Sunday, November 17, 2024
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आध्यात्मिक जागरण का सनातन स्वर है महाशिवरात्रि: शून्यता के उस शिखर को छू लेने की परमरात्रि जहाँ से उद्घाटित होता है शिव तत्व

....यह अपने-आप में एक स्रोत है। यह सर्वत्र उपस्थित है। तो जब हम शिव कहते हैं, तब हमारा संकेत अस्तित्व की उस असीम रिक्तता की ओर होता है। इसी रिक्तता की गोद में सारा सृजन घटता है। रिक्तता की इसी गोद को हम शिव कहते हैं।

नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय, भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय, तस्मै नकाराय नमः शिवाय।

वे जिनके पास सर्पों के राजा उनकी माला के रूप में है, और जिनकी तीन आँखें हैं, जिनके शरीर पर भस्म रमी हुई है और जो ईश्वरों में सर्वश्रेष्ठ हैं। वे जो शाश्वत हैं, जो पूर्ण पवित्र हैं और जो दिगंबर हैं अर्थात चारों दिशाओं को अपने वस्त्रों के रूप में धारण करने वाले हैं, उस शिव को नमस्कार, जिन्हें शब्दांश ‘न’ द्वारा दर्शाया गया है। स्वयं आदियोगी शिव के मुख से उत्पन्न ‘ओम नमः शिवाय’ का यह पंचाक्षर मन्त्र, उनकी विशेष कृपा का पात्र होने का मन्त्र है। और यदि यह अवसर महाशिवरात्रि का हो अर्थात देवाधिदेव महादेव की विशेष कृपा की रात हो तो यह मन्त्र आध्यात्मिक जागरण का माध्यम बन जाता है।

तिथिवार बात की जाए तो महाशिवरात्रि फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है। इस वर्ष यह शुभ अवसर आज 1 मार्च, 2022 को है। ऐसे में आज हम बात करेंगे महाशिवरात्रि की, उसके महात्म्य की और आज की रात्रि को कैसे खुद के लिए साधना और सिद्धि की रात बनाते हुए कोई भी साधक महादेव की अनुकम्पा का विशेष पात्र हो सकता है।

शिवरात्रि और महाशिवरात्रि

शास्त्रों के अनुसार, हर चंद्र मास का चौदहवाँ दिन अथवा अमावस्या से पूर्व का दिन शिवरात्रि होती है। एक वर्ष में आने वाली सभी शिवरात्रियों में से, महाशिवरात्रि, को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है, जो फाल्गुन मास की चतुर्दशी को पड़ता है। इस रात, पृथ्वी का उत्तरी गोलार्द्ध इस प्रकार की स्थिति में होता है कि मनुष्य के भीतर ऊर्जा प्राकृतिक रूप से ऊपर की ओर उठकर एक दिव्य आध्यात्मिक अनुभव का माध्यम बनती है। आगे इस पर और भी विस्तार से बात होगी। उससे पहले भारतीय सनातन परंपरा के उत्सवधर्मिता की बात कर लेते हैं।

आदियोगी शिव

उत्सवधर्मिता सनातन धर्म की विशेष पहचान

जब भी भारतीय सनातन संस्कृति और धर्म की बात होगी तो वह बात उत्सवों के बिना अधूरी होगी। कहा जाता है कि किसी समय, भारतीय संस्कृति में, एक वर्ष में 365 त्यौहार हुआ करते थे। अर्थात वे साल के प्रतिदिन, प्रतिपल को पूरी सजगता से जीने के उल्लास में ही उत्सव खोज लेते थे। उनके लिए जीवन अपने आप में एक उत्सव था। आज भी है बस कुछ दूसरी गैरजरुरी बातों में उलझकर हम उस बोध को खोते जा रहे हैं।

आप भली-भाँति इससे परिचित होंगे कि हिमालय से हिन्द महासागर के बीच अवस्थित इस देश की संस्कृति में हर कार्य के गीत हुआ करते थे। प्रकृति के कण-कण में व्याप्त संगीत से जीवों का गहन परिचय था। ऐसे में जो भी उत्सव थे वो भी कर्म बोध से भी जुड़े थे, 365 त्योहार के पीछे कोई न कोई कारण जीवन के विविध उद्देश्यों से जुड़े ढूँढ लिए गए थे। इन्हें विविध ऐतिहासिक घटनाओं, विजय तथा जीवन की कुछ अवस्थाओं या जीवनोपयोगी कार्यों जैसे फसल की बुआई, रोपाई और कटाई आदि कार्यों के प्रतिफल के रूप में दर्शाया गया था।

