काशी हिन्दू विश्विद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के छात्रों द्वारा संकाय में मुस्लिम सहायक प्रोफ़ेसर डॉ. फिरोज खान की नियुक्ति का विरोध जारी है। डॉ.फिरोज खान की नियुक्ति को महज ‘संस्कृत भाषा’ का मुद्दा बनाकर मीडिया और सोशल मीडिया के कई वामपंथी क्रन्तिकारी अभी भी भ्रम फ़ैलाने में लगे हैं। अभिव्यक्ति की आजादी और अधिकारों की लड़ाई के नाम पर इस पूरे मुद्दे को इस तरह से पेश किया जा रहा है जैसे ‘अधिकार’ और ‘संवैधानिक सुरक्षा’ केवल फिरोज खान को प्राप्त है। वही संविधान धर्म और उसके मूल्यों की रक्षा की भी गारंटी देता है। लेकिन, मीडिया गिरोह इस लाइन पर अड़ा है कि भजन गायक पिता रमजान के पुत्र फिरोज खान को संस्कृत पढ़ने-पढ़ाने से रोका जा रहा है। उसे उसके संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा जिससे फिरोज खान की भावनाएँ आहत हो रही हैं।
यहाँ यही मीडिया ‘गिरोह’ ये भूल जा रहा है कि क्यों वैदिक ग्रंथों, सनातन मूल्यों और धर्म विज्ञान की शिक्षा लेने गए एक विशेषीकृत संकाय के छात्रों को, जो आज भी विद्या अर्जन विधिवत गुरु-शिष्य परम्परा और उनके सारभूत मूल्यों के आधार पर ही करते आए हैं, एक मुस्लिम धर्मावलम्बी फिरोज खान को संस्कृत भाषा जानने और कुछ शास्त्र कंठस्थ होने के कारण अपना गुरु मान लें? क्या ऐसा करने से उन छात्रों की भावनाएँ आहत नहीं होंगी? क्या उन्हें अपने धर्म और शास्त्रों की शिक्षा उन्हीं से लेने का अधिकार नहीं है जो उस धर्म के हों और उस सनातन परंपरा और उसके अनुष्ठानों को जीते हों?
आज ऐसे कई मुद्दों पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ जिस पर आमतौर पर मुख्यधारा की मीडिया मौन है। आपको उन उद्देश्यों और उस दृष्टिकोण से भी परिचित कराऊँगा जिसे ध्यान में रखकर एक ही संस्थान में एक ही विषय के लिए एक अलग से विभाग, संस्कृत विभाग (कला संकाय में) बनाया गया और एक पूरा संकाय (संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय)। यही नहीं SVDV जिसका पूर्व नाम वैदिक महाविद्यालय था, के लिए निर्दिष्ट नियम मालवीय जी ने खुद एक शिलालेख पर अंकित करवा दिया ताकि इससे यहाँ प्रवेश करने वाला हर इंसान परिचित हो। कागजों पर लिखी बातें समय के ‘छद्म’ सेक्युलरिज्म के नाम पर बदली जा सकती हैं। शायद ऐसा उन्हें भी भान रहा हो कि मेरे जाने के बाद जिस उद्देश्य से BHU जैसा बड़ा संस्थान और उसमें भी हिन्दू धर्म और उसकी वैज्ञानिक व्याख्याओं के लिए अलग से एक संकाय संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान उन्होंने खड़ा किया ताकि उसकी मूल भावना सुरक्षित रहे। यह महाविद्यालय (संकाय) सनातन हिन्दू धर्म और वेद, व्याकरण, ज्योतिष, वैदिक दर्शन, धर्मागम, धर्मशास्त्र मीमांसा, जैन-बौद्ध दर्शन के साथ-साथ इन सबसे जुड़े साहित्य के निरंतर उन्नयन और संवर्धन में लगा रहे।
किसी भी संस्था की स्थापना के पीछे उसके संस्थापक का एक उद्देश्य होता है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के ‘हिन्दू’ शब्द और संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के ‘धर्म’ शब्द में संस्थापक महामना मदन मोहन मालवीय की बहुत सारी अवधारणाएँ समाहित हैं। आज भी SVDV के वेबसाइट पर उस संकाय की स्थापना का उद्देश्य साफ़ लिखा है:
“SVDV की स्थापना 1918 में महामना द्वारा इस उद्देश्य से की गई थी कि प्राचीन भारतीय शास्त्रों, संस्कृत भाषा और साहित्य के अध्ययन को संरक्षित करने और बढ़ावा देने के लिए, इस संकाय का प्रमुख उद्देश्य समाज में धर्म, अध्यात्म, ज्योतिष और तंत्र के बारे में व्याप्त भ्रान्तियों को दूर करना है और विशेष रूप से समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए नैतिकता और धर्म के सर्वोपरि मूल्यों को बहाल करना है। यहाँ परंपरागत तरीकों के साथ-साथ मौखिक-सह-लिखित परंपरा को ध्यान में रखते हुए शास्त्रीय ग्रंथों की ‘स्ट्रिक्टली’ पढ़ाई होती है।”
