पुस्तक: मैं मुन्ना हूँ/Main Munna Hun
लेखक: श्री मनीष श्रीवास्तव
लेखक परिचय
‘मैं मुन्ना हूँ’ लेखक का दूसरा उपन्यास है, प्रथम उपन्यास का नाम ‘रूही – एक पहेली’ है। इनकी रचनाएँ ऑपइंडिया, मंडली, स्वराज्य, इण्डिक टुडे जैसे मंचों पर प्रकाशित होती रही हैं।ये मुख्य रूप से भावनात्मक कहानियाँ, यात्रा वृत्तांत और मार्मिक संस्मरण लिखते हैं। मनीष जी की रचनाएँ मानवीय संवेदनाओं को स्पर्श करती हुई पाठक के मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं।
पुस्तक परिचय
‘मैं मुन्ना हूँ’ बाल यौन शोषण जैसे गंभीर विषय पर लिखा गया उपन्यास है। लेखक विषय की गंभीरता के साथ न्याय करते हुए बीच-बीच में हल्के-फुल्के किस्सों के साथ ही प्रेम का एक शीतल झरना भी प्रस्फुटित करते हैं। वृंदावन वन की कुंज गलियों से होते हुए पशुपति नाथ जी की अविस्मरणीय यात्रा के साथ ही आगरा शहर का ताना-बाना आकर्षित करता है।
- पृष्ठ संख्या: 356
- मूल्य: 370
- प्रकाशक: नोशन प्रेस
- लिंक: https://notionpress.com/read/main-munna-hun
पुस्तक समीक्षा
उपन्यास के नायक मुन्ना की कहानी आरंभ होती है उसके श्रापित बचपन से जहाँ वह शारीरिक, मानसिक झंझावतों से जूझता किशोरवय के अल्हड़पन को पार कर प्रेम की अनकही गुत्थियों को सुलझाता जीवन यात्रा में आगे बढ़ता रहा।
नीरा दीदी, रमेश चाचा, वृंदा चाची, बिंदी, जया, ज़ुल्फी, बक्शी अंकल के हाथों की कठपुतली सा मुन्ना, बचपन को किसी अंधरे से कोने में दबा के आया है। किन्नू का सहारा मिलते ही वो मुरझाया सा फूल कुछ खिल सा गया। भैया के संग ने उसे जीवन की नई राहों पर पहुँचा दिया।
दोस्तों का चहेता, यारों का यार है हमारा मुन्ना। जुगाड़ु इतना कि पूछिए मत। आप चाहेंगे कि काश ये मेरी क्लास में होता तो हम भी मस्ती कर लेते। अम्मा की आंँखों का तारा, पिताजी का प्यारा भी बना परन्तु बहुत वक्त लगा दिया। ठाकुर और शेखू ने यारियांँ निभाने में कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी है। दोस्त हो तो ऐसे!
मोरपंखी, मानसी, नैना और इन सबका एक मुन्ना….. प्रेम की कई अवस्थाएंँ परत दर परत खुलती जाती हैं और पाठक अचंभित सा, मुग्ध हो बस पढ़ता चला जाता है। केशव का आना एक बार फिर जीवन में बदलाव सा ला देता है और उसी कड़ी में अमोहा मांँ मुन्ना का हाथ थामे उसे वहांँ ले जाती हैं जहांँ वो अपने भीतर का सारा डर, सारी कड़वाहट, सारा संताप निकाल फेंकने को बेकल हो उठता है।
मुन्ना कहानी है, आपकी, मेरी और हम सभी में छुपे उस बच्चे की जो कभी ना कभी, किसी ना किसी रूप में अनजाने में ही सही, एक अंधेरी कोठरी में दाखिल हो गया और कस के आँखें मूँद उजाले की कल्पना में लीन हो गया।
उस पीड़ित बच्चे ने इधर उधर हाथ-पांँव मार खुद को उस डर से निकालने की अनवरत कोशिश जारी रखी। बालपन पर पड़े गहरे निशान भविष्य में किसी ना किसी रूप में सामने आकर व्यथित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। कैसे मुन्ना एक विजेता बन सबके सामने आया? कैसे उसने अपनी यात्रा के हर पड़ाव पर कुछ नवेला सा किया?
जानने के लिए पढ़िए और ज़रूर पढ़िए – मैं मुन्ना हूँ
नोट: यह पुस्तक समीक्षा गरिमा द्वारा लिखी गई है