गोवा भारत के सबसे छोटे राज्यों में से एक है। रमणीय समुद्र तट, नीले पानी, सुनहरी रेत और सैलानियों के आकर्षण का केंद्र भी। लेकिन इसके अतीत में भयवाह सच मौजूद हैं। यह हिन्दुओं का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि इस छोटे से राज्य में आज बचे हुए हिन्दुओं को अपनी पहचान ऐसे स्मारकों में तलाशनी पड़ रही है, जिन्हें इसाई मिशनरियों ने उन्हीं के रक्त से कभी सींचा था।
भारत के पश्चिमी तट पर स्थित गोवा के वेल्हा (पुराने) में चर्च और आश्रम, पुर्तगाली शासन के दौर से ही मौजूद हैं। 16वीं और 17वीं शताब्दी के बीच पुराने गोवा में व्यापक स्तर पर चर्चों और गिरजाघरों का निर्माण किया गया था। इनमें शामिल हैं– बेसिलिका ऑफ बोम जीसस, सेंट कैथेड्रल, सेंट फ्रांसिस असीसी के चर्च और आश्रम, चर्च ऑफ लेडी ऑफ रोजरी, चर्च ऑफ सेंट ऑगस्टीन और सेंट कैथरीन चैपल! इन चर्चों और आश्रमों को 1986 में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।
इन गिरिजाघरों में रखे गए अधिकांश चित्र लकड़ी के बॉर्डर से घिरे हैं। ये इसाई मिशनरी ‘सेंट’ ज़ेवियर के मकबरे को सजाने के लिए इस्तेमाल किए गए फूलों के डिजाइन जैसे ही हैं। पत्थर और लकड़ी की मूर्तियाँ, उन पर हुई शानदार उत्कृष्ट नक्काशी देखकर लगता है, मानो गोवा हमेशा से ही इतना शांत और रमणीय था। लेकिन यीशु, मदर मैरी और साईसंतों की पेंटिंग्स के बीच और भी कई ऐसे साक्ष्य अंतिम साँसे ले रहे हैं, जिन पर हिन्दुओं को रौंदा गया, उन्हें यातनाएँ दी गईं। यह सब इसलिए किया गया क्योंकि उन्होंने धर्म परिवर्तन का विरोध किया था और वो ‘बिलिवर’ नहीं बने।
यूँ तो इतिहास में बहुत कुछ दफन है लेकिन एक ऐसा स्तम्भ, जिस पर कभी कहीं भी बात नहीं की जाती, वह है – हाथ काटरो खम्भ (Hath Katro Khambh) या जिसे ‘न्याय का स्तम्भ’ भी कहा जाता है।
‘Hath Katro Khambh’ or ‘Pillar of Inquisition’ – This is where St. Xavier’s missionaries used to chop off the hands of those refusing to convert to Christianity #GoaHistory
— MadhuPurnima Kishwar (@madhukishwar) May 28, 2020
These same barbarians dare teach us human rights now! pic.twitter.com/8SxJCRvAEr
इस स्तम्भ के बारे में कभी बात नहीं की गई। हालाँकि, फ्रांसिस ज़ेवियर के नाम पर आज देशभर में कई स्कूल कॉलेज, संगठन और गिरजाघर मौजूद हैं। इसाई मिशनरी धर्म प्रचारक सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर (Francis Xavier) पुर्तगाली काफिले के साथ भारत आया था। उसने भारत पहुँचकर ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार किया था। वह ‘सोसायटी ऑफ जीसस’ से जुड़ा था।
16वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, दक्षिण भारत से होने वाले मसालों के व्यापार ने भारतीय बंदरगाह को एक बहु-सांस्कृतिक शहर में बदल दिया। देखते ही देखते पुर्तगालियों ने खुद को यहाँ सत्ता में स्थापित कर लिया। पुर्तगालियों ने सुनिश्चित किया कि वहाँ के स्थानीय लोग भी अब उनके जैसी ही धार्मिक मान्यताओं का पालन करें। वर्ष 1541 में इसाई मिशनरियों द्वारा फरमान सुनाए गए कि सभी हिंदू मंदिरों को बंद कर दिया जाए। इसके बाद, 1559 तक आते-आते तकरीबन 350 से अधिक हिन्दू मंदिरों को नष्ट कर दिया गया था और मूर्ति पूजा पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
सेंट ज़ेवियर ने देखा कि उसके हिन्दुओं के बलात धर्म परिवर्तन के प्रयास पूरी तरह से कामयाब नहीं हो रहे थे। उसे समय रहते यकीन होता गया कि सनातन धर्म की आस्था अक्षुण्ण है। यदि वह मंदिरों को नष्ट करता है तो लोग घरों में ही मंदिर बना लेते हैं। उसने देखा कि लोगों को धारदार हथियारों से काटने, उनके हाथ और गर्दन रेतने और असीम यातनाको देने के बाद भी फेनी (सस्ती शराब) और सनातन धर्म में से लोग सनातन धर्म को ही चुनते और मौत को गले लगा लेते।
निराश होकर ज़ेवियर ने रोम के राजा को पत्र लिखा जिसमें उसने हिन्दुओं को एक अपवित्र जाति बताते हुए उन्हें झूठा और धोखेबाज लिखा उसने कहा कि उनकी मूर्तियाँ काली, बदसूरत और डरावनी होने के साथ ही तेल की गंध से सनी हुई होती हैं।
