Friday, April 26, 2024
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व्यंग्यात्मक गजलें और अश’आर: मुनव्वर राणा के नाम

ऐ अँधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया... जिहादी ने पेट्रोल बम फेंका, शहर में उजाला हो गया... मेरे हाथों में पेट्रोल बम, हथियारों को वो देती है... पुलिस ले जाती है तो अम्मी गुस्से में रो देती है

किसी के हिस्से में टट्टी, किसी के पाद आया
मैं घर में सबसे कट्टर था, मेरे हिस्से जिहाद आया

दस्तरख़ान बिछ गया, बीफ खाने लगे फसादी
मैं सबसे मोटा था, मेरे हिस्से सलाद आया

चौदह से ही था परीशाँ बहुत, लौटा दिया ‌अवार्ड
सत्रह में लग गए जब योगी मोदी के बाद आया

मैं तो क्लोसेट जिहादी था, करता था शायरी
दुकाँ हुई जो बंद तो बाहर मेरा उन्माद आया

हमारे वैचारिक अब्बू इकबाल ने ही कर दी थी शुरुआत
फ्रांस में गर्दन काटना तो बहुत-बहुत बाद आया

तो क्या हुआ कुछ गर्दन काटे, बस्तियाँ जला दीं हमने
कौम सबसे पहले है, देश तो सबसे बाद आया

मन तो बहुत था कि पाकिस्ताँ में जा बसें
मोटा तो था पहले ही, ऐन वक्त पर जुलाब आया

राहत ने चरस बोई थी बाप-ए-हिन्दोस्तान वाली
वही चरस बोने मैं मुनव्वर-ए-बर्बाद आया

अंतिम गजल तक पढ़िएगा क्योंकि लम्बी है, और दिल्ली दंगों की असलियत बयान करती है

दूसरी गजल:

पड़ी सायकिल को देखते ही पंचर साट देते हैं
खड़े काफिर को देखते ही गर्दन काट देते हैं

हाथ उठा कर, बुलाओ, शरण दो, बसा भी दो, लेकिन
आदतन हम उन्हीं हाथों को अक्सर काट देते हैं

कोई आइसिस बनाता है, कोई बनता है तालिबान
वो फटते हैं, यहाँ हम नज्मों की पंचर साट देते हैं

यही तो है हमारा इक तरीका इतने सालों का
गंगा-जमुनी के पीछे हम तो लाशें पाट देते हैं

तीसरी गजल:

मेरे हाथों में पेट्रोल बम, हथियारों को वो देती है
पुलिस ले जाती है तो अम्मी गुस्से में रो देती है

वो कहती है कि मशालों के तेल चेक कर लूँ मैं
न मारा एक भी काफिर तो अम्मी चरस बो देती है

चौथी गजल:

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
मैं काफिर मारूँ, न मारूँ, अम्मी ख़फ़ा नहीं होती 

मैं मोटा हूँ खिलाती है वो मुझको बीफ की बोटी
बनाते देखती है मुझको बम, दफा नहीं होती

चंद अशआर:

लगे थे पोस्टर मेरे जब लखनऊ के बाजारों में
मुद्दतों से अम्मी ने बदला नहीं वालपेपर अपना

ऐ अँधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया
जिहादी ने पेट्रोल बम फेंका, शहर में उजाला हो गया

जरूरत की सारी बातें वो बच्चों को सिखाती है
हाथ में ही न बम फूटे, वो अक्सर याद दिलाती है

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं शायर से फसादी हो जाऊँ
सुसाइड वेस्ट से इस तरह लिपट जाऊँ कि जिहादी हो जाऊँ

घेर लेने को जब भी बलाएँ आ गईं
आतंकियों को बचाने मेरी शायरी आ गईं

कभी भी बीच दंगे हार कर, खुल कर नहीं रोना 
जहाँ जलती मशालें हों, नमी अच्छी नहीं होती 

