श्रीलाल शुक्ल जी की महान कृति राग दरबारी में वैद्य जी के पुत्र रुप्पन बाबू के पात्र का परिचय एक कालजयी वाक्य से किया गया है। रुप्पन बाबू का परिचय करवाते हुए शुक्ल जी लिखते हैं, “वे पैदायशी नेता थे क्योंकि उनके बाप भी नेता थे।”
जिस समय 1968 में शुक्ल जी ने राग दरबारी लिखा था, परिवारवाद नया ही था और स्वतंत्र भारत में कॉन्ग्रेस के प्रथम परिवार की दूसरी ही पीढ़ी उतरी थी। हालाँकि कॉन्ग्रेस के भीतर प्रथम परिवार के लिए नेतृत्व की तीसरी पीढ़ी थी, परन्तु अंग्रेजी राज से ताजा जमींदारी बना देश तब परिवारवाद के दुर्गुणों से पूर्णतया अवगत नहीं हुआ था। यह परिवारवाद राजनीति के अलावा और भी क्षेत्रों को प्रभावित कर रहा था, यह खुलने में समय लगा जब सम्मान में झुके आम नागरिकों के सर और कृतज्ञता के तले दबे कंधे सीधे होने लगे। तब दिखने लगा कि राजनीति ही नहीं, कला, साहित्य, सिनेमा में भी कई लोग शक्ति का गल्ला थामे इसलिए बैठे हैं, क्योंकि उनके बाप भी सिनेकार या साहित्यकार थे।
साहित्य और भाषा के क्षेत्र में ऐसे सुधिजनों को साहित्य का ठेकेदार या भाषा का दारोगा कहा जा सकता है। भारत की स्थापना के बाद से ही एक शासक दीर्घा बना दी गई और चुने हुए गणमान्य इसमें स्वयं को स्थापित करके बैठ गए। जब-जब ये सत्ता और महत्ता से दूर हुए, इन्होंने प्रयास किया कि भारत विखंडित हो जाए और उससे निकले एक छोटे से भाग में इनकी सत्ता निर्बाध चले। ऐसे लोगों ने भाषा को भाला बनाया और जब-जब इनकी स्थिति पर प्रश्न उठा, ये उससे भारतीय आत्मा को कोंचते रहे। भारतीय भाषा को सूत्र रूप में बाँधने का विरोध करने वाले ये लोग विदेशी भाषा को गौरव पूर्वक अपनाने को तैयार दिखे।
इस सब के बाद भी भाषा का जैसा नुक़सान तथाकथित हिंदी के ठेकेदारों ने किया है, वह संभवतः हिंदी विरोधियों ने नहीं किया। स्वतन्त्रता के बाद के भारत का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमे ठेकेदारों का विशेष स्थान होगा। जब भारत में कोई पुल बनाया जाता है, सबसे पहले अभियन्ता, श्रमिक और सीमेंट वाला नहीं ठेकेदार ढूँढा जाता है। यह ठेकेदार बड़े साहब का साला या साला तुल्य व्यक्ति होता है, जिसकी साहब से सेटिंग होती है जो पुल बनाने की ज़िम्मेदारी प्राप्त करने की प्राथमिक आवश्यकता होती है। ऐसे ही साहित्य के ठेकेदार होते हैं जो स्वयं तो कम लिखते हैं, परन्तु साहित्य के समाज के दरबान बन कर चुँगी वसूलते हैं।
जिस प्रकार पुल का नक्शा पास करवाने की चाभी ठेकेदार के पास होती है, नए लेखकों के लेखन को पास कराने की चाभी इनके पास होती है। आम तौर पर ये उसी कर्तव्यनिष्ठता के साथ अकादमियों पर राज करते हैं जैसे राजनेता आदमियों पर शासन करते हैं। दीक्षा और समीक्षा के मध्य इनका बुद्धिजीवी अस्तित्व होता है। जिसकी दीक्षा इन्हें भाती है, उसकी सकारात्मक समीक्षा ये करते हैं और एक सफल लेखक का निर्माण करके ठेकेदारों की अगली पीढ़ी का निर्माण करते हैं।
