरकार तय लग रही है क्योंकि अगर वो चार निर्दलीयों का समर्थन जुटा लेती है फिर भी भाजपा का आंकड़ा 113 ही पहुंचता है जो बहुमत के लिए जरूरी 116 सीटों से तीन कम है। वहीं कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए सिर्फ दो विधायकों के समर्थन की दरकार है।

मध्य प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों के लिए 28 नवंबर को मतदान आयोजित किया गया था जिसमे 75% से ज्यादा मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था।

तेलंगाना में केसीआर का परचम, ओवैसी ने मजबूत किया अपना किला

तेलंगाना के ताजा चुनाव परिणामों के अनुसार केसीआर (क्ल्वाकुंतला चंद्रशेखर राव) ने राज्य में अपना दबदबा कायम रखा है। 119 सीटों वाले तेलंगाना विधानसभा में बहुमत के लिए 60 सीटों पर जीत चाहिए होती है लेकिन केसीआर की पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति ने 88 सीटों पर जीत का परचम लहरा कर एकतरफा जीत दर्ज किया। 2014 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में टीआरएस को 63 सीटें मिली थी। उस हिसाब से देखें तो उसे कुल 25 सीटों का भारी फायदा हुआ है। 2014 का चुनाव राज्य के गठन के बाद हुआ पहला विधानसभा चुनाव भी था जिसे उस समय आम चुनावों के साथ ही आयोजित किया गया था।

इस चुनाव में कांग्रेस चन्द्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के साथ गठबंधन बना कर उतरी थी जबकि पिछले चुनावों में टीडीपी का गठबंधन भाजपा के साथ था। दोनों ही पार्टियां कुछ ख़ास प्रदर्शन नहीं कर पाई। जहां कांग्रेस को 19 सीटें मिली तो वहीं टीडीपी को सिर्फ दो सीटों से संतोष करना पड़ा। अगर वोट शेयर की बात करें तो उस मामले में भी टीआरएस ने बांकी पार्टियों को काफी पीछे छोड़ दिया। टीआरएस को कुल 46.9% मत मिले जबकि कांग्रेस 28.4% मतों के साथ दूसरे स्थान पर रही। भाजपा ने 7% वोट शेयर के साथ तीसरा स्थान प्राप्त किया।

यहाँ हैदराबाद के सीटों की बात करना जरूरी है क्योंकि ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने हैदराबाद की आठ में से सात सीटों पर दर्ज की है। ये वही सात सीटें हैं जिनपर उन्होंने 2009 और 2014 में हुए चुनावों में भी जीत दर्ज की थी। एआईएमआईएम ने इन सातों सीटों पर पिछली विधानसभा में जीते विधायकों को ही टिकट दिया था। पार्टी ने आठ सीट पर अपने उम्मीदवार उतारे से जिसमे से उसे सिर्फ एक पर हार का सामना करना पड़ा। बांकी सभी सीटों पर एआइएमआईएम ने टीआरएस को समर्थन दिया था। वहीं पार्टी के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी के भाई और अपने विवादित बयानों के लिए कुख्यात अकबरुद्दीन ओवैसी चंद्रयानगुट्टा से लगातार पांचवी बार निर्वाचित हुए।

चुनाव परिणामों पर बोलते हुए एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने केसीआर को प्रधानमंत्री पद के योग्य बता दिया। उन्होंने कहा कि मैं यह जिम्मेदारी के साथ कहना चाहता हूं कि आगामी लोकसभा चुनाव में चंद्रशेखर राव के पास वह क्षमता है कि वह देश का नेतृत्व करें। उन्होंने कहा कि अब इस देश को कांग्रेस और भाजपा के अलावा एक तीसरे नेतृत्व की जरूरत है और यह क्षमता के चंद्रशेखर राव में है।

राजस्थान में कांग्रेस की सरकार तय, गहलोत ने मांगा निर्दलियों का समर्थन

राजस्थान में विधानसभा चुनावों की एक प्रवृति रही है और वो ये है कि 1993 के बाद यहाँ हुए हर चुनाव में सत्ताधारी दल को मुंह की खानी पड़ी है। 2018 के चुनावों में भी मतदाताओं ने ये ट्रेंड बरकरार रखा है और कांग्रेस को जनादेश दिया है। चुनाव आयोग की आधिकारिक वेबसाइट के आंकड़ों के अनुसार कांग्रेस 99 सीटों पर जीत दर्ज कर सरकार बनाने की स्थिति में आ गई है। हलांकि राजस्थान में कुल 200 विधानसभा सीटें हैं लेकिन इनमे से 199 सीटों पर ही मतदान हुआ था जिसके कारण बहुमत का जादुई आंकडा 100 हो जाता है। रामगढ़ विधानभा क्षेत्र के एक उम्मीदवार की मृत्यु हो जाने के कारण वहां वोट नहीं डाले गए। भाजपा के खाते में 73 सीटें आई है वहीं 13 सीटों पर निर्दलीय विधायकों ने जीत दर्ज किया।

