आदरणीय राष्ट्रपति जी,
ठीक दस दिन पहले मैंने अपना कार्यभार संभाला था। तब से अब तक मैं एक छोटी रिपोर्ट लिखने के लिए दस मिनट का समय भी नहीं निकाल सका। स्थिति इतनी गंभीर और संकटपूर्ण थी।
… यह वाकई चमत्कार था कि 26 जनवरी को काश्मीर बचा लिया गया और हम राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय शर्मिंदगी उठाने से बच गए। इस दिन की कहानी लम्बी है और यह बाद में पूरे ब्यौरे के साथ बताई जानी चाहिए।
… मैंने 26 जनवरी को हुई घटनाओं में अपनी भूमिका पूरी तरह अदा की है और मुझे इसका गर्व है। लेकिन अपना काम जारी रखना मेरे लिए कठिन हो जाएगा यदि यह प्रभाव बना रहा कि जनता में मुझे पूरा समर्थन नहीं प्राप्त है। पहले से ही मुझे एक टूटा और बिखरा प्रशासन मिला है। यदि कमांडर पर ही हर रोज छिप कर वार किया जाए तो सफलता का क्या अवसर रह जाता है इसकी कल्पना की जा सकती है।
… कामचलाऊ समाधानों या सुगम रास्तों का सहारा लेना आत्मघाती नहीं तो गलत जरूर होगा। विष महत्वपूर्ण अंशों तक पहुॅंच चुका है। जब तक कि उसे पूरी तरह समाप्त नहीं किया जाता, हम एक संकटपूर्ण स्थिति से दूसरी में ही लड़खड़ाते रहेंगे।
आपका
-जगमोहन
1990 के जनवरी के आखिरी दिनों में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन द्वारा राष्ट्रपति को लिखे इस पत्र की चुनिंदा पंक्तियों को पढ़कर, आपको उस समय के हालात का अंदाजा लग गया होगा। श्रीनगर से लेकर दिल्ली की सियासत का अहसास भी हो रहा होगा। यह भी समझ गए होंगे कि 1990 की वह 26 जनवरी भारत के लिए कितनी महत्वपूर्ण थी। पत्र में जगमोहन जिस चीज को चमत्कार बता रहे हैं, आखिर वे परिस्थितियॉं क्या थी? ये जानने से पहले इस पर नजर डालते हैं कि दूसरी बार जगमोहन को किन परिस्थितियों में राज्यपाल बनाकर जम्मू-कश्मीर भेजा गया था।
19 जनवरी 1990। कुछ याद आया। वह मनहूस रात जब घाटी के हर मस्जिद से एक ही आवाज आ रही थी कि हमें कश्मीर में हिंदू औरतें चाहिए, लेकिन बिना किसी हिंदू मर्द के। वो रात जब हिंदुओं को केवल तीन विकल्प दिए गए थे। पहला, कश्मीर छोड़कर भाग जाओ। दूसरा, धर्मांतरण कर लो। तीसरा, मारे जाओ। वो रात जिसने मानवीय इतिहास के सबसे बड़ी पलायन त्रासदियों में से एक का दरवाजा खोला। जिसके कारण करीब 4 लाख कश्मीरी हिंदू जान बचाने के लिए अपना घर, अपनी संपत्ति अपने ही देश में छोड़कर भागने को मजबूर हुए। वे आज भी जड़ों की ओर लौटने का इंतजार ही कर रहे हैं।
उसी शाम, यानी 19 जनवरी 1990 की शाम को ही जगमोहन ने राज्यपाल पद की शपथ ली थी। कश्मीर: समस्या और समाधान में जगमोहन लिखते हैं, “अचानक विमान झटके के साथ नीचे झुका। ऐसा बाहरी हवा में दबाव के अन्तर के कारण हुआ। सीमा सुरक्षा बल का वह छोटा से विमान उसे आसानी से झेल नहीं सकता था। पूरा विमान कॉंप उठा और उसके साथ मेरी विचारधारा भी। शायद इसने मुझे संस्मरण दिलाया कि मैं ऐसे राज्य में जा रहा हूॅं जो अशांति और दहशत में फॅंसा है। यह 19 जनवरी 1990 की दोपहर थी। मैं विमान द्वारा दूसरी बार जम्मू-काश्मीर जा रहा था।”
ऐसे हालात में पहुॅंचे जगमोहन ने शाम में शपथ ली। जितने स्थान का प्रबंध किया गया था उससे कहीं अधिक लोग जुटे थे। लेकिन कॉन्ग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने इस शपथ ग्रहण समारोह का बहिष्कार किया था। बकौल जगमोहन, मैं उनका उद्देश्य समझ नहीं सका। यह घाटी को बचाने का समय था या मेरी परेशानियों में एक और अड़ॅंगा लगा राजनैतिक फायदा उठाने का? शपथ लेने के बाद जगमोहन अपने स्वभाव के विपरीत पहले से तैयार एक भाषण देते हैं। जिसका लबोलुबाब था- यह ‘गवर्नर रूल’ नहीं, ‘गवर्नर सर्विस’ है। एक नर्स की तरह मरीज को प्यार, दुलार और सेवा दी जाएगी ताकि वह स्वस्थ हो और शांति से रचनात्मक जीवन जी सके।
