सोशल मीडिया के आने से पत्रकारिता को बहुत सारे लाभ हुए हैं। लेकिन हाँ, इसका एक बुरा असर यह भी पड़ा कि लोग इन्स्टाग्राम और ट्वीट उठाकर, उसे आर्टिकल बनाकर मेनस्ट्रीम मीडिया में रख देते हैं। इसका एक ही तरीक़ा है, जो ज़्यादातर एंटरटेनमेंट बीट के पत्रकार अपनाते हैं: किसी भी सेलिब्रिटी का इन्स्टाग्राम/ट्विटर पोस्ट लीजिए, उसमें जो लिखा है उसको पहले ‘इनडायरेक्ट स्पीच’ में लिखिए, फिर उसे डायरेक्ट स्पीच में लिखिए और अंत में पोस्ट को एम्बेड कीजिए। बन गया आर्टिकल।
लगता है ‘द क्विंट’ के पत्रकार ऐसा करने में विश्वास नहीं रखते क्योंकि ‘ईमानदार सरकार’! चुनाव आने वाले हैं, लेकिन किसी सीट की लड़ाई में न तो जुनैद मारा जा रहा है जिसे बीफ से जोड़ा जा सके, न ही ब्राह्मिनिकल पेट्रियार्की टाइप कुछ कांड सामने आ रहा, राम मंदिर पर सिर्फ सुप्रीम कोर्ट तारीख़ दे रहा है, मोदी अपनी रैलियों में हर दिन विकास के प्रोजेक्ट्स के नाम और प्रोग्रेस गिना रहा है, तो ऐसे में वामपंथियों और पत्रकारिता के समुदाय विशेष में उनके कम्यूनल अजेंडे को हवा देने वाले लेखों का अकाल पड़ गया है।
ये जो गिरोह है पत्रकारिता के समुदाय विशेष का, असली मायनों में सबसे घटिया स्तर की जातिवादी बातें, सबसे नीच स्तर की साम्प्रदायिक बातें यही करता है। वरना, जब कुछ वैसा घटित न हो रहा हो, तब किसी एप्प से चार पोस्ट और चार हैशटैग पर क्लिक करके, उनसे डेंजरस, पोलराइजिंग, एक्सट्रीम हिन्दुत्व अजेंडा निकाल लेना, इनकी ज़िम्मेदारी है, जिसे क्विंट की इस पत्रकार ने बख़ूबी निभाया है।
आर्टिकल की शुरुआत ही इतने कमज़ोर तरीके से हुई है मानो लॉजिक को लूज़ मोशन्स हो रखे हों! फोटो के कैप्शन से ही ‘क्विंट’ ने ‘टिक-टॉक’ के बारे में जो बात कही है, विडम्बनावश, वो क्विंट और उनके पाठकों पर सटीक बैठती है: “टिक टॉक पर यूज़र्स को पता है कि उनको देखने-सुनने वाले भी उन्हीं की तरह हैं। यही कारण है कि एप्प पर पोलिटिकल विडियोज बिलकुल बेपर्दा (अनअबैश्ड) और क्रिएटिव हैं।” पहला पैराग्राफ़ किसी यूज़र के बारे में बताता है कि उसने भगवा वस्त्र धारण किए हुए हैं और कह रहा है, “क्यूँ जाना है अयोध्या, घर बैठिए और राम का नाम लीजिए।” इसके बाद किसी रिकॉर्ड किए हुए साउंड पर वो अपने होंठ हिला रहा है, “ये हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रश्न है और इससे हम कोई समझौता नहीं कर सकते।”
इसमें प्रोपेगेंडा क्या है और किसी व्यक्ति का ‘अयोध्या’ को लेकर प्रेम ‘एक्सट्रेमिज्म’ कैसे है, यह मेरी समझ से बाहर है। क्या हमें संविधान इसकी अनुमति नहीं देता, या फिर भगवा वस्त्र पहनने भर से आदमी आतंकवादी हो जाता है? क्या अपने भगवान में आस्था, उनके मंदिर बनाने की बात पर अडिग रहना, उसे अपने स्वाभिमान से जोड़ना और एक पंद्रह सेकेंड का विडियो बनाना ‘हिन्दुत्व प्रोपेगेंडा’ है? और ऐसा साबित करने का लॉजिक (जो नीचे है) वो इतना कुत्सित और बेकार है कि कोई भी समझदार आदमी माथा पीट लेगा।
