Friday, November 22, 2024
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रंगभरी एकादशी: कश्मीरी पंडितों की रजत पालकी पर विराजमान महादेव कराएँगे माँ गौरा का गौना, 358 वर्षों से जीवंत है काशी की यह परम्परा, शुरू होगा होली का हुड़दंग

लौकिक परंपरा की बात करें तो रंगभरी एकादशी पर महादेव शिव के पूरे परिवार की चल प्रतिमाएँ काशी विश्वनाथ मंदिर में लाई जाती हैं और बाबा विश्वनाथ मंगल वाद्ययंत्रों की मधुर ध्वनि के बीच नगर भ्रमण पर निकलकर भक्तों को आशीर्वाद देते हैं।

ब्रज के बाद यदि कहीं की पौराणिक, आध्यात्मिक और परंपरागत होली प्रसिद्ध है तो वह है महादेव बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी (वाराणसी) की। धर्म और अध्यात्म की नगरी काशी में फाल्गुन शुक्ल एकादशी को रंगभरी एकादशी के रूप में मनाया जाता है, जिसे आमलकी एकादशी भी कहते हैं। होली से पहले रंगभरी एकादशी वैसे तो पूरे देश में मनाई जाती है, पर इसका सर्वाधिक उत्‍साह और महत्त्व काशी में ही देखने को मिलता है। इस दिन महादेव शिव के गौना की रस्म ही रंगभरी एकादशी के रूप में मनाई जाती है। ज्ञात इतिहास की बात करें तो 358 वर्षों से यह परंपरा अपने भव्यतम स्वरूप में निरंतर निभाई जा रही है। इसके पहले कहा जाता है कि मुग़लों के शासन में लम्बे समय तक यह परंपरा बाधित रही।

रंगभरी एकादशी होली से 5 दिन पहले आती है। ब्रज में होली की शुरुआत होलाष्टक से होती है। वहीं बनारस में यह रंगभरी एकादशी से शुरू होती है। इस वर्ष 14 मार्च, 2022 को रंगभरी एकादशी से लेकर बुढ़वा मंगल तक अब हर तरफ “होली ही होली” नज़र आएगी बनारस में। काशी के साथ ही जहाँ-जहाँ भी महादेव शिव के मंदिर हैं उन सभी मंदिरों में भक्त अपने भगवान को रंग-गुलाल से सराबोर कर उत्सव के रंग में डूब जाएँगे।

क्या है इस बार खास

इस बार रंगभरी एकादशी पर बाबा विश्वनाथ 11 किलो चाँदी से निर्मित पालकी में भक्तों को दर्शन देने के लिए निकलेंगे। दरअसल, बाबा काशी विश्वनाथ, माता गौरा पार्वती की चल प्रतिमा की पालकी यात्रा के लिए चाँदी का नया सिंहासन बनवाया गया है। वाराणसी के टेढ़ीनीम स्थित महंत डॉ. कुलपति तिवारी के आवास पर बाबा विश्वनाथ के लिए यह नई पालकी तैयार की गई है। खास बात यह है कि इस बार कश्मीर के शैव भक्तों (कश्मीरी पंडितों) और दिल्ली के भक्तों की तरफ से बाबा विश्वनाथ को लगभग 11 किलो चाँदी के साथ ही कश्मीर से चिनार और अखरोट की खास लकड़ियाँ भी दान में दी गई हैं।

रजत पालकी पर सवार होंगे महादेव शिव और माता पार्वती

जो लोग काशी की इस परंपरा से परिचित न हों उनके लिए बता दें कि महाशिवरात्रि पर शिव विवाह हुआ था और आमलकी एकादशी या रंगभरी एकादशी पर काशी विश्वनाथ के गौना से दो दिन पहले से संगीत का उत्सव शुरू हो जाता है। परंपरा के रूप में महंत के आवास पर ही माँ गौरा पार्वती की रजत प्रतिमा को तेल-हल्दी लगाकर गौने की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। यह परंपरा हर वर्ष सुहागिनों और गवनहारियों द्वारा निभाई जाती है। इस अवसर पर महिलाओं द्वारा मंगल गीत भी गाए जाते हैं।