सनातन धर्म को उसकी पूरी व्यापकता में देखें तो जीवन की हर अवस्था और हर परिस्थिति के लिए हमारे पास एक त्यौहार था। यहाँ तक कि मृत्यु को भी अंतिम उत्सव के रूप में मनाते हुए उसके प्रस्थान को भी उत्सवधर्मिता का स्वरुप प्रदान किया गया था। कालांतर में लोग धर्म से भटककर जीवन की दूसरी आपाधापी में उलझते गए और ख़ुद से ही दूर होते गए। जीवन अपनी सहज-स्फूर्त गति खोकर, हमारे अपने ही जाल में उलझकर घुटने लगी। ऐसे में महाशिवरात्रि वापस अपने उसी बोध को जागृत करने का अवसर मनुष्य को उसके जीवन काल में हर वर्ष देती है। पर कितने उस जागरण को उपलब्ध हो पाते हैं यह आज भी एक गंभीर प्रश्न है।

महाशिवरात्रि का महात्म्य

महाशिवरात्रि जीव को आत्मबोध तक पहुँचाने की रात्रि है। योग परम्परा के अनुसार बात की जाए तो ख़ुद को अस्तित्व से एकाकार करने की रात। योगी और ऋषियों के अनुसार, यह एक ऐसा नैसर्गिक अवसर है, जब प्रकृति स्वयं मनुष्य को उसके आध्यात्मिक शिखर तक ले जाने में मदद करती है।

इस समय का उपयोग करने के लिए, सनातन परंपरा में, पहले पूरी रात उत्सव मनाते थे और आज भी यह परम्परा कहीं-कहीं अपने मूल रूप में विद्यमान है। ख़ासतौर से दक्षिण भारत और काशी में, महाशिवरात्रि का उत्सव पूरी रात चलती है। पूरी रात मनाए जाने वाले इस उत्सव में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि ऊर्जाओं के प्राकृतिक प्रवाह को उमड़ने और ऊपर उठने का पूरा अवसर मिले। आप अगर ध्यान और योग की परंपरा से नहीं भी जुड़े हैं तो भी बस अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा रखते हुए, रात्रि पर्यन्त खुद को जगाए रखने से भी आपके जीवन अनुभव में अध्यात्म का प्रवेश हो सकता है।

महाशिवरात्रि आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले साधकों के लिए बहुत महत्व तो रखती ही है। यह उनके लिए भी अति महत्वपूर्ण है जो पारिवारिक हैं और संसार की महत्वाकांक्षाओं में मग्न हैं। पारिवारिक परिस्थितियों में मग्न लोग महाशिवरात्रि को शिव के विवाह के उत्सव की तरह मनाते हैं। सांसारिक महत्वाकांक्षाओं में मग्न लोग महाशिवरात्रि को, शिव के द्वारा अपने शत्रुओं पर विजय पाने के दिवस के रूप में मनाते हैं।

शिव विवाह (साभार-मेकिंग इंडिया)

परंतु, साधकों के लिए, सद्गुरु का कहना है कि महाशिवरात्रि वह रात्रि है, जब महादेव शिव कैलाश पर्वत के साथ एकात्म हो गए थे। वे एक पर्वत की भाँति स्थिर व निश्चल हो गए थे। यहाँ यह जानना ज़रूरी है, यौगिक परंपरा में, शिव को किसी देवता की तरह नहीं पूजा जाता। उन्हें आदि गुरु माना जाता है, पहले गुरु, जिनसे ज्ञान उपजा। ध्यान की अनेक सहस्राब्दियों के पश्चात्, एक दिन वे पूर्ण रूप से स्थिर हो गए। वह दिन महाशिवरात्रि का था। उनके भीतर की सारी गतिविधियाँ शांत हुईं और वे पूरी तरह से स्थिर हो गए, इसलिए साधक महाशिवरात्रि को स्थिरता की रात्रि के रूप में मनाते हैं।

