जैसे बैंड वाले और पेट्रोमैक्स वाले शादी के मौसम की ओर, पंडे श्राद्ध के मौसम की ओर आशान्वित हो कर देखते हैं, पत्रकार आगामी चुनावों की ओर देख रहे थे। कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेतृत्व ने प्रियंका जी के दफ्तर और प्रियंका जी की नाक का उत्कृष्ट राजनैतिक विश्लेषण देखते हुए पत्रकारों को मुस्तैदी से पार्टी के चुनाव कार्य में जुट जाने पर साधुवाद भेजा था। हाय रे निठुर नियति, जब रोजगार का अवसर आया पुलवामा में हमला हो गया।
हमला अब भी हुआ, पहले भी हुआ था। आतंकी हमलों की रिपोर्टिंग कैसे हो, उस पर जनमानस कितना उद्वेलित हो, सब पत्रकारिता तय करती थी। पत्रकारिता जान आक्रोश की मर्यादाएँ तय करती थी। मन में फिर भी जोश था, कि जब तक लम्बी दूरी की सवारी न मिले, छोटे-छोटे दो-तीन ट्रिप मार दिए जाएँ। मने चुनाव के पहले पुलवामा में बयालीस हुतात्माओं पर दो-तीन लेख आत्मघाती आतंकवादी को नायक बना के लिख मारे जाएँ और चुनाव के बाद एक-आध विदेशी विश्वविद्यालय में भाषण की और वॉशिंगटन पोस्ट सरीख़े अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्रों में डॉलरी सम्पादकियों के लिए अवसर सुनिश्चित कर लिए जाएँ। कुछ लेख लिखे भी गए, एक नरेटिव लगभग बना भी। आतंकी की माँ और बाप को ढूँढ के बाइट की व्यवस्था की गयी और एक भोले-भले नौजवान की छवि तैयार की गयी।
दिल्ली के जवाहर यूनिवर्सिटी के उमर ख़ालिद को गोद लेने की इच्छा रखने वाले प्राध्यापक भावुक सी भूमिका लिख चुके थे। हेडलाइट वाली ट्रेनों और जौ की खेती के विशेषज्ञ पत्रकार इम्पैक्ट एनालिसिस के द्वारा तय कर चुके थे कि बेचारा भटका हुआ कश्मीरी नौजवान दरअसल शिकार था और बयालीस हुतात्माएँ दरअसल आत्मघाती दस्ता थे जिन्होंने इस निर्दोष बालक के प्राण ले लिए। बुरा हो जैश ए मुहम्मद का की उसने पुलवामा हमले की जिम्मेदारी ले ली।
भला बताइए, जिस समय में पुलिस सुरक्षा की, नेता समर्थकों की और तो और माता-पिता संतानों की जिम्मेवारी नहीं लेते, जैश को क्या सूझी। हम पत्रकारों पर छोड़ देते, हम एक गाय दुर्घटना स्थल पर खड़ी कर के सेना के संघीकरण का ऐसा ख़ाक़ा बुनते की सफाई देते-देते सरकार बदल जाती और जब तक नीरा जी केआशीर्वाद से बना नैरेटिव निपटता, हम मंत्री पद का वितरण कर रहे होते। उधर जैश ने हड़बड़ी में जिम्मेदारी ले कर सब गुड़-गोबर कर दिया, बची-खुची कसर आतंकी महोदय ने गोमूत्र वगैरह पान करने वालों के विरोध में वीडियो बना कर पूरी कर दी।
अब हिन्दुओं से नफ़रत को रिकॉर्ड पे डालने की क्या आवश्यकता थी। बहुत लोग हिन्दू विरोधी हैं, इसमें वीडियो बनाने की क्या आवश्यकता है, खासकर तब जब आप पूर्व कश्मीर मुख्यमंत्री की भांति राज्य के इस्लामिक चरित्र की रक्षा का सार्वजनिक प्रण लिए बिना सेकुलरों का क्रोध झेले कर सकते हैं। आदमी है बोलने के लिए, लिखने के लिए, पर इसे तो वीडियो बनाना था।
बड़ी कठिनाइयों से आतंकवादी के पिता को ढूँढा गया। कच्चे पत्रकार ने इंटरव्यू लिया और यह एंगल भी फुस्स हो गया। पिता बोलने लगे कि उन्हें आभास ही नहीं था कि बेटा आतंकवादी बन के पाकिस्तान का नाम रौशन करने चल पड़ा और माँ बोल पड़ी कि तीन वर्ष से उसे आतंकवाद से बाहर निकालने का प्रयास कर रही थी। पत्रकारों को सहसा भान हुआ कि डायलॉग की आवश्यकता सिर्फ भारत-पाकिस्तान को नहीं बल्कि आदिल डार के माँ-बाप को अधिक है। सामंजस्य के अभाव ने नया बुरहान वानी बनाने का स्वर्णिम अवसर नष्ट कर दिया।