आर्टिकल में लिखा है कि यूँ तो यहाँ पोलिटिकल विडियो बहुत हैं, जिसमें राहुल गाँधी के स्पीच आदि भी हैं, लेकिन इन सबको #RSS, #rammandir, #hindu and #bjp लोकप्रियता में पछाड़ देता है। यह कहते-कहते मोहतरमा वहाँ पहुँच जाती हैं जहाँ कॉमन सेन्स नहीं पहुँच सकती, “ये विडियोज़ खतरनाक तरीके से ध्रुवीकरण करने वाले प्रोपेगेंडा की तरफ चले जाते हैं।”
फिर पत्रकार ने लिखा है कि कैसे मनोरंजन और अभिव्यक्ति का यह माध्यम ‘एक्सट्रीम पोलिटिकल विचारों’ का प्लेटफ़ॉर्म बनता जा रहा है। और वो एक्सट्रीम पोलिटिकल विचार क्या हैं? विडियो क्लिप पर आए 132 कमेंट में से एक @jitenkpatel नामक यूज़र का यह कमेंट, “टिकटॉक मनोरंजन के लिए है फिर भी मंदिर वहीं बनाएँगे।” ये कमेंट सबसे अधिक ख़तरनाक और समाज को बाँटने बाला रहा होगा क्योंकि पत्रकार ने इसे इतनी अहमियत दी। आप पढ़ लीजिए, और सोचिए कि इसमें ‘डेंजर’ या ‘एक्सट्रीम’ कहाँ है?
क्या राम मंदिर बोलने से, भगवा वस्त्र पहनने से, अयोध्या की बात करने से व्यक्ति हिन्दुत्व प्रोपेगेंडा करने लगता है? क्या हिन्दू धर्म को मानने वाले अपने देवता के लिए मंदिर निर्माण की बात, एक सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर करने भर से एक्सट्रेमिस्ट हो जाते हैं? फिर तो तिलक लगाकर घूमने वाले साधुओं को क्विंट मानव बम कह सकता है। (ऊप्स! मैंने तो इन्हें नया आइडिया दे दिया कि ‘कुम्भ में पहुँचे लाखों मानव बम, हिन्दुत्व पूरी मानवता के लिए ख़तरा’)
ये अपने आप में हास्यास्पद बात है कि #RSS हैशटैग पर 63 मिलियन व्यूज़ होना प्रोपेगेंडा है, ख़तरनाक है, समाज को तोड़नेवाला है, साम्प्रदायिक है, ध्रुवीकरण करने वाला है! आर्टिकल को लम्बा करने के लिए (क्योंकि एक भी सही तर्क नहीं है सिवाय चार हैशटैग और उससे जुड़े कमेंट पर एकतरफ़ा फ़ैसला सुनाने के) बीच-बीच में यह समझाया गया है कि ये एप्प है क्या, कैसे काम करता है, किस भाषा में है, यहाँ पर कैसे लोग हैं, वो कितने ‘सिली’ हैं, या ‘धरती हिला देने वाले टैलेंट’ लेकर नहीं आए हैं।
ऐसे ही एक और विडियो का उदाहरण दिया गया है जिसमें कोई माया नायर नाम की यूज़र मलयालम में कहती हैं कि उन्हें RSS पसंद है, और उनकी पसंद में कोई बदलाव नहीं आने वाला। उसके बाद बताया गया कि उस विडियो पर 7.9 हजार लाइक्स और 906 कमेंट हैं। उसके बाद एक और विडियो का उदाहरण है जो RSS हैशटैग से जुड़ा है। इसमें RSS ‘नेशनल सॉन्ग’ (ये क्या है?) की बात करते हुए पत्रकार महोदया ने लिखा है कि यूज़र कहती है, “जीवन संघ के नाम, दिल संघ के नाम, और मैं बेटी संघ की हूँ।”
इस उदाहरण का उद्देश्य समझ में नहीं आया सिवाय इसके कि भारत में ‘संघ’ की बात करना शायद जर्मनी में हिटलर के क्रॉस की तरह बैन है। लेकिन ऐसी बात तो बिलकुल नहीं है। संघ की शाखाएँ हैं, संघ के स्कूल हैं, संघ हर आपदा में आगे खड़े होकर मदद करता है, संघ में तमाम बड़ी शख़्सियतें जाती रहती हैं, वहाँ से जुड़े लोग देश के प्रमुख पदों पर बैठे हैं, और ऑक्सफोर्ड-हार्वर्ड वालों से बेहतर काम कर रहे हैं। फिर ‘संघ’ का नाम ले लेना ही ‘एक्सट्रेमिस्ट अजेंडा’ हो जाता है? पत्रकार को भारतीय इतिहास से लेकर अपने संविधान, कुछ कानूनी बातें और नागरिक के मौलिक अधिकारों पर क्रैश कोर्स कर लेना चाहिए ताकि वो ऐसी वाहियात बातें लिखकर चार फैशनेबल शब्दों की बात अंग्रेज़ी में करके लहरिया लूटने की नाकाम कोशिश न करे।
