मुगल आक्रांता औरंगजेब के शासनकाल को भारत का सबसे क्रूर शासनकाल माना जाता है, जिसने देश भर में मंदिरों का विध्वंस उसका प्राथमिक उद्देश्य था। औरंगजेब ने वाराणसी के काशी विश्वेश्वर महादेव मंदिर को सिर्फ नहीं तोड़ा था, बल्कि बिहार के कैमूर में स्थित माता मुंडेश्वरी के मंदिर को भी तोड़ने की कोशिश की थी, हालाँकि, वहाँ के मूल मंदिर को तोड़ने में वह नाकाम रहा है। इस मंदिर का विश्व का सबसे पुराना कार्यरत मंदिर कहा जाता है, जिसकी वास्तुकला से लेकर इसके रहस्य तक अचंभित करने वाले हैं। इसके निर्माण से लेकर विध्वंस तक के बारे में कहानियाँ प्रचलित हैं।
कहा जाता है कि औरंगजेब को जब मुंडेश्वरी माता मंदिर के बारे में जानकारी मिली तो उसने इस मंदिर को भी ध्वस्त करने का फरमान जारी कर दिया। मुगल सैनिक पहाड़ की चोटी पर पहुँच कर मंदिरों का विध्वंस करने लगे। कहा जाता है कि जब मुगल सैनिक मुख्य मंदिर को तोड़ने लगे, लेकिन इसके पूर्ण विध्वंस से पहले ही उनके साथ अनहोनी होने लगी। इसके बाद इस मंदिर को अर्द्ध खंडित अवस्था में ही छोड़ दिया गया है। वहाँ खंडित मूर्तियों एवं विग्रहों के रूप में आज भी मौजूद हैं। हालाँकि, कुछ इतिहासकारों का इससे अलग मत है।
मंदिर की प्राचीनता
माता मुंडेश्वरी का मंदिर बिहार के जिला कैमूर में मुंडेश्वरी पहाड़ी पर 608 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। इस मंदिर को शिव-शक्ति मंदिर को मंदिर भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें माता शक्ति के अलावा भगवान शिव का अनोखा शिवलिंग है। मुंडेश्वरी मंदिर 51 शक्तिपीठों में शामिल है और दुनिया का सबसे कार्यरत प्राचीनतम मंदिर नाम इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण संस्थान (ASI) ने दिया है। इसकी नींव रखने से लेकर आज तक पूजा जारी है।
The Mundeshwari Temple, or Mundesvari Temple,is the oldest functioning temple in the world,located at #Kaura of #Kaimur district in Bihar. The temple is dedicated to Lord Shiva and Shakti.#BiharFoundation #Bihar #MundeshwariTemple #WednesdayWisdom #WednesdayVibes #BhagwaTwitter pic.twitter.com/KgBlnJRME7
— Bihar Foundation (@biharfoundation) November 27, 2019
मंदिर में मिले एक शिलालेख में कहा गया है कि सन 389 ईस्वी (उत्तर गुप्तकालीन) में भी यह मंदिर मौजूद था। इस मंदिर में कई शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे हैं। कुछ शिलालेखों के आधार ASI ने इस मंदिर का निर्माण काल 108 ईस्वी माना है।
मंदिर की प्राचीनता का आभास यहाँ मिले महाराजा दुत्तगामनी की मुद्रा से भी होता है। बौद्ध साहित्य के अनुसार, महाराजा दुत्तगामनी अनुराधापुर वंश का थे और ईसा पूर्व 101-77 में श्रीलंका पर शासन करते थे। इस मंदिर को शककालीन भी बताया जाता है। इसका जिक्र मार्कण्डेय पुराण में किया गया है। इसकी प्राचीनता को देखते हुए साल 1915 से ही यह ASI के संरक्षण में है।
इस मंदिर के कई शिलालेख पटना और कोलकाता के संग्रहालयों में रखे गए हैं। यह शिलालेख 349 ई. से 636 ई. के बीच के हैं। साल 1968 में ASI ने 97 दुर्लभ मूर्तियाँ पटना संग्रहालय और तीन मूर्तियों को कोलकाता संग्रहालय में रखवाया है। वर्ष 1812 ईस्वी से लेकर 1904 ईस्वी के बीच ब्रिटिश यात्री आर.एन.मार्टिन, फ्रांसिस बुकानन और ब्लॉक ने इस मंदिर का भ्रमण किया था। इस मंदिर का उल्लेख कनिंघम ने भी अपनी पुस्तक में किया है।