गौने से पहले की परंपरा का निर्वाह

इस बार गाए गए कुछ मंगलगीतों की बात करूँ तो कुछ के बोल हैं- “गौरा के हरदी लगावा, गोरी के सुंदर बनावा..’, ‘सुकुमारी गौरा कइसे कैलास चढ़िहें’…’, ‘गौरा गोदी में लेके गणेश, विदा हाेइहैं ससुरारी… जैसे कई गीतों पर महिलाओं ने जमकर नृत्य किया। इसके साथ ही दूल्हे यानि महादेव शिव के भोग के लिए खास तौर से पकवान तैयार किए जाते हैं। एक तरफ माँ पार्वती का साज शृंगार हुआ तो दूसरी तरफ हल्दी की रस्म के बाद नजर उतारने के लिए साठी के ‘चाउर चूमिय चूमिय’.. गीत भी गाए गए। महिलाओं गौना की परंपरा का निर्वाह करते हुए गौरा पार्वती की रजत मूर्ति को चावल से चूमा।

पौराणिक मान्यता से काशी की लोकपर्व बनने की यात्रा

महाश्मशान की नगरी काशी में माँ अन्नपूर्णा के रूप में निवास करने वाली देवी गौरी के पहली बार काशी आगमन के साथ ही बनारस में होली का आगाज़ हो जाता है। इस दिन से वाराणसी में रंग-गुलाल खेलने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है जो लगातार छह दिन तक चलता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार रंगभरी एकादशी के दिन ही भगवान शिव माता पार्वती से विवाह के बाद पहली बार काशी पधारे थे। कहते हैं कि इस मंगल खुशी में भगवान शिव के गण रंग-गुलाल उड़ाते हुए और खुशियाँ मनाते हुए आए थे। मान्यता है कि रंगभरी एकादशी को बाबा विश्वनाथ अपने भक्तों के साथ रंग और गुलाल से होली खेलते हैं।

गौना के बाद उत्सव मनाते काशीवासी

परंपरा के निर्वाह की कड़ी में महाशिवरात्रि को परिणय सूत्र (विवाह) में बंधने के बाद बाबा विश्वनाथ पहली बार माँ गौरा का गौना कराने उनके नइहर यानी श्री काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत के घर पहुँचते हैं। ससुराल पहुँचने पर बाबा विश्वनाथ का स्वागत घर की महिलाओं द्वारा मंगल गीत के साथ किया जाता है। वहीं महादेव के इस उत्सवप्रेमी मस्तमौला शहर काशी को तो बस बहाना चाहिए। काशीपुराधिपति बाबा भोलेनाथ अपनी दुल्हन लेकर निकलें और उनके गण के रूप में काशीवासी उल्लासित न हों ऐसा कैसे संभव है। बाबा भोले के भक्त बाबा विश्वनाथ से आशीर्वाद लेकर रंग-गुलाल की होली खेलते, नाचते-गाते-झूमते हुए गौना लेने निकलते हैं।

वहीं यदि लौकिक परंपरा की बात करें तो रंगभरी एकादशी पर महादेव शिव के पूरे परिवार की चल प्रतिमाएँ काशी विश्वनाथ मंदिर में लाई जाती हैं और बाबा विश्वनाथ मंगल वाद्ययंत्रों की मधुर ध्वनि के बीच नगर भ्रमण पर निकलकर भक्तों को आशीर्वाद देते हैं।

शिव विवाह का प्रसंग

बात काशी की हो, माँ गौरी के गौने की हो और उनके अनन्य प्रेमी शिव के विवाह की बात छूट जाए ये कैसे हो सकता है। तो थोड़ी चर्चा शिव विवाह की भी कर लेते हैं।

महाशिवरात्रि पर शिव और पार्वती का विवाह कितने अड़भंगी तरह से हुआ था, इसकी परंपरा आज भी काशी में महाशिवरात्रि पर शिव बारात के रूप में देखी जा सकती है। कहते हैं, इससे पहले ऐसा विवाह कभी किसी ने नहीं देखा था। उनकी शादी में एक से बढ़कर एक अतरंगी लोग शामिल हुए। देवताओं के साथ ही असुर भी वहाँ पहुँचे। शिव पशुपति भी हैं, मतलब सभी जीवों के देवता भी हैं, तो कहा जाता है सारे जानवर, कीड़े-मकोड़े और अन्य जीव भी उनके विवाह में बाराती बने। यहाँ तक कि भूत-पिशाच, अपंग और विक्षिप्त लोग भी उनके बारात में मेहमान बन कर पहुँचे।