और तो और, खुद ही टिक टॉक के विडियो की गुणवत्ता की बात करते हुए पत्रकार महोदया लिखती हैं कि ऐसा नहीं है कि कोई ग़ज़ब का टैलेंट है इधर, लोग तो अंग्रेज़ी बोलते ही नहीं, और उसमें गर्व भी महसूस करते हैं। मतलब, स्वयं ही इस प्लेटफ़ॉर्म पर जो हो रहा है उसका उपहास कर रही हैं, बताती हैं कि दो-तीन दोस्तों द्वारा घर के बरामदे में चादर की आड़ में ‘अदृश्य होते आदमी’ वाले जादू का प्रदर्शन कर रहे हैं, जो कि कोई धरती-धमक टैलेंट तो नहीं है लेकिन बताता है कि यहाँ किस तरह का कंटेंट है।
मानवी जी, इस घटना को विरोधाभास कहते हैं। जब ये प्लेटफ़ॉर्म इस तरह की जोकरई और मूर्खतापूर्ण हरकतों से, सलमान और अजय देवगन के गीतों पर रोते हुए लड़कों को विडियो से भरा हुआ है, तो वहाँ आपको राम मंदिर को लेकर भी ‘ख़तरनाक राजनीति’ करने वाले, या ‘एक्सट्रीम हिन्दुत्व अजेंडा’ के नाम पर सबसे ख़तरनाक पोस्ट यही मिलेगा कि ‘मैं आरएसएस को पसंद करती हूँ’, या यह कि ‘मेरा जीवन संघ के लिए है।’
अगर वहाँ और ज़हरीले कमेंट होते तो मुझे पता है क्विंट निकाल लेता तथा एक बड़ा आर्टिकल लिख देता कि कैसे ये ‘ख़तरनाक हिन्दुत्व अजेंडा’ वाले लोग दो-तीन दिन में तलवार लेकर सड़कों पर निकल सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य कहिए, या सौभाग्य, कि ऐसा वास्तविक जीवन में नहीं होता। जिनको राम मंदिर चाहिए वो सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का इंतज़ार कर रहे हैं। जिस पार्टी को चाहिए, उसने भी कह दिया है कि वो सुप्रीम कोर्ट के हिसाब से चलेंगे।
पूरे आर्टिकल में एक ऐसा उदाहरण नहीं है जिससे कि आर्टिकल का शीर्षक या अंत जस्टिफाय किया जा सके। इस पर अपने सात मिनट बर्बाद करने के बाद आपको यही पता चलेगा कि अगर आपने आर्टिकल लिखने से पहले, रिसर्च से पहले ही हायपोथिसिस को प्रूव करने का इरादा कर लिया हो, टैम्पलेट बना रखा हो, तो आपका कन्क्लूजन कुछ ऐसा ही होगा, “टिक-टॉक भारत के हज़ारों युवाओं की अभिव्यक्ति का एक महत्वपूर्ण माध्यम है। अपने फ़ैन्स, अपनी बेपर्दा राजनैतिक अभिव्यक्ति, अपने आक्रामक हिन्दुत्व और वृहद् यूज़र बेस के लिए। क्या भारत इसकी उपेक्षा कर सकता है?”
मैंने आर्टिकल का लिंक भी दे दिया है, उसमें जो सबसे ख़तरनाक अजेंडा की बातें थी, वैसी बातें जो बेपर्दा राजनैतिक अभिव्यक्ति है, वैसे पोस्ट जो आक्रामक हिन्दुत्व का स्वरूप हैं, सब आपको हिन्दी में दे दिया है। डिसाइड कर लीजिए कि क्विंट में काम करने वालों को वैसे विशेषणों से विशेष प्रेम है जिसका मतलब वो नहीं जानते, या फिर ‘हिन्दुत्व’, ‘प्रोपेगेंडा’, ‘एक्स्ट्रेमिज्म’ लिखकर कुछ भी चला दिया जाएगा? इससे कहीं बेहतर तो इन्स्टाग्राम से दीपिका पदुकोन और रणवीर सिंह के लवी-डवी कमेंट पर पोस्ट बना दिया जाता! प्रोसेस तो मैंने बता ही दिया है!