वैज्ञानिक प्रमाणों के साए में ऊर्जाओं का खेल

आधुनिक विज्ञान भी अनेक चरणों से गुजरते हुए, आज उस बिंदु पर पहुँच चुका है, जहाँ वैज्ञानिकों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि हम जिसे जीवन के रूप में जानते हैं, पदार्थ और अस्तित्व के रूप में जानते हैं, जिसे हम ब्रह्माण्ड और तारामंडल के रूप में जानते हैं; वह सब केवल एक ऊर्जा है, जो स्वयं को लाखों-करोड़ों रूपों में अभिव्यक्त करती है।

कहते हैं कि यौगिक विज्ञान में, सनातन परम्परा में, यह वैज्ञानिक तथ्य प्रत्येक योगी के लिए एक अनुभव से उपजा सत्य है। यहाँ ‘योगी’ शब्द से तात्पर्य उस व्यक्ति से है, जिसने अस्तित्व की एकात्मकता को जान लिया है। जब ‘योग’ की बात होती है तो इसका तात्पर्य कोई विशेष अभ्यास या तंत्र नहीं। ब्रह्माण्ड के इस असीम विस्तार को तथा अस्तित्व में एकात्म भाव को जानने की सारी चाह, योग है। महाशिवारात्रि की रात, इसी अनुभव को पाने का परम अवसर है।

महादेव शिव

पहले के सभी सद्गुरुओं ने कहा है कि शिवरात्रि माह का सबसे अंधकारपूर्ण रात्रि होती है। प्रत्येक माह शिवरात्रि का उत्सव तथा महाशिवरात्रि का उत्सव मनाना ऐसा लगता है मानो हम अंधकार का उत्सव मना रहे हों। ऐसे में कोई तर्कशील मन अंधकार को नकारते हुए, प्रकाश को सहज भाव से चुनना चाहेगा। परंतु शिव का शाब्दिक अर्थ ही यही है, ‘जो नहीं है’। ‘जो है’, वह अस्तित्व और सृजन है। ‘जो नहीं है’- वह शिव है। ‘जो नहीं है’- उसका अर्थ है- अगर आप अपनी आँखें खोल कर आसपास देखें और आपके पास सूक्ष्म दृष्टि है तो आप प्रकृति को अपनी सम्पूर्णता में महसूस कर सकेंगे। अगर आपकी दृष्टि केवल विशाल वस्तुओं पर जाती है, तो आप देखेंगे कि विशालतम शून्य ही, अस्तित्व की सबसे बड़ी उपस्थिति है।

आदियोगी शिव ने महाशिवरात्रि पर खुद को कैलाश में आत्मसात कर लिया

सद्गुरु जग्गी वासुदेव इसी बात को विस्तार देते हुए कहते हैं कि कुछ ऐसे बिंदु, जिन्हें हम आकाशगंगा कहते हैं, वे तो दिखाई देते हैं, परंतु उन्हें थामे रहने वाली विशाल शून्यता सभी लोगों को दिखाई नहीं देती। इस विस्तार, इस असीम रिक्तता को ही ऋषियों और योगियों द्वारा शिव कहा गया है। वर्तमान में, आधुनिक विज्ञान ने भी साबित कर दिया है कि सब कुछ शून्य से ही उपजा है और शून्य में ही विलीन हो जाता है। इसी संदर्भ में शिव यानी विशाल रिक्तता या शून्यता को ही महादेव शिव के रूप में मान्यता दी गई है।

सनातन धर्म व संस्कृति

इस ग्रह के प्रत्येक धर्म व संस्कृति में, सदा दिव्यता की सर्वव्यापी प्रकृति की बात होती रही है। यदि हम इसे ध्यान से देखें, तो ऐसी एकमात्र चीज़ जो सही मायनों में सर्वव्यापी हो सकती है, ऐसी वस्तु जो हर स्थान पर उपस्थित हो सकती है, वह केवल अंधकार, शून्यता या रिक्तता ही है। सामान्यतः, जब लोग अपना कल्याण चाहते हैं, तो हम उस दिव्य को प्रकाश के रूप में दर्शाते हैं। जब लोग अपने कल्याण से ऊपर उठ कर, अपने जीवन से परे जाने पर, विलीन होने पर ध्यान देते हैं और उनकी उपासना और साधना का उद्देश्य विलयन ही हो, तो हम सदा उनके लिए दिव्यता को अंधकार के रूप में परिभाषित करते हैं।