पुस्तक प्रदर्शनियों में ये मास्टरशेफ की भॉंति एक प्रकाशक पंडाल से दूसरे पंडाल की ओर शाल संभालते हुए, पुस्तकों का लोकार्पण करते हुए पाए जाते हैं। जुगाड़ वाले लेखक की अनपढ़ी पुस्तकों को ये क्रांतिकारी और ऐतिहासिक घोषित करते हैं और जुगाड़विहीन लेखक भीड़ में इनके पीछे धकियाए जाते हुए, बमुश्किल संतुलन रख कर सेल्फ़ी खिंचा कर धन्य हो जाता है, क्योंकि वह भी मानता है कि ये महान हैं, क्योंकि इनके बाप भी महान थे और हमारे बाप भी इनके बाप को महान जानते थे।
इसी महानता के दम पर इन्हें “चूहा, फ्रिज, चाय का पतीला” जैसे गद्य और पद्य के मध्य संतुलित संकलन के लिए मित्र सरकारें इन्हें पुरस्कार देती हैं, जिन्हें ये शत्रु राजनैतिक दल के सरकार में आने पर लौटा कर अपने कर्त्तव्य और राजनैतिक निष्ठा का निर्वहन करते हैं। ये अपने खेमे को ऐसे दौर में रचनात्मक निष्पेक्षता का वज़न देते हैं जिसे आम तौर पर इंटेलेक्चुअल हेफ्ट या बौद्धिक पौष्टिकता कहा जा सकता है। क्योंकि इनके पास खाली समय बहुतायत में होता है। ये अमरीका जाकर भारत में हिंदी के विस्तार पर विचार करते हैं।
इस खाली समय में ये हिंदी लिखने में प्रयासरत सामान्य जन के हिज्जे और मात्राएँ सुधारते हैं। सोशल मीडिया इसमें इनकी मदद करता है, जहाँ भोले-भाले लोग निर्दोषमना कुछ लिखते हैं और ये अपने चंद्र बिंदुओं से लैस हो कर उस गरीब पर आक्रमण कर देते हैं। हिंदी के प्रति इनकी प्रतिबद्धता इसी से परिलक्षित होती है कि गंभीर लेखन के नाम पर इन्हें सबसे मौलिक विचार वह लगता है, जिसमें अंग्रेजी लेख के माध्यम से हिंदी को मैथिली और अवधी जैसी भाषाओं का हत्यारा घोषित किया जाता है।
अपने आप में भाषा के उचित उपयोग को सार्वजनिक विस्तार देना बहुत अच्छा कार्य है। किन्तु यह महती कार्य ये केवल विपरीत राजनैतिक दृष्टिकोण के व्यक्तियों के लिए सुरक्षित रखते हैं। हिंदी में हर स्वर के लिए अक्षर और मात्राएँ हैं। यह भी सत्य है कि भाषा में मात्रा का वही महत्व है जो कॉन्ग्रेस में पारिवारिक उपनाम का और दादी जैसी नाक का। मात्रा के बदलने से मातृ भाषा मात्र भाषा रह जाती है। ऐसे में यदि भाषा में सुधार का ज्ञान विरोधी दृष्टिकोण वालों को धमकाने को न किया जाए तो निस्संदेह सम्मान-योग्य है। परन्तु अनुकूल राजनैतिक दृष्टिकोण के व्यक्तियों की त्रुटियों को ‘नर-मादा’ के प्रसाद की भाँति शिरोधार्य करके ये नरपुंगव विपरीत विचारों वालों को पाणिनि बनाने पर डँटे रहते हैं।
जैसे एक कुशल ठेकेदार सीमेंट में रेती मिलाने का विरोध करने वाले इंजीनियर को तत्काल पहचान कर उसे साइट से भगा देता है, हमारे ये भाषायी ठेकेदार नवागंतुक लेखकों को डरा धमका कर भगाने में व्यस्त रहते हैं। दुख का विषय है कि वर्तमान में हिंदी की हिंदी, ऐसी रुप्पन बाबू-नुमा संतानों ने कर रखी है। ये स्वयं को प्रधानमंत्री की अवमानना के लिए स्वतंत्र मानते हैं परन्तु अपने विरोध में उठे एक स्वर पर भी दिल्ली-सुलभ ‘जानता है मेरा बाप कौन है’ का फ़िकरा फ़ेंक के मारते हैं। यह संसार रुप्पनों का है और इसी रुप्पन रीति से चलेगा। प्रसिद्ध पिता के प्रताप से वंचित लेखक व्यंग्य ही लिखेगा और आशा करेगा कि बिना दीक्षा और समीक्षा के न सिर्फ वह छपे वरन पढ़ा भी जाए, इससे पहले कि कोई नाके पर चुँगी वसूलने को प्रस्तुत हो जाए।