होली प्रह्लाद का पर्व है। यानी अत्यधिक आनंद का। वैसे ही आनंद का जिसका जिक्र सुदर्शन ने अपनी कहानी ‘हार की जीत’ के पहले ही वाक्य में ये कहकर किया है कि माँ को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। यह नवान्न के आनंद का पर्व है। इस रात जो अग्नि जलाई जाती है और उसमें गेहूँ की जो बालियाँ अग्नि में जलाई जाती हैं, उनका बाहरी हिस्सा जल जाता है, भीतर का अन्न बचा रहता है। वह जो बाहर की बाली के अंक में था, प्रह्लाद वही है। बाहर की बाली होलिका की तरह उसे लिए हुए है।
यह एक अच्छा संयोग था, जिससे प्रह्लाद और हिरण्यकशिपु की घटना जुड़ गई। निःसंदेह कोई गेहूँ का अन्न प्रार्थना के स्तोत्र नहीं गढ़ता। प्रह्लाद का नृसिंह स्तोत्र श्रीमद्भागवत पुराण में दिया हुआ है। अतः होली एक युगान्तर का पर्व है। तब जब सभ्यता ने कृषि का आविष्कार किया और तब जब नृसिंह का अवतार हुआ।
अब JNU में जिस तरह की जड़ता आश्रय पाती है, वहाँ कुछ लोग ऐसे पोस्टर लगाते हैं, जिनमें होली को स्त्री विरोधी त्यौहार की तरह बताया जाता है। एक पोस्टर की भाषा देखिए: “Why does Brahmanical Patriarchal India celebrate burning of Holika, an Asura Bahujan woman? What is holy about Holi ? Holi will not only remain anti-bahujan, anti-dalit and anti-adivasi women in character, but is against womanhood itself. SAY NO TO HOLI!”
यह जड़ता यदि स्त्री के लिए वाकई आदर रखती तो महिषासुरमर्दिनी दुर्गा को वैश्या नहीं बता रही होती। इसके लिए तो वैसा ही IQ level चाहिए, जिसमें बुआ होलिका तो असुर बहुजन स्त्री हो, लेकिन भतीजा प्रह्लाद ब्राह्मनिकल हो। वो प्रह्लाद जो अपनी प्रार्थना में यह कहता हो:
“जो ब्राह्मण धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योग के बारह गुणों से युक्त है किन्तु भगवान कमलनाभ के चरणों से विमुख है, उससे तो मैं उस चांडाल को श्रेष्ठ समझता हूँ जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण श्रीहरि में लगा रखे हैं। वह अपने कुल को पवित्र कर देता है, किन्तु अधिक प्रभावशाली ब्राह्मण वैसा नहीं कर सकता।”
प्रॉब्लम ये है कि हमारी परंपरा की एक बड़ी कटी-पिटी सी पढ़ाई हमारे विश्वविद्यालयों में होती है। समाज में भी उनका एक बड़ा अबौद्धिक किस्म का निर्वहन सा होता है। इसी कारण अपने समय के सबसे निरंकुश सत्तावाद के प्रतिरोध और उसकी पराजय के प्रतीक हमारे त्यौहार अपनी गतानुगतिकता में अपनी चमक खोते गए हैं। नहीं तो होली, दशहरा, दीपावली सब अधिनायकवादी सत्ता के खिलाफ संघर्ष के स्मृति-संदर्भ हैं।
रावण हों या महिषासुर या हिरण्यकशिपु इनमें से कोई भी दलित-वंचित नहीं था। सब अधिकारिता का अधिकतम संघनन थे। इन्हें बहुजन जैसे चालू जुमलों का लाभ वही दे सकता है जिसका IQ level ही निगेटिव हो। आज के प्रतिरोध आंदोलनों की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वे पुराने रेसिस्टेंस मूवमेंट्स से सबक नहीं लेते, बल्कि उनका मूर्खतापूर्ण तिरस्कार करते हैं, उन लोगों के चक्कर में आकर जिनका लक्ष्य भारतीय जीवन-शक्ति का दुर्दमन है।
आज होलिका जैसी दानवी के माध्यम से यदि वे वूमेनहुड का कोई विमर्श रचना चाहें तो प्रह्लाद की बाल-हत्या के प्रयास क्या कहलाएँगे? यह कौन सा वूमेनहुड है जो infanticide पर पनपता है? पूतना और होलिका को खलनायिका से नायिका बनाने की कोशिश बाल-हत्या के महिमामंडन की कोशिश है। उसे ब्राह्मणवाद के विरोध के नाम पर ढका नहीं जा सकता। ब्राह्मण तो वे दधीचि थे, जिन्होंने वृत्रासुर को मारने के लिए अपनी अस्थियाँ दे दीं। वज्र का निर्माण करने वास्ते अपनी हड्डियाँ देने वाले ऋषि।
जब दलित अस्मिता का आइडेंटिफिकेशन पूतना, होलिका और महिषासुर से किया जाता है तब ब्राह्मनिज्म को नुकसान नहीं होता, दलितों की आत्म-छवि को होता है। इन तीनों असुरों की दलित आइकॉन के रूप में प्रशंसा न इन्हें कहीं पहुँचाती है, न दलितों को। स्वयं ही सोचें कि यदि ये वाकई ऐसे आइकॉन हैं जिन पर गर्व कर सकें तो क्या आंबेडकर को आज महिषासुर कह के हम संतुष्ट होंगे या सावित्री फुले को होलिका कह सकेंगे।
यह कोई संयोग नहीं है कि फाल्गुन पूर्णिमा के दिन एक बालक की देह को जलाकर मार देने की कोशिश करने वाली होलिका असुर कहलाई और आज ही के दिन जनकल्याण के लिए अपना देहोत्सर्ग करने वाले दधीचि ब्राह्मण कहलाए।
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(लेखक आशुतोष सिंह ठाकुर ‘यंग थिंकर्स फोरम’ के फाउंडिंग डायरेक्टर हैं)