इसके बाद हिन्दुओं पर यातनाओं का सबसे बुरा दौर आया। फ्रांसिस ज़ेवियर ने गोवा का पूर्ण अधिग्रहण किया। हिन्दुओं के दमन के लिए एक धार्मिक नीतियाँ बनाई और यीशु की कथित सत्ता में यकीन ना करने वाले ‘नॉन-बिलीवर्स’ को दंडित किया जाने लगा।
अक्टूबर, 1560 तक आम जनता के जिन्दा रहने और उनके मरने से लेकर उनके भाग्य का फैसला ईसाई प्रीस्ट (पुजारियों) के हाथों में आ गई। यह सभ्यता की आड़ में आस्था का बेहद क्रूर और वीभत्स अधिग्रहण था। लोगों को ईसाई बनाने के लिए बर्बर हिन्दू-विरोधी कानून लाए गए।
धर्मांतरण के लिए लोगों को ‘विश्वास के कार्य’ (ऑटो-दा-फ़े) की प्रक्रिया से गुजरना होता था, जिसमें नृशंस यातनाएँ दी जाने लगीं। इसके लिए लोगों को रैक पर खींचकर या सूली पर जलाया जाता था। बच्चों को उनके माता-पिता के सामने अंग-भंग किया जाता और उनकी आँखें तब तक खुली रहती थीं, जब तक वे धर्मपरिवर्तन के लिए सहमत नहीं होते थे।
इस घटना के बारे में लिखने वाले इतिहासकारों को भी सख्त यातनाएँ दी गईं। उन्हें या तो गर्म तेल में डालकर जलाया जाता या फिर जेल भेज दिया जाता। ऐसे ही कुछ लेखकों में फिलिपो ससेस्ती, चार्ल्स देलोन, क्लाउडियस बुकानन आदि के नाम शामिल थे। इतिहास में पहली बार हिन्दू भागकर बड़े स्तर पर प्रवास करने को मजबूर हो गए।
शोक की कथा कहता ‘हाथ काटरो खम्भ’
ओल्ड गोवा के कई स्मारकों और संरचनाओं के बीच, पेलोरिन्हो नोवो (Pelourinho Novo/नया स्तंभ) नाम का एक काले बेसाल्ट स्तंभ इतिहास के काले अध्यायों का साक्षी है। गोवा के शोक की कहानी कहता यह स्तम्भ वर्तमान में राजमार्ग पर एक प्रमुख जंक्शन पर स्थित है।
स्थानीय भाषा में इस पेलोरिन्हो नोवो को ही ‘हाथ काटरो खम्भ’ (Hatkatro Khambo) कहा जाता है। इसका शाब्दिक अर्थ है – ऐसा स्तंभ जहाँ हाथों को काटा जाता था। दुर्भाग्य यह है कि समकालीन स्मारकों के विपरीत, यह स्तंभ आज तक भी एक संरक्षित स्मारक नहीं है। यानी यह न तो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) और न ही अभिलेखागार और पुरातत्व निदेशालय, सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है।
इस स्तंभ का एक बहुत ही विवादित इतिहास रहा है। यह हिंदुओं पर पुर्तगाली सनकी शासकों के बर्बरता का जीवंत साक्ष्य है। ईसाइयों द्वारा नॉन-बिलीवर्स (हिन्दू) को इससे बाँधकर उनके अंगों को तोड़ा जाता था। इसे सालों पहले गोवा के बाहरी इलाके में स्थानांतरित कर दिया गया था। अब यह स्तंभ सड़क के केंद्र में स्थित है। जिसे करीब दो बार किसी भारी वाहन ने टक्कर मारी है।
कहा जाता है कि यह स्तंभ एक प्राचीन मंदिर का एक अवशेष है और इसके कुछ हिस्सों से प्रतीत होता है कि यह कदंब राजवंश से सम्बंधित है और इसे पुर्तगालियों ने कई मंदिरों को तोड़कर अपने दरवाजे और खिड़की की सजावट में इस्तेमाल किया था।
इस पर मौजूद शिलालेख इस बात की भी पुष्टि करते हैं कि यह मूल रूप से किसी पुराने मंदिर का स्तंभ था, या संभवत यह प्रसिद्ध सप्तनाथ शिव मंदिर का हिस्सा था।
इस स्तम्भ को लेकर हिंदू समूहों ने पंजिम और ओल्ड गोवा में कई बार विरोध-प्रदर्शन कर इसे एक संरक्षित स्मारक घोषित करने की माँग की है। लेकिन आज तक भी यह उपेक्षा ही झेल रहा है। यह उन शेष विरासतों में से एक है जो 1812 में मिटा नहीं दिए गए।
कुछ समय पहले ही हिंदू जनजागृति समिति के जयेश थली ने कहा था कि स्तंभ श्री सप्तकोटेश्वर मंदिर का अवशेष है जो कदंब वंश के शासनकाल के दौरान अस्तित्व में था और बाद में इसे पुर्तगालियों ने ध्वस्त कर दिया था। इसका उपयोग हिंदुओं और अपराधियों को दंडित करने के लिए किया जाता था। शोधकर्ता और इतिहासकार प्रजल सखरांडे ने स्तंभ के ऐतिहासिक महत्व पर जोर देते हुए कहा कि यह कन्नड़ में एक शिलालेख है।
सभ्यता की आड़ और दिखावे में आज भी कई ऐसे सेंट जेवियर हमारे बीच मौजूद हैं जो इस देश की आस्था को खोखला करने का हरसम्भव प्रयास कर रहे हैं। जो बस इस इन्तजार में हैं कि कब हिन्दुओं के जनेऊ के खिलाफ पुर्तगालियों की तरह ही अध्यादेश जारी किए जाएँ। कब शास्त्रीय संगीत से लेकर भारतीय संस्कृति के विचार को ही ईसाई मिशनरियों के शासन की तरह प्रतिबंधित विषय बना दिया जाए।