शिव विवाह (पेंटिंग राजा रवि वर्मा, साभार-पिंटरेस्ट)

कहने को यह एक राजसी विवाह था। एक राजकुमारी पार्वती की शादी हो रही थी। इसलिए विवाह समारोह से पहले एक अहम समारोह का आयोजन होना था। वर-वधू दोनों की वंशावली घोषित की जानी थी। एक राजा के लिए उसकी वंशावली सबसे अहम चीज होती है, जो उसके जीवन का गौरव होता है। ऐसे में हिमालय पुत्री पार्वती की वंशावली का बखान खूब धूमधाम से किया जाने लगा। यह कुछ देर तक चलता रहा और आखिरकार जब उन्होंने अपने वंश के गौरव का बखान खत्म किया, तो वे उस ओर मुड़े जिधर वर के रूप में भूतभावन महादेव विराजमान थे।

सभी अतिथि इंतजार करने लगे कि वर की ओर से कोई उठकर शिव के वंश के गौरव के बारे में बोलेगा मगर किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा। वधू का परिवार आश्चर्य में पड़ गया, “क्या शिव के खानदान में कोई ऐसा नहीं है जो खड़े होकर उनके वंश की महानता के बारे में बता सके?” मगर वाकई कोई नहीं था। वर के माता-पिता, रिश्तेदार या परिवार से कोई वहाँ नहीं आया था, क्योंकि उनके परिवार में कोई था ही नहीं। वह सिर्फ अपने साथियों, गणों के साथ ही आए जो विकृत जीवों की तरह दिखते थे।

फिर पार्वती के पिता पर्वत राज हिमालय ने शिव से अनुरोध किया, “कृपया अपने वंश के बारे में कुछ बताइए।” शिव कहीं शून्य में देखते हुए चुपचाप बैठे रहे। वह न तो दुल्हन की ओर देख रहे थे, न ही शादी को लेकर उनमें कोई उत्साह नजर आ रहा था। वह बस अपने गणों से घिरे हुए बैठे रहे और शून्य में घूरते रहे। वधू पक्ष के लोग बार-बार उनसे यह सवाल पूछते रहे, क्योंकि कोई भी अपनी बेटी की शादी ऐसे आदमी से नहीं करना चाहेगा, जिसके वंश का अता-पता न हो। उन्हें जल्दी थी, क्योंकि विवाह के लिए शुभ मुहूर्त तेजी से निकला जा रहा था। मगर शिव मौन रहे।

कहा जाता है, समाज के लोग, कुलीन राजा-महाराजा और पंडित बहुत घृणा से शिव की ओर देखने लगे और विवाह मंडप में तुरंत फुसफुसाहट शुरू हो गई, “इसका वंश क्या है? यह बोल क्यों नहीं रहा है? हो सकता है कि इसका परिवार किसी नीच जाति का हो और इसे अपने वंश के बारे में बताने में शर्म आ रही हो।”

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, फिर नारद मुनि, जो उस सभा में मौजूद थे, ने यह सब तमाशा देखकर अपनी वीणा उठाई और उसकी एक ही तार खींचते रहे। वह लगातार एक ही धुन बजाते रहे- टोइंग टोइंग टोइंग। इससे खीझकर पार्वती के पिता पर्वत राज अपना आपा खो बैठे, “यह क्या बकवास है? हम वर की वंशावली के बारे में सुनना चाहते हैं मगर वह कुछ बोल नहीं रहा। क्या मैं अपनी बेटी की शादी ऐसे आदमी से कर दूँ? और आप यह खिझाने वाला शोर क्यों कर रहे हैं? क्या यह कोई जवाब है?’ नारद ने जवाब दिया, “वर के माता-पिता नहीं हैं।” राजा ने पूछा, “क्या आप यह कहना चाहते हैं कि वह अपने माता-पिता के बारे में नहीं जानता?”