संकाय की खुद उद्घोषणा है कि हम ग्रंथों के प्रत्येक शब्द की व्याख्या पर जोर देते हैं ताकि उनके ‘आवश्यक’ निहितार्थ को समझा जा सके। यही फ़िरोज़ खान की नियुक्ति के विरोध का आधार भी है। जिसे आप हमारे इस रिपोर्ट में पढ़ सकते हैं।
अब आप उन तथ्यों को जानिए जो इस विश्वविद्यालय की स्थापना के मूल में हैं। मालवीय जी के उन्हीं सिद्धांतों, विश्वविद्यालय के विज़न को खुद हाल ही में BHU के वर्तमान वाइसचांसलर JNU के प्रोफ़ेसर राकेश भटनागर ने रीलिज किया। पहले देखिए उसमें क्या लिखा है। किताब के पहले पन्ने पर VC राकेश भटनागर का सन्देश भी है।
विश्वविद्यालय की स्थापना के समय की प्रस्तावना में भी BHU के निर्माण का उद्देश्य साफ है। एक उद्धरण प्रस्तुत है, “जब दिसंबर में काशी में राष्ट्रीय महासभा हुई और उसी अवसर पर 31 दिसंबर 1905 को बरार के श्री वीएन महाजनी एमए के सभापतित्व में काशी के टाउन हॉल में एक बड़ी भारी सभा हुई थी। सब धर्मों के प्रतिनिधि देशभर के प्रसिद्ध शिक्षा प्रेमियों के सामने आज की यह योजना रखी गई। यहाँ भी हिंदू विश्वविद्यालय की योजना का सबने स्वागत किया। 1 जनवरी सन 1906 को वहीं कॉन्ग्रेस के पंडाल में हिंदू विश्वविद्यालय स्थापित करने की घोषणा हुई थी।”
अगले ही वर्ष 1907 में 20 से 26 जनवरी तक प्रयाग में परमहंस परिव्राजकाचार्य जगद्गुरु श्री स्वामी शंकराचार्य जी के सभापतित्व में सुप्रसिद्ध साधुओं तथा विद्वानों की सनातन धर्म महासभा में यह प्रस्ताव स्वीकार हो गया कि-
भारतीय विश्वविद्यालय के नाम से काशी में एक हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की जाए, जिसके निम्नांकित उद्देश्य हों-
- श्रुतियों तथा स्मृतियों द्वारा प्रतिपादित वर्णाश्रम धर्म के पोषक, सनातन धर्म के सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए धर्म के शिक्षक तैयार करना।
- संस्कृत भाषा और साहित्य के अध्ययन की अभिवृद्धि।
- भारतीय भाषाओं तथा संस्कृत के द्वारा वैज्ञानिक तथा शिल्प-कला से संबंधित शिक्षा के प्रचार में योगदान देना।
विश्वविद्यालय में निम्नांकित संस्थाएँ होंगी-
वैदिक विद्यालय (वर्तमान में संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय)- जहाँ वेद, वेदांग, स्मृति, इतिहास तथा पुराणों की शिक्षा दी जाएगी। ज्योतिष विभाग में एक ज्योतिष संबंधित तथा अंतरिक्ष विद्या संबंधित वेधशाला भी निर्मित की जाएगी।
वैदिक कॉलेज का कार्य उन हिंदुओं के अधिकार में होगा जो श्रुति, स्मृति तथा पुराणों द्वारा प्रतिपादित सनातन धर्म के सिद्धांतों को मानने वाले होंगे।
- इस विश्वविद्यालय में वर्णाश्रम धर्म के नियमानुसार ही प्रवेश होगा।
- इस विद्यालय (संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय) के अतिरिक्त अन्य सभी विद्यालयों में सब धर्मावलंबियों तथा सब जातियों का प्रवेश हो सकेगा तथा संस्कृत भाषा के अन्य शाखाओं की शिक्षा जाति और सम्प्रदाय का भेदभाव किए बिना सबको दी जाएगी।
इतने से ही आपको इस विश्विद्यालय की स्थापना का उद्देश्य और इसके संस्थापक का दृष्टिकोण स्पष्ट हो गया होगा। आज इन्हीं मालवीय मूल्यों और संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के उद्देश्यों के लिए SVDV के छात्र लड़ रहे हैं।