बावजूद उस रात क्या हुआ इससे हम सब परिचित हैं। जगमोहन ने खुद लिखा है कि पहले ही दिन आतंकवादियों, पाकिस्तान समर्थित तत्वों, कट्टरपंथी और सांप्रदायिक तत्वों तथा राजनीतिक और शासकीय निहित तत्वों ने अपने-अपने तरीके से उन्हें कमजोर और पंगु बनाने का निर्णय कर लिया था। लेकिन सिलसिला इसके बाद भी थमा नहीं। जगमोहन लिखते हैं कि मस्जिदों के लाउडस्पीकर से इस्लामी नारे सुनाई दे रहे थे। आसपास के गॉंवों से लोग शहरों में इकट्ठा हो रहे थे। उन्हें लगता था कि आजादी बस आ ही चुकी है। कश्मीर में तियनमान स्क्वेयर और ब्लू स्टार दोहराने की बातें हो रही थीं। फिर धीरे-धीरे भयावह शांति छा गई। लेकिन, जगमोहन की असली चुनौती 26 जनवरी को इंतजार कर रही थी। अंतिम प्रहार उसी दिन होना था।
साजिश
उस साल की वह 26 जनवरी जुमे के दिन थी। ईदगाह पर 10 लाख लोगों को जुटाने की योजना बनाई गई थी। मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से लोगों को छोटे-छोटे समूह में ईदगाह पहुॅंचने को उकसाया जा रहा था। श्रीनगर के आसपास के गॉंव, कस्बों से भी जुटान होना था। योजना थी कि जोशो-खरोश के साथ नमाज अता की जाएगी। आजादी के नारे लगाए जाएँगे। आतंकवादी हवा में गोलियॉं चलाएँगे। राष्ट्रीय ध्वज जलाया जाएगा। इस्लामिक झंडा फहाराया जाएगा। विदेशी रिपोर्टर और फोटोग्राफर तस्वीरें लेने के लिए वहॉं जमा रहेंगे। उससे पहले 25 की रात टोटल ब्लैक आउट की कॉल थी।
उन्हें कामयाबी का पूरा गुमान था। वे जानते थे कि गणतंत्र दिवस होने के कारण आवाजाही पर कोई प्रतिबंध नहीं होगा। नेता और अधिकारी जम्मू में सलामी लेने में व्यस्त होंगे। स्थानीय अधिकारी कोई काम नहीं करेंगे। इस्लामी झंडा लहराते ही उनका सरेंडर करवाया जाएगा। तैयारियॉं पूरी थी और योजना पर गुप्त तरीके से अमल हो रहा था। उन्होंने अंतिम वक्त में हैरान कर देने के मॅंसूबे पाल रखे थे। 14 अगस्त, 1989 को वे इसका एक प्रयोग कर चुके थे। तब कुछ आतंकियों ने परेड की सलामी ली थी। पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस मनाया गया था। अखबारों में उस जश्न की ख़बरें और तस्वीरें छपी थीं। अगले दिन भारत के स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगे को सार्वजनिक रूप से जलाया गया था।
संदेश
26 जनवरी से दो दिन पहले अफवाह फैलाई गई कि अर्धसैनिक बलों ने कश्मीर आर्म्ड फोर्सेस के चार जवानों को मार गिराया है। ‘खून का बदला खून’ का आह्वान किया गया। 25 जनवरी की सुबह श्रीनगर में भारतीय वायुसेना के स्क्वाड्रन लीडर रवि खन्ना और तीन अन्य अफसर की आतंकियों ने निर्मम हत्या कर दी। हत्या उस समय की गई जब वे ड्यूटी पर जाने के लिए अपनी दफ्तर की गाड़ी का इंतजार कर रहे थे। आतंकियों ने संदेश दे दिया था।
समर्पण
आतंकियों के हौसले बुलंद थे। उनके लिए आज़ादी बस कुछ घंटे दूर थी। उन्हें लग रहा था कि इस साजिश की भनक जगमोहन को नहीं लगेगी। लगी भी तो 10 लाख लोगों पर बल प्रयोग का जोखिम नहीं उठाया जाएगा। लेकिन, मजहबी उन्मादियों को घुटने पर लाने का प्लान पहले से तैयार था। उन्हें चौंकाते हुए जगमोहन ने 25 जनवरी की दोपहर ही कर्फ्यू लगा दिया। अपने कुछ विश्वस्त सहयोगियों को उसी शाम बता दिया कि वे सलामी लेने जम्मू नहीं जाएँगे। श्रीनगर में ही डेरा डाले रहेंगे। सभी सरकारी विभागों को आदेश दिए कि हर हाल में दफ्तरों में लाइटें जलनी चाहिए। हर हाल में स्ट्रीट लाइट ऑन रहनी चाहिए। इसके लिए पीडब्ल्यूडी और बिजली विभाग को विशेष आदेश दिए गए। शाम हुई तो बिजलियॉं जल उठीं। बकौल जगमोहन, आप इसे अथॉरिटी का सम्मान कहिए या डर, कर्मचारियों ने इसका पालन किया।
इन लाइटों की रोशनी से जो गर्माहट पैदा हुई वह इस्लामिक आतंकवाद पर भारत की पहली मनोवैज्ञानिक जीत थी। इसने तय कर दिया कि जीतना भारत को ही है। कश्मीर को संविधान के आईन में ही चलना है, न कि किसी मजहबी उन्माद में जलना है।
(संदर्भ:My Frozen Turbulence In Kashmir, कश्मीर: समस्या और समाधान)