मायावती की पार्टी बसपा ने भी राजस्थान में छः सीटों पर जीत दर्ज कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। हलांकि कांग्रेस के पास बहुमत के लिए जरूरी सीटों के आंकड़े से एक सीट कम है लेकिन अन्य और निर्दलीयों की संख्या को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि राजस्थान में कांग्रेस की सरकार तय है। जैसा कि माना जा रहा था या कई एग्जिट पोल में दिखाया जा रहा था, कांग्रेस के लिए राजस्थान का रण उतना आसान भी नहीं रहा और एंटी-इनकम्बेन्सी के बावजूद भाजपा और कांग्रेस में कांटे की टक्कर रही- कम से कम नतीजों को देख कर तो यही साबित होता है।

वहीं अगर वोट शेयर की बात करें तो कांग्रेस और भाजपा के वोट शेयर में ज्यादा का अंतर नहीं रहा। कांग्रेस को कुल 39.3% मत प्राप्त हुए हैं वहीँ भाजपा के खाते में 38.8% मत आये। अगर दोनों पार्टियों को मिले मत प्रतिशत की तुलना करें तो सिर्फ 0.5% का अंतर है। निर्दलीय 9.5% वोट शेयर के साथ तीसरे स्थान पर रहे। अन्य के खाते में इतनी सीटों का जाना यह भी दिखाता है कि कांग्रेस और भाजपा के बागियों ने दोनों ही पार्टियों का नुकसान किया है।

कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने निर्दलीयों को सरकार में शामिल होने का न्योता दिया है। वहीं दूसरी तरफ सचिन पायलट ने भी कहा कि कांग्रेस समान विचारधारा वाले उम्मीदवारों के संपर्क में हैं। बता दें कि ये दोनों ही कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में शामिल हैं।

कुल मिलाकर देखें तो राजस्थान ने 25 सालों के हर चुनाव में सरकार बदलने के अपने ट्रेंड को इस चुनाव में भी बरकरार रखा और फलस्वरूप वसुन्धरा राजे की सरकार को बहार का रास्ता देखना पड़ा। राजस्थान में 7 दिसम्बर को विधानसभा चुनाव हुए थे जिसमे करीब 74% मतदाताओं ने हिस्सा लिया था।

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की आसान जीत, माया-जोगी ने बिगाड़ा भाजपा का खेल

छत्तीसगढ़ चुनाव के परिणाम आ गये हैं और कांग्रेस वहां बहुमत के लिए जरूरी 46 सीटों के आंकड़े से काफी आगे निकल गई है। चुनाव आयोग की वेबसाइट पर आये नतीजों के अनुसार कांग्रेस ने कुल 68 सीटों पर जीत का परचम लहराया है वहीं भाजपा के हाथ महज 15 सीटें ही आई। ताजा ख़बरों के अनुसार मुख्यमंत्री रमण सिंह ने राज्यपाल को अपना इस्तीफा भी सौंप दिया है। हलांकि नई सरकार के शपथग्रहण तक वो मुख्यमंत्री का कार्यभार सम्भालते रहेंगे। बता दें कि डॉक्टर रमण सिंह भाजपा के सबसे लम्बे कार्यकाल वाले मुख्यमंत्री हैं। अपने 15 वर्षों के शासनकाल में लोक-लुभावन योजनाओं के कारण उन्हें छत्तीसगढ़ के लोग “चावल वाले बाबा” और “मोबाइल वाले बाबा” भी कहते हैं।

भाजपा के उलट कांग्रेस बिना किसी सीएम उम्मीदवार के चुनाव में उतरी थी. राहुल गाँधी ने धुआंधार प्रचार में किसानों की कर्जमाफी का वायदा भी किया था। विश्लेषकों का मानना है कि राहुल गाँधी के हर भाषण में इस मुद्दे को उठाना और रमण सिंह का इसे मजाक में लेना भाजपा को भारी पड़ गया। अपनी हार स्वीकारते हुए डॉक्टर रमण सिंह ने मीडिया को संबोधित करते हुए कहा कि विधानसभा चुनाव मेरी अगुवाई में लड़ा गया था, इसलिए हार की जिम्मेदारी भी मैं लेता हूं। उन्होंने कहा कि पिछले तीन चुनाव में जब हमारी जीत हुई थी, तो जीत का श्रेय भी मुझे ही मिला था इसलिए अब हारे हैं तो उसकी जिम्मेदारी भी मैं लेता हूं।

