बेलारूस के एक ब्लॉगर/पत्रकार और उसकी गर्लफ्रेंड को वहाँ की सरकार ने अरेस्ट करवा लिया। खबर के अनुसार बेलारूस की सरकार ने फाइटर जेट भेजकर पहले उसकी फ्लाइट को ज़बर्दस्ती लैंड करवाया और फिर उसे अरेस्ट करवा लिया। पत्रकार का नाम रोमन प्रोतसेविच है। शेक्सपीयर ने कहा था नाम में कुछ नहीं रखा। ऐसे में कह सकते हैं कि उसका नाम रोमन प्रोतसेविच न होकर राम दुलार होता तो भी बेलारूस की सरकार उसे अरेस्ट करवा के ही मानती।
पता नहीं क्यों यह खबर पढ़ते समय मेरी स्मृति पटल पर यादों की बरखा हुई और मुझे चैतन्य कुंटे की याद आ गई।
बेलारूस यूरोप का देश है ऐसे में वहाँ भारत की तरह फासिज़्म नहीं है। पर यह खबर पढ़ते हुए मेरे मन में आया कि अगर किसी भारतीय पत्रकार को इस तरह से किसी एयरपोर्ट से कहीं ले जाया जाता तो क्या होता? सोचिये कि रवीश कुमार एयरपोर्ट पर उतरते और उन्हें सिक्युरिटी वालों द्वारा कहीं ले जाया जाता तो क्या होता?
शायद कुछ ऐसा होता:
प्राइम टाइम में टीवी न्यूज़ की स्क्रीन काली कर दी गई है और पीछे से आवाज़ आ रही है; आज दर का माहौल.. माफ कीजियेगा डर का माहौल है। डर के इस माहौल में सच्चाई के हवाई जहाज की लैंडिंग करवा दी गई है और उसमें बैठे सत्यवान को उतार दिया गया है। यह किसी मोदी या तोदी के बारे में नहीं है, यह हमारे और आपके बारे में है। यह भारत के बारे में है। यह उस काल के बारे में है जिसे इतिहास में अँधेरा काल के नाम से जाना जाएगा… विडंबना यह है कि इतिहास लिखने वाले भी वही होंगे जिनके पास कागज़ की मिलें हैं… पर कहानी लिखी जाएगी क्योंकि इस कहानी को कहने वाली आवाज किसी अंबानी या अदानी की नहीं बल्कि उस किसान की है जिसका बैल सफ़ेद न होकर काला है और जो इक्कीसवीं सदी में भी पूस की रात के हलकू की तरह है, वही हलकू जिसके जबरा को अब गायों को देखकर…. माफ़ कीजियेगा नीलगायों को देखकर भौंकने की मनाही है…. आज के हलकू की पहचान कहीं खो गई है…. क्योंकि जो समाज बन रहा है वह केवल किसान को ही नहीं बल्कि उसके काले बैल को भी स्वीकार नहीं करता मगर उसके पगहे को हाथों से छोड़ना भी नहीं चाहता… इसी छोड़ने और पकड़ने के बीच देखना यह होगा कि क्या मेरे बैल की अर्ज़ी…. माफ कीजियेगा बेल की मेरी अर्जी किसान के उसी काले बैल की तरह अस्वीकार कर दी जाएगी या फिर इस पूंजीवादी व्यवस्था में कोई समाजवादी न्यायाधीश मेरी अर्जी स्वीकार कर लेगा!
ट्विटर और फेसबुक पर हड़कंप मचा है। लोग समर्थन और विरोध में वैसे ही उतर आए हैं जैसे रवीश कुमार के हवाई जहाज को उतारा गया था। शेखर गुप्ता पचास शब्दों का एक संपादकीय टाँक चुके हैं। राजदीप सरदेसाई सरकार की तीखी आलोचना करते हुए बता चुके हैं कि; दिस इज फासिज़्म ऐट इट्स नादिर।
बरखा दत्त ने चार ट्वीट का एक थ्रेड लिखकर बताया, “रवीश कुमार हिंदी पत्रकारिता के बरखा दत्त थे… भारत की आवाज़ थे। किसी ने उनसे सवाल पूछा तो जवाब में उन्होंने उसे ब्लॉक कर दिया।”
वायर में लिखे अपने संपादकीय में वरदराजन ने रवीश को भारत का लैरी किंग बताते हुए लिखा कि; वे ब्राह्मण होते हुए भी ब्राह्मण नहीं थे।
दूसरे दिन शाम को एक पदयात्रा का आयोजन हुआ। सब साथ इंडिया गेट पहुँचे। तवलीन सिंह ने एक चैनल को बाइट देते हुए कहा, “रवीश इज कॉन्शियस ऑफ जर्नलिज्म। ये सरकार उसी दिन से फासिस्ट हो गई थी जब इसने आतिश का ओसीआई कार्ड कैंसिल किया था। मुझे उसी दिन लगा था कि ये किसी न किसी दिन पत्रकारिता भी कैंसिल कर देगी।”
राम गुहा ने बयान देने के लिए एक कैमरामैन को रोककर कहा- मेरा बयान ले लो।
उसने पूछा- योर नेम सार? यह सुनकर गुहा को डेजा वू टाइप कुछ फील हुआ। वे झेंप गए।
इंडिया गेट पहुँचते ही बरखा दत्त ने साथ लाई प्लास्टिक की बाल्टी औंधे मुँह रखी और उसपर लैपटॉप रख कर पालथी मार के औघड़ी अंदाज़ में बैठ गई। अचानक सब देखते हैं कि उनके पीछे चिता सजने लगी।
पुण्य प्रसून वाजपेयी को समझ नहीं आ रहा था कि बरखा क्या करना चाहती थीं। उन्होंने दोनों हाथ मलते हुए कहा- रिपोर्टिंग में तो खाली बाल्टी हाशिये पर चली जाती है। मैंने यह बात कलावती के घर रिपोर्टिंग करते हुए महसूस की थी।
बरखा बोली- अरे वो होगा पर जब से मैंने गुजरात से श्मशान में बैठ बाल्टी पर लैपटॉप रख कर रिपोर्टिंग की है, मुझे लग रहा है कि वीडियो अच्छा आता है। अब मुझे जलती लाशों के सामने अघोरी मुद्रा में बैठकर रिपोर्ट लिखने में मज़ा आने लगा है।
वाजपेयी बोले- पर पीछे सज रही इस लाश का रिपोर्टिंग से क्या सरोकार है?