अंतिम गजल: ये गजल नहीं पेंटिंग है, जो मैंने तब पढ़ी जब मुझे लगा कि हमें बहुत सताया जा रहा है, हमें हमारा काम ठीक से करने नहीं दिया जा रहा, पुलिस हमें दंगा करने से रोक लेती है, हमारे पीएचडी के विद्यार्थियों को भी ठीक से आग लगाने वाली बातें नहीं कहने देतीं।

तुमने जो भी बम पकड़ा, दस गुणा फोड़ आए हैं
फसादी हैं, मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं

कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं
कि हम दिल्ली में कुछ जिंदा लाशें छोड़ आए हैं

उँगलियाँ इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी
कि कुछ काफिर घरों को बिन जलाए छोड़ आए हैं

देखना इसमें कैसे-कैसे कहानियाँ सब दिखेंगी आपको। ध्यान देना…

कभी फैसल की छत से देखते थे जलती राजधानी को
बड़ी मजबूरियों में ये नजारा छोड़ आए हैं

महीनों तक सफूरा ख्वाब में भी बड़बड़ाती थी
सुखाने के लिए छतों पर हम कुछ ईंटें छोड़ आए हैं

वो बैठक, हाँ वही बैठक, अरे हाँ-हाँ वही बैठक
वहीं तो प्लानिंग-ए-दंगा की बातें छोड़ आए हैं

जो एक पतली सड़क मौजपुर से चाँदबाग जाती है
वहीं ह्यूमन चेन के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं

वो दिल्ली के जले घरों का खामोशी से मुँह तकना
शाहीन-जामिया हम तुमको अकेला छोड़ आए हैं

गले मिलते हुए हिन्दू, गले मिलते हुए क्रिश्चन
जले दिलबर के राखों का नजारा छोड़ आए हैं

कल एक PFI वाले से कहना पड़ गया हमको
तुमने जो काम सौंपा था, अधूरा छोड़ आए हैं

वो हैरत से हमें तकता रहा कुछ देर फिर बोला
जलाना है हमें भारत, वो सारा छोड़ आए हैं

अभी हम सोच में गुम थे कि उससे क्या कहा जाए
वो ताहिर और फैसल था हमारा, छोड़ आए हैं

उधर का कोई मिल जाए तो उससे हम यही पूछें
कि बम हम छोड़ आए हैं, या धमाका छोड़ आए हैं

तू हमसे काफिर इतनी बेरुखी से बात करता है
अंकितों को तो छूरा मार नाले में मरता छोड़ आए हैं

ये दो कमरों का घर और ये गुजरती जिंदगी अपनी
वहाँ हम ताहिर-ओ-फैजल की बिल्डिंग छोड़ आए हैं

बहाया था लहू पूरी प्लानिंग के साथ हमने तो
वो जो माचिस खरीदा था वो जलता छोड़ आए हैं

बहुत कम दाम में अहमद ने एसिड जो खरीदा था
उसे दस दाम दे कर बिना फेंके वहीं पर छोड़ आए हैं

हँसी आती है अपनी ही अदाकारी पे खुद हमको
बने फिरते हैं पीएचडी, धमाका छोड़ आए हैं

वहाँ पर तो समय कम था, तमन्नाएँ जियादा थीं
पुलिस को देख कर आधे जले घर छोड़ आए हैं

किसी की आरजू के पाँव में जंजीर डाली थी
किसी काफिर की गर्दन में वो फंदा छोड़ आए हैं

हमें डिफेंड करते-करते तो शरमा गई होंगी
वो लिबरल जिनकी आँखें हम टीवी पर छोड़ आए हैं

वो खत जिस पर तेरे होठों ने अपना नाम लिक्खा था
लव जिहादों के चद्दर पर बिछा कर छोड़ आए हैं

गए वक्तों की अल्बम देखने बैठे तो याद आया
ये मोहनपुरी बचा कैसे, वो नक्शा छोड़ आए हैं

यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आए
मगर शिव विहार की मूर्ति को साबुत छोड़ आए हैं

और अंत में एक बहुत बार पढ़ा गया शेर, कि

एक आँसू भी सियासत के लिए खतरा है
तुमने देखा ही नहीं पिछवाड़े का चबूतरा होना

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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