प्रकाश आपके मन की एक छोटी सी घटना है। प्रकाश शाश्वत नहीं है, यह सदा से एक सीमित संभावना है क्योंकि यह घट कर समाप्त हो जाती है। हम जानते हैं कि इस ग्रह पर सूर्य प्रकाश का सबसे बड़ा स्रोत है। यहाँ तक कि आप हाथ से इसके प्रकाश को रोक कर भी, अंधेरे की परछाईं बना सकते हैं। परंतु अंधकार सर्वव्यापी है, यह हर जगह उपस्थित है।

महादेव शिव के स्वरुप काल भैरव

सद्गुरु कहते हैं कि संसार के अपरिपक्व मस्तिष्कों ने सदा अंधकार को एक शैतान के रूप में चित्रित किया है। पर जब आप दिव्य शक्ति को सर्वव्यापी कहते हैं, तो आप स्पष्ट रूप से इसे अंधकार कह रहे होते हैं, क्योंकि सिर्फ अंधकार सर्वव्यापी है। यह हर ओर है। इसे किसी के भी सहारे की आवश्यकता नहीं है। प्रकाश सदा किसी ऐसे स्त्रोत से आता है, जो स्वयं को जला रहा हो। इसका एक आरंभ व अंत है। यह सदा सीमित स्रोत से आता है।

जबकि, अंधकार का कोई स्रोत नहीं है। यह अपने-आप में एक स्रोत है। यह सर्वत्र उपस्थित है। तो जब हम शिव कहते हैं, तब हमारा संकेत अस्तित्व की उस असीम रिक्तता की ओर होता है। इसी रिक्तता की गोद में सारा सृजन घटता है। रिक्तता की इसी गोद को हम शिव कहते हैं।

महाशिवरात्रि अर्थात जागरण की उच्च अवस्था का सहज अनुभव

सद्गुरु कहते हैं कि सनातन संस्कृति में, सारी प्राचीन प्रार्थनाएँ केवल आपको बचाने या आपकी बेहतरी के संदर्भ में नहीं थीं। सारी प्राचीन प्रार्थनाएँ कहती हैं- “हे ईश्वर, मुझे नष्ट कर दो ताकि मैं आपके समान हो जाऊँ। तो जब हम शिवरात्रि कहते हैं जो कि माह का सबसे अंधकारपूर्ण रात्रि है, तो यह एक ऐसा अवसर है जब व्यक्ति अपनी सीमितता को विसर्जित कर, सृजन के उस असीम स्रोत का अनुभव करे, जो प्रत्येक मनुष्य में बीज रूप में उपस्थित है।”

अंततः, बस यही कहना है कि महाशिवरात्रि एक अवसर और संभावना है, जब आप स्वयं को, हर मनुष्य के भीतर बसी असीम रिक्तता के अनुभव से जोड़ सकते हैं, जो कि सृष्टि में व्याप्त सम्पूर्ण सृजन का स्रोत है। एक ओर शिव संहारक कहलाते हैं और दूसरी ओर वे सबसे अधिक करुणामयी कल्याणकारी भी हैं। वे बहुत ही उदार दाता हैं। यौगिक गाथाओं में वे, अनेक स्थानों पर महाकरुणामयी के रूप में सामने आते हैं। उनकी करुणा के रूप विलक्षण और अद्भुत रहे हैं। रावण और भष्मासुर से जुड़ी महादेव शिव की कहानी तो आपने सुनी होगी, नहीं सुनी तो सुनिएगा, आदिदेव शिव के कल्याण स्वरुप की कहानियाँ सृष्टि के कण-कण में हैं।

चलते-चलते एक और बात- महाशिवरात्रि शिव तत्व के अनुभव की एक विशेष रात्रि है। इस रात में बेशक थोड़े समय के लिए शांत मन से उस असीम विस्तार का अनुभव करें, जिसे हम आदियोगी महादेव शिव कहते हैं। आपके लिए यह वर्ष भी केवल गहन निद्रा, तन्द्रा या सिर्फ नींद से जागते रहने की रात भर न रह जाए बल्कि यह आपके लिए जागरण की रात्रि बन जाए, चेतना व जागरूकता से भरी एक रात यही कामना है।

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रवि अग्रहरि
रवि अग्रहरि
अपने बारे में का बताएँ गुरु, बस बनारसी हूँ, इसी में महादेव की कृपा है! बाकी राजनीति, कला, इतिहास, संस्कृति, फ़िल्म, मनोविज्ञान से लेकर ज्ञान-विज्ञान की किसी भी नामचीन परम्परा का विशेषज्ञ नहीं हूँ!

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