“नहीं, इनके माता-पिता ही नहीं हैं। इनकी कोई विरासत नहीं है। इनका कोई गोत्र नहीं है। इसके पास कुछ नहीं है। इनके पास स्वयं के सिवा कुछ नहीं है।” पूरी सभा चकरा गई। पर्वत राज ने कहा, “हम ऐसे लोगों को जानते हैं जो अपने पिता या माता के बारे में नहीं जानते। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति हो सकती है। मगर हर कोई किसी न किसी से जन्मा है। ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी का कोई पिता या माता ही न हो।”

नारद मुनि ने तत्क्षण जवाब दिया, “क्योंकि यह स्वयंभू हैं। इन्होंने स्वयं अपनी रचना की है। इनके न तो पिता हैं न माता। इनका न कोई वंश है, न परिवार। यह किसी वंश-परंपरा से भी सम्बन्ध नहीं रखते और न ही इनके पास कोई राज्य है। इनका न तो कोई गोत्र है, और न कोई नक्षत्र। न कोई भाग्यशाली तारा इनकी रक्षा करता है। यह इन सब चीजों से परे हैं। यह एक योगी हैं और इन्होंने सारे अस्तित्व को अपना एक हिस्सा बना लिया है। इनके लिए सिर्फ एक वंश है- ध्वनि। आदि, शून्य, प्रकृति जब अस्तित्व में आई, तो अस्तित्व में आने वाली पहली चीज थी- ध्वनि। इनकी पहली अभिव्यक्ति एक ध्वनि के रूप में है। ये सबसे पहले एक ध्वनि के रूप में प्रकट हुए। उसके पहले ये कुछ नहीं थे। यही वजह है कि मैं यह तार खींच रहा हूँ।”

महादेव शिव : काशी में विशेष महत्त्व

महादेव शिव के बारे में ऐसी अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। जो शिव के उस रूप का बोध कराती हैं जो कहता है, “शिव अर्थात वह जो नहीं है।” जो सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक भगवान हैं। ये अलग बात है कि महादेव रसरीति से अत्यंत सुलभ साधारण भोलेनाथ हो जाते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि प्रेमदेवता जिसको छू लेता है, वह कुछ-का-कुछ हो जाता है। अल्पज्ञ सर्वज्ञ हो जाता है और सर्वज्ञ अल्पज्ञ हो जाता है। अल्पशक्तिमान सर्वशक्तिमान हो जाता है, वहीं सर्वशक्तिमान का भी महाविनाश हो जाता है।

जिस नगरी के कर्ता-धर्ता स्वयं महादेव शिव हों उसकी बात ही क्या! काशी तो शिव के ताल पर नृत्य करती है। ये भी कहा जाता है कि प्रेम के स्पर्श से कुछ-का-कुछ हो जाता है। प्रेमरंग में रंगे हुए प्रेमी के लिए सम्पूर्ण संसार ही प्रेमास्पद प्रियतम हो जाता है। शिव अपने प्रेम की पराकाष्ठा की वजह से ही महादेव हुए, कल्याण के हर रंग के उन्नायक हुए। यह जो रंगभरी एकादशी है, इसमें भी रंग क्या है? जिसके द्वारा जगत रंगों से सराबोर हो उठता है- ‘उड़त गुलाल लाल भए अम्बर’ अर्थात् गुलाल के उड़ने से आकाश लाल हो गया। आकाश इस सारे भौतिक प्रपंच का उपलक्षण है और काशी भौतिकता से आध्यात्मिक यात्रा का महामार्ग।

काशी का कोई ज्ञात इतिहास नहीं मिलता। आप कोई भी कालखंड की बात करेंगे उसमें काशी का जिक्र जरूर आएगा। ऐसे में प्राचीन नगर युगों से उत्सवधर्मिता और आध्यात्म की अलख जगाए हुए है, जब भी जीवन में खुशियों के रंग कम होने लगे तो आइए काशी, जहाँ मरघट पर भी जीवन का उत्सव नज़र आएगा। जहाँ मृत्यु अंत नहीं बल्कि नए जीवन का प्रस्थान बिन्दु है। मोक्ष का मार्ग है। रंगभरी एकादशी के अवसर पर संसार को काशी जीवन में रंग और उमंग के साथ ही फक्कड़पने में भी मस्ती-उल्लास-आनन्द का सन्देश देती है।

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रवि अग्रहरि
रवि अग्रहरि
अपने बारे में का बताएँ गुरु, बस बनारसी हूँ, इसी में महादेव की कृपा है! बाकी राजनीति, कला, इतिहास, संस्कृति, फ़िल्म, मनोविज्ञान से लेकर ज्ञान-विज्ञान की किसी भी नामचीन परम्परा का विशेषज्ञ नहीं हूँ!

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