यहाँ तक तो ठीक था पर उधर नैरेटिव अपने-आप बनने लगा, सो भी कश्मीरी अलगाववादियों के विरोध का। एक पत्रकार ही समझ सकता है की स्वाभिमानी पत्रकारों के लिए कैसी परीक्षा की घड़ी आई थी। जब सर्वहारा स्वयँ अपने विचारों की दशा और दशा निर्धारित करने लगे तो एक जिम्मेदार पत्रकार के अस्तित्व पर प्रश्न उठ जाता है। आक्रोश चरम पर था और तिरंगे गलियों में निकल आए। फे़क न्यूज़ का चहुँ ओर नाना प्रकार से विरोध करने वाले पत्रकारों को अंतिम उपाय झूठे संवाद में ही दिखा। अलगाववाद का सारा नैरेटिव सहसा फिसलता दिख रहा था और उसी के साथ तमाम पाँच-सितारा सेमिनारों की सम्भावनाएँ इस स्वजनित आक्रोश में डूबती दिखी।
ऐसे ही हताशा के वातावरण में प्रताड़ित कश्मीरियों का नैरेटिव उत्पन्न हुआ, जिसने पुनः डूबते हुए सेमिनारों को उबारने का आश्वासन दुःखीजनों को प्रदान किया। महान पत्रकारों ने पहले भारतीय नागरिकों द्वारा कश्मीरी नागरिकों की प्रताड़ना की कथा निर्मित की, फिर लोगों से आह्वाहन किया कि हे कश्मीरियों, हम ने कह तो दिया कि तुम असहिष्णु भारतीय नागरिकों के मध्य संकट में हो, अब यह तुम्हारा महती कर्त्तव्य है कि हमारे ट्विटर के डीएम पर, फ़ोन पर इस समाचार से मेल खाते आशय को रिकॉल करो। जुनैद के झगडे को हमने हिंदुत्ववादी हिंसा बनाया, रोहित वेमुला को दलित बना के हमने दलित-विरोधी शासन का नैरेटिव बनाया। इन कपोल-कल्पनाओं के गिर्द हमने सेमिनार और साहित्य-सम्मलेन खड़े किए।
सो हे कश्मीरी युवा, पत्रकारिता के पुनीत व्यवसाय पर उतरे इस संकट के क्षणों में स्वयं को दलित एवं मानवाधिकार संगठनों के स्तर पर आ कर पत्रकार बंधुओं के हाथ मज़बूत करें। अगर आपने तीन महीनों से मकान का किराया नहीं दिया हो, आपकी सब्ज़ी में रेस्टॉरेंट वाले ने नमक अधिक डाल दिया हो, आपके मास्साब ने कैलकुलस के कठिन प्रश्न होमवर्क में दे दिए हों, तो हे भटके हुए कश्मीरी युवा, क्योंकि आप मुख्यभूमि में हैं आप पथराव नहीं कर सकते; आप अपने निकटवर्तीय पत्रकार से संपर्क कर के उसके निर्बल नैरेटिव को बल दें। यह सब हिंदुत्व आतंकवाद है, जो आप समझ नहीं पा रहे हैं।
बयालीस आत्मघाती सैनिकों ने भोले-भाले कश्मीरी युवक के प्राण ले लिए, आपका अधिकार है उस धर्मनिरपेक्ष युवक का साथ देने का। कौन होते हैं ये भारतीय नागरिक, जो कश्मीरी नागरिकों के इस मूलभूत अधिकार का विरोध करते हैं? आपको अलग राष्ट्र का नागरिक घोषित करने के साथ ही महानायिका पत्रकार, बरखा दत्त आपके भारतीय नागरिकों की छाती पर मूंग दलने के अधिकार की रक्षा के लिए आपके साथ कन्धे से कन्धा जोड़ कर लड़ने को तैयार है।
कम्बख्तों, फ़ोन तो करो। हमने एक खूंटा बाँध दिया है, जिससे हम भारतीय आक्रोश को बुझा सकते हैं। इससे ख़बर रुपी भैंस बाँधना अब आपकी जिम्मेदारी है। आप पर ही निर्भर है कि आपका कश्मीरी विवाद और हमारा सेमिनार सर्किट चिरंजीवी रहे। जेएनयू वालों का तो कुछ नहीं जाता, उनसे तो चंदे का हिसाब माँगो तो सोशल मीडिया से निकल लेते हैं, हमें तो झूठी मर्यादा का फ़र्ज़ी भ्रम बनाए रखना है। अब तो नीरा माता का वरद-हस्त भी माथे पे नहीं रहा।