Friday, October 11, 2024
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कैसे शुरू हुआ कुम्भ, क्या कहते हैं पुराण, क्यों है इसका इतना महत्व

ज्ञान, चेतना, वैराग्य और संसार का परस्पर मंथन कुम्भ मेले का वो महत्वपूर्ण आयाम है जो आदि-अनादि काल से ही हिन्दू परम्परा और संस्कृति की जागृत चेतना को, बिना किसी आमन्त्रण के स्वतः आकर्षित करता है।

कुम्भ मिलन का पर्व है। सनातन की उस समूची ज्ञान परम्परा का जो भारतीय संस्कृति के कण-कण में विराज़मान है। ज्ञान, चेतना, वैराग्य और संसार का परस्पर मंथन कुम्भ मेले का वो महत्वपूर्ण आयाम है जो आदि-अनादि काल से ही हिन्दू परम्परा और संस्कृति की जागृत चेतना को, बिना किसी आमन्त्रण के स्वतः आकर्षित करता है।

कुम्भ पर्व का उद्देश्य कभी भी इतिहास की निर्मिति नहीं था। फिर भी काल ने इसका इतिहास स्वयं ही रच दिया। कोई भी धार्मिक परम्पराएँ अगर आज भी जीवित है तो वो जनमानस के आस्था एवं विश्वास के बल पर है, न कि इतिहास के बल पर। ठीक ही कहा गया है कि कुम्भ जैसा भव्य एवं विशालतम आयोजन सदा से संस्कृतियों को एक सूत्र में पिरोए रखने के लिए ही आयोजित होता आया है।

आज की पीढ़ी के लिए इतना बड़ा आयोजन शायद फ़िज़ूल लग सकता है क्योंकि युवाओं की एक बड़ी संख्या अपने धर्म-संस्कृति एवं परम्पराओं के इतिहास से वंचित है। उसे इतिहास के नाम पर चंद खंडहरों और मुगलों के इतिहास तक ही सीमित कर दिया गया है। चलिए इस बात से भी अवगत होते हैं कि आज विश्व के सबसे बड़े आयोजन कुम्भ के पीछे पौराणिक सनातन मान्यता क्या है? क्या है इसका महत्त्व?

कथा यह है कि, ऋषि दुर्वासा के शाप के कारण जब देवताओं ने अपनी शक्ति खो दी, तब असुरों ने उन पर हमला कर दिया। देवता पराजित हो, अपनी शक्ति पुनः प्राप्त करने के लिए प्रजापिता ब्रह्मा और आदिदेव शिव की शरण में गए। शिव ने समाधान के लिए भगवान विष्णु के शरण में जाने की सलाह दी। तब भगवान विष्णु ने क्षीरसागर का मंथन कर अमृत निकालने का उपाय सुझाया। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवतागण, दैत्यों के साथ संधि करके क्षीरसागर के मंथन की योजना में जुट गए।

संस्कृति ग्राम, प्रयागराज, में स्थापित समुद्र मंथन की झाँकी  (तस्वीर: अनूप गुप्ता)

मथना था समुद्र (क्षीरसागर) तो मथनी और नेति (रस्सी) भी उसी हिसाब की चाहिए थी। ऐसे में मंदराचल (मंदर) पर्वत मथनी बना और नाग वासुकी नेति। समुद्र मंथन से कुल चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई। जिन्हें देव और असुरों ने परस्पर बाँट लिया। परन्तु जब भगवान धन्वन्तरि ने अमृत कलश देवताओं को दे दिया तो फिर भीषण युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई। समाधान के लिए तब भगवान विष्णु ने स्वयं मोहिनी रूप धारण कर सबको अमृत-पान कराने की बात कही और अमृत कलश का दायित्व इंद्र-पुत्र जयंत को सौपा। अमृत-कलश को प्राप्त कर जब जयंत दानवों से अमृत की रक्षा हेतु भाग रहा था।

तब दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ लिया। तत्पश्चात, अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध चलता रहा। पुराणों में इसे देवासुर संग्राम कहा गया। युद्ध के इसी क्रम में अमृत की बूँदे पृथ्वी पर चार स्थानों पर गिरीं- हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयागराज।

चूँकि, विष्णु की आज्ञा से सूर्य, चन्द्र, शनि एवं बृहस्पति भी अमृत कलश की रक्षा कर रहे थे और विभिन्न राशियों (सिंह, कुम्भ एवं मेष) में विचरण के कारण ये सभी कुम्भ पर्व के द्योतक बन गये। इस प्रकार ग्रहों एवं राशियों की सहभागिता के कारण कुम्भ पर्व ज्योतिष का पर्व भी बन गया।

एक अन्य कथा के अनुसार, चूँकि जयंत को अमृत कलश को स्वर्ग ले जाने में 12 दिन का समय लगा था और माना जाता है कि देवताओं का एक दिन पृथ्वी के एक वर्ष के बराबर होता है। यही कारण है कि कालान्तर में ऊपर वर्णित स्थानों पर ही ग्रह-राशियों के विशेष संयोग पर 12 वर्षों में कुम्भ का आयोजन होता है।

तीसरी कथा के अनुसार, अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुम्भ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुम्भ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुम्भ देवलोक में होते हैं। जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है। इसलिए मनुष्य योनि के लिए ये चार कुम्भ बेहद महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

जिस समय में चंद्र आदि ग्रहों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं। उस समय कुम्भ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुम्भ के पर्व का आयोजन होता है।

ज्योतिष गणना के क्रम में कुम्भ का आयोजन चार प्रकार से माना गया है

1- बृहस्पति के कुम्भ राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर हरिद्वार में गंगा-तट पर

2- बृहस्पति के मेष राशि चक्र में प्रविष्ट होने तथा सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में आने पर अमावस्या के दिन प्रयागराज में त्रिवेणी संगम पर

3- बृहस्पति एवं सूर्य के सिंह राशि में प्रविष्ट होने पर नासिक में गोदावरी तट पर

4- बृहस्पति के सिंह राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर उज्जैन में क्षिप्रा तट पर

धार्मिकता एवं ग्रह-दशा के साथ-साथ कुम्भ पर्व को पुनः तत्वमीमांसा की कसौटी पर भी कसा जा सकता है। जिससे कुम्भ की उपयोगिता स्वयं सिद्ध होती है। कुम्भ पर्व का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि यह पर्व प्रकृति एवं जीव तत्व में सामंजस्य एवं सन्तुलन स्थापित कर उनमें जीवनदायी शक्तियों को समाविष्ट करने का उपक्रम भी है। प्रकृति ही जीवन व मृत्यु का आधार है। ऐसे में प्रकृति से सामंजस्य अति-आवश्यक हो जाता है।

कहा भी गया है “यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे” अर्थात जो शरीर में है, वही ब्रह्माण्ड में है, इस लिए ब्रह्माण्ड की शक्तियों के साथ पिण्ड (शरीर) कैसे सामंजस्य स्थापित करे। उसे जीवनदायी शक्तियाँ कैसे मिले इसी रहस्य का पर्व है कुम्भ। विभिन्न मतों-अभिमतों-मतान्तरों के व्यावहारिक मंथन का पर्व है कुम्भ, और इस मंथन से निकलने वाला ज्ञान-अमृत ही कुम्भ-पर्व का महाप्रसाद है।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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