वहीं अगर वोट शेयर की बात करें तो कांग्रेस को कुल 43% वोट मिले हैं तो भाजपा के खाते में 33% मत आये। ये जानने लायक बात है कि चुनाव से पहले अजीत जोगी की जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ और मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन किया था। जेसीसी को कुल पांच सीटें आई और बसपा ने दो सीटों पर जीत दर्ज की। दोनों पार्टियों का संयुक्त वोट शेयर 11.5% के आसपास रहा। कई विश्लेषकों ने इस इस गठबंधन को भी भाजपा की हार के पीछे रही प्रमुख कारणों में से एक गिनाया है क्योंकि अगर भाजपा और कांग्रेस के मत प्रतिशत के बीच के अंतर को देखें तो वो जोगी-माया को मिले मत प्रतिशत के लगभग बराबर ही है।

छत्तीसगढ़ में 90 विधानसभा सीटों के लिए दो फेज में 12 नवंबर और 20 नवंबर को मतदान हुए थे जिसमे लगभग 76% वोटरों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था।

मिजोरम में कांग्रेस की करारी हार, मुख्यमंत्री थानहवला दोनों सीटों से हारे

मिजोरम विधानसभा चुनावों के परिणाम आ गए हैं और वहां मिजो नेशनल फ्रंट को स्पष्ट जनादेश मिला है। एमएनएफ ने 40 सीटों वाले मिजोरम विधानसभा में बहुमत के लिए जरूरी 21 सीटों के जादुई आंकड़े को आसानी से पार कर लिया है। चुनाव आयोग की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार पूर्व मुख्यमंत्री जोरामथांगा के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही एमएनएफ ने कुल 26 सीटों पर जीत दर्ज की है। मिजोरम चुनाव परिणाम की सबसे चौंका देने वाली बात यह रही कि निर्वतमान मुख्यमंत्री और कान्ग्रेस नेता लाल थानहवला को दोनों सीटों से हार का सामना करना पडा। पिछले चुनावों में उन्होंने इन्ही दोनों सीटों से जीत दर्ज की थी। वहीं उनकी पार्टी को सिर्फ पांच सीटों से संतोष करना पड़ा।

आपको बता दें कि 9 बार विधायक रहे लाल थानहवला मिजोरम कांग्रेस के दिग्गज नेता हैं और पिछले दस सालों से मिजोरम के मुख्यमंत्री हैं। ऐसे में उनका दोनों ही सीटों से हार जाना कांग्रेस के लिए मिजोरम ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर-पूर्व में एक बड़ा झटका माना जा रहा है। ताजा चुनावी परिणामों के बाद अब ये साफ़ हो गया है कि 76 वर्षीय थानहवला कि जगह अब 84 वर्षीय जोरामथांगा राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार सम्भालेंगे। जोरामथांगा 1998 से 2008 के बीच दस सालों के लिए मिजोरम के मुख्यमंत्री रह चुके हैं।

वहीं भारतीय जनता पार्टी ने भी पहली बार मिजोरम में अपना खाता खोला और पार्टी को एक सीट मिली। अन्य के खाते में 8 सीटें गई है। मिजोरम में कांग्रेस की करारी हार को बीजेपी के “कांग्रेस मुक्त उत्तर-पूर्व” के नारे से जोड़ कर भी देखा जा रहा है। एमएनएफ सहित कई दल “नार्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायन्स” का हिस्सा हैं जो भाजपा नीत राजग का ही एक भाग है लेकिन इस चुनाव में भाजपा और एमएनएफ ने अलग-अलग जाने का फैसला लिया था। ऐसे में अब उत्तर-पूर्व के आठो राज्यों में राजग कि सरकार है।

जीत सुनिश्चित होने के बाद मिजोरम के भावी मुख्यमंत्री पु जोरमथांगा ने कहा कि उनकी सरकार की तीन प्रमुख प्राथमिकतायें होंगी- शराबबंदी, सड़कों की मरम्मत और आर्थिक विकास कार्यक्रम। उन्होंने ये भी कहा कि उनकी पार्टी अकेले ही सरकार बनाएगी लेकिन वो राजग का हिस्सा बने रहेंगे।

वहीं अगर वोट शेयर की बात करें तो एमएनएफ को 37.6% मत प्राप्त हुए तो कांग्रेस की हिस्सेदारी 30.2% रही। बता दें कि 28 नवंबर को राज्य की 73 प्रतिशत जनता ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था।