बरखा ने बताया- अरे यह सिंबॉलिक है। यह फ्रीडम ऑफ स्पीच की लाश है।
अचानक धारदार कलम जेब में खोंसे आशुतोष आ गए। बोले; यह क्या हो गया है हमारे युग को? एक बार की बात है। मैंने पुष्पेश पंत से कहा कि पत्रकारिता अब कठिन होती जा रही है। ऐसे में प्रश्न यह है कि आज गाँधी जी होते तो क्या कहते?
राजदीप सरदेसाई ने जवाब दिया- वे कहते खबर हर कीमत पर।
अचानक सात-आठ लोग राजदीप को घेर कर खड़े हो गए। राजदीप उन्हें बताने लगे; मैं कल शाम स्टूडियो में कॉफ़ी पी रहा था तभी ये खबर आई कि एयरक्राफ्ट को उतार लिया गया। जानते ही हैं कि वी जर्नलिस्ट्स आर लाइक वल्चर्स। मैंने राहुल से कहा; हमारी कल की शाम बन गई।
आशुतोष ने कहा- ये खबर हर कीमत पर तो बहुत सही कहा राजदीप आपने। इस स्लोगन से मुझे हमारे पुराने दिनों की बात याद दिला दी। याद आ रहा है कि कैसे हम स्टिंग ऑपरेशन करके खबर बनाते थे। यह कहते हुए आशुतोष मुंगेरी लाल की तरह यादों में खो गए। किसी ने झिंझोड़ा और पूछा कहाँ खो गए भाई? आशुतोष बोले- मस्त माहौल था। यादों की आवारागर्दी के लिए आदर्श इसलिए मैं यादों में…..
उर्मिलेश ने कहा- ये सब तो ठीक है लेकिन रवीश के बेल की सुनवाई के बारे में कुछ लिखा जाएगा या नहीं? मैं कब से अपनी धारदार कलम लिए सोच रहा हूँ कि क्या लिखा जाए?
पुण्य प्रसून बोले- कहीं न कहीं आवश्यकता है लिखने की। जो भी कुछ लिखेगा, भारतीय पत्रकारिता रहेगी उसकी आभारी।
पास ही खड़े किसी ट्रॉल ने कहा- बहुत क्रांतिकारी बहुत क्रांतिकारी।
सब आपस में बात कर रहे थे। किसी ने पूछा- अरे कुछ नाश्ते वाश्ते का भी इंतजाम है?
उमा शंकर सिंह बोले- हाँ हाँ है न। चाय समोसे का अच्छा इंतजाम है। समोसा भी ताजा है। चलिए स्टॉल की तरफ चला जाए।
चलते हुए उमा शंकर बोले- “देखा जाए तो रवीश जी की गिरफ्तारी पूरी तरह से नोटबंदी से देश को हुए नुकसान से ध्यान हटाने के लिए की गई है। चार वर्ष से अधिक हो गए, पता नहीं देश को इस नोटबंदी से कब तक नुकसान उठाना पड़ेगा।”
राजदीप बोले- कब तक क्या? हम जब तक चाहेंगे, देश को नोटबंदी से नुकसान उठाना पड़ेगा।
अभिशार शर्मा बोले, “देखिए रवीश जी देश में सेकुलरिज्म और पत्रकारिता के लिए ट्रेन के इंजन की उस हेडलाइट की तरह हैं जो पूरी ट्रेन को रास्ता दिखाती है। माने समझिए कि हम लोग उस इंजन के साथ लगे डिब्बे हैं।”
सब अपनी-अपनी बात और तर्क रखते जा रहे थे तब तक एडिटर्स ‘गिल्ट’ के पूर्व प्रधान शेखर गुप्ता को किसी का कॉल आया। उन्होंने बात की और उदास हो गए। किसी ने पूछा क्या हुआ?
शेखर बोले- अरे वो रवीश का कॉल था। उन्हें कोर्ट से छुट्टी मिल गई है।
आशुतोष ने कहा- आपका मतलब जमानत मिल गई?
शेखर बोले- अरे कोई बड़ी समस्या नहीं थी।… वो टर्की के उनके वीजा में किसी ने उनके नाम के साथ उनका सरनेम भी लिख दिया था। ये एजेंसी की गलती थी इसलिए उन्हें एयरपोर्ट से पूछताछ के लिए ले जाया गया था।
सब यह सोचते हुए नाराज थे कि फासिस्ट सरकार किसी को अरेस्ट क्यों नहीं करती?