VC ने जिस किताब को लॉन्च किया, उसी में लिखी बातें शायद पढ़ी नहीं या पढ़कर भी ‘सेक्युलर’ होने के नाम पर उस निर्णय को मंजूरी दी, जिसे अभी तक संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के किसी अधिकारी या पूर्व के किसी भी वाईसचांसलर ने लाँघने की कोशिश नहीं की। या तो पहले के सभी रूढ़िवादी रहे होंगे या उनकी मालवीय जी के मूल्यों, उद्देश्यों और आदर्शों में श्रद्धा और आस्था रही होगी। उनके लिए मालवीय जी ‘एक सामान्य व्यक्ति’ नहीं थे। उन्होंने उस वक़्त हिन्दू धर्म और सनातन मूल्यों की सम्पूर्ण शिक्षा का दूरदर्शी सपना देखा जब देश गुलाम था। न केवल सपना देखा बल्कि उसके आदर्श स्थापित करने वाले महामानव रहे।
मालवीय जी के सेक्युलर होने पर कभी प्रश्न नहीं उठा, विश्विद्यालय में उन्होंने सभी धर्मों के प्रवेश को सुनिश्चित किया सिर्फ एक संकाय को छोड़कर जो हिन्दू धर्म और इसके वैज्ञानिक व्याख्या के लिए विशेषीकृत था। कहा जाता है कि बिरला के दान दिए पैसे से मंदिरनुमा बने इस संस्थान को वैदिक साहित्य, हिन्दू धर्म और सनातन मूल्यों के सतत प्रवाह को बनाए रखने के लिए ऐसा विशेष प्रावधान बनाया गया कि वहाँ सिर्फ वर्णाश्रम धर्म के अनुसार हिन्दुओं (बौद्ध, जैन, सिख क्योंकि ये भी अपने आप को मूलरूप से सनातनी ही मानते हैं) का प्रवेश होगा। अब तो विश्विद्यालय के ही छात्र कह रहे हैं कि यदि आज की तरह मालवीय जी ‘छद्म’ सेक्युलर होने के चक्कर में पड़े होते तो न आज BHU में विश्वनाथ मंदिर होता, जिसे अपने मृत्यु से पहले बिरला से उन्होंने वचन लिया था कि वो इसे पूरा कराएँगे और आज भी सत्र का आरम्भ वहाँ परिसर में स्थित विश्वनाथ मंदिर में रुद्राभिषेक से ही होता है। न मालवीय भवन में गीता पाठ होता, जिसमें वाईसचांसलर की अनुपस्थिति उनकी मालवीय मूल्यों के प्रति भावना को पहले ही प्रदर्शित कर स्थानीय मीडिया में चर्चा का विषय बन चुकी है।
एक और बात आज जिस संविधान और BHU एक्ट पर VC अड़े हैं। उसे धीरे-धीरे मालवीय जी के न रहने पर कार्यकारिणी और BHU कोर्ट में बाहरी लोगों को घुसाकर बदला गया। उसमें भी सबसे अधिक संशोधन तब हुए जब कॉन्ग्रेस के शासन में वामपंथी प्रभाव से BHU ग्रसित हो चुका था। यहाँ BHU एक्ट का 1951 और अंतिम संशोधन 1999 का एक क्लॉज प्रस्तुत है। देखिए कैसे धीरे-धीरे विश्विद्यालय के मूल स्वरुप और भावना से खिलवाड़ किया गया।
ऐसा लगता है कि धीरे-धीरे विश्विद्यालय ‘सेक्युलर’ होने की राह पर बढ़ चला है। आज VC कह रहे कि मैं SVDV के शिलालेख को नहीं मानता। मेरे लिए देश का संविधान ही सब कुछ है और BHU एक्ट में कहीं नहीं लिखा है कि SVDV में मुस्लिम की नियुक्ति नहीं होगी। ऐसे में यह आशंका जताई जा रही है कि कल कोई वाइसचांसलर ये भी कह सकता है कि जब विश्विद्यालय में विश्वनाथ मंदिर है तो उसके बगल में मस्जिद या चर्च क्यों नहीं हो सकता। मालवीय भवन में सिर्फ गीता पाठ क्यों, वहाँ अजान और प्रेयर भी होंगे। क्योंकि लिखा तो ये भी कहीं नहीं है।
बावजूद इसके यह विश्विद्यालय सभी धर्मों को समाहित करने के साथ भी सनातन हिन्दू धर्म के मूल्यों और अपने संस्थापक महामना के आदर्शों को आत्मसात कर आगे बढ़ता रहा, किसी टकराव की नौबत नहीं आई। आज टकराव भी तब उत्पन्न हुआ है जब कहीं न कहीं मालवीय जी की मूल भावना और मूल्यों से खिलवाड़ हो रहा है। एक अदूरदर्शी कदम को नियमों का हवाला देकर सही ठहराया जा रहा है। जो आने वाले समय में हिन्दू धर्म और सनातन संस्कृति की रक्षार्थ देश में एकमात्र बचे संकाय को भी अपने दूषण के आगोश में ले लेगा। फिर आज के SVDV के छात्रों की आशंका सही साबित होगी, जब मुस्लिम और ईसाई एक तरफ अल्पसंख्यक होने के नाम पर अपना मजहब और उसकी शुद्धता बनाए रखेंगे और दूसरी तरफ भजन, गीत, संगीत के आभूषणों के साथ संस्कृत भाषा सीखकर आपके हिन्दू धर्म, सनातन मूल्यों, वैदिक साहित्य और अनुष्ठानों की अपने तरह की व्याख्या करेंगे। तब आप सर्वधर्म समभाव का झुनझुना बजाते रहिएगा।