मंदिर की वास्तुकला
पत्थरों से बना यह मंदिर दुर्लभ अष्टकोणीय वास्तुकला के आधार पर बना है। यह बिहार में मंदिर वास्तुकला की नागर शैली का सबसे पहला नमूना है। इसके चारों तरफ दरवाजे या खिड़कियाँ हैं और दीवारों में स्वागत के लिए छोटी-छोटी मूर्तियाँ अंकित की गई हैं। मंदिर की दीवारों को कल मूर्तियों और कलाकृतियों से सजाया गया है। प्रवेशद्वार पर द्वारपाल, गंगा और यमुना की आकृतियाँ अंकित हैं। जो यह बताती हैं कि जब मंदिर का वैभव रहा होगा तो तब यह कैसा दिखता होगा।
मंदिर के शिखर को टावर को नष्ट कर दिया गया है। कहा जाता है कि इसे औरंगजेब ने नष्ट करवाने की कोशिश की थी। हालांकि, बिहार राज्य धार्मिक न्याय परिषद के अध्यक्ष आचार्य ‘किशोर कुणाल’ का मानना है कि मुंडेश्वरी मंदिर को किसी आक्रमणकारियों ने नहीं तोड़ा है बल्कि प्राकृतिक आपदा, बरसात, तूफान आंधी-पानी से इसका नुकसान हुआ है। कुछ इतिहाकारों का यह भी कहना है कि यह पहले से ही भग्नावेष में पड़ा था, संभवत: इसीलिए इस पर किसी मुस्लिम आक्रांता की नजर नहीं पड़ी। बाद में सरकार ने मंदिर का पुनरुर्द्धार कराते हुए इस पर छत का निर्माण कराया है। मंदिर के गर्भगृह में भैसे की करते सवारी करती देवी मुंडेश्वरी और पंचमुखी शिवलिंग हैं। इसके अलावा यहाँ दो असामान्य आकार के दो पत्थर भी हैं, जिनकी लोग पूजा करते हैं।
इसके अलावा, इस मंदिर में भगवान गणेश, भगवान सूर्य और भगवान विष्णु सहित कई देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ हैं। पत्थर के बने मंदिर का बड़ा हिस्सा क्षतिग्रस्त होकर चारों तरफ फैला हुआ है। यह भी कहा जाता है कि पहाड़ी पर मंदिरों का समूह था, जिसमें से अकेला यही मंदिर बचा है और बाकी अन्य मंदिरों को तोड़ दिया गया है।
माता मुंडेश्वरी
माना जाता है कि शुंभ और निशुंभ दानव को सेनापति चंड और मुंड थे। ये दोनों असुर इलाके में लोगों को प्रताड़ित करते थे। इसके बाद लोगों ने माता शक्ति से प्रार्थना की और उनकी पुकार सुनकर माता भवानी पृथ्वी पर आकर इनका वध किया था। कहा जाता है कि देवी से युद्ध करते हुए मुंड इस पहाड़ी पर छिप गया था, लेकिन माता ने उसका वध कर दिया। इसलिए उनका नाम मुंडेश्वरी पड़ा। यहाँ माता मुंडेश्वरी प्राचीन प्रत्थरों की आकृति में वाराही के रूप में मौजूद हैं और उनका वाहन महिष है।
गर्भगृह में पंचमुखी शिवलिंग
मंदिर के गर्भगृह में एक पंचमुखी शिवलिंग है। इसके बारे में बेहद रहस्यमयी कहनी है। कहा जाता है कि यह शिवलिंग सूर्य की स्थिति के अनुसार अपना रंग बदलता रहता है। यह शिवलिंग दिन में कम से कम तीन अपना रंग बदलता है। ऐसी मान्यता है कि इसका मूर्ति का रंग सुबह, दोपहर और शाम को अलग-अलग दिखाई देता है। शिवलिंग का रंग कब बदल जाता है, किसी को पता भी नहीं चलता।
बलि देने के बाद जी उठता है बकरा
इस मंदिर की एक और रहस्यमयी बात है, जो दर्शक देखते और बताते हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर में सात्विक बलि दी जाती है, यानि बिना जान लिए ही देवी माँ को बलि दी जाती है। कहा जाता है कि देवी माँ को अर्पित करने के लिए जब मंदिर में बकरा लाया जात है तो मंदिर का पुजारी देवी माँ की चरणों से चावल के कुछ अंश लेकर बकरे पर फेंकता है। इसके बाद बकरा वहीं गिरकर मृतप्राय जैसा हो जाता है। हालांकि, वह कुछ देर बाद स्वयं खड़ा हो जाता है और मान लिया जाता है कि बलि दे दी गई। इस मंदिर की यह सात्विक बलि सबसे रहस्यमयी बातों में से एक है।