Friday, April 26, 2024
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अतीत को गुरु मान कर सीखने की जरूरत: मातृभाषा अपनाएँ, प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन पर हो जोर

आधुनिक पाठ्यक्रम के साथ उस विषय से संबंधित प्राचीन ग्रंथों को शामिल करना शुरू करें। और हाँ, इसे शिक्षा का भारतीयकरण कहते हैं, भगवाकरण नहीं।

अधिक आयु वाले व्यक्ति की दशा कुछ ऐसी होती जाती है- ‘गच्छति पुर: शरीरं धावति पश्चादसंस्तुतं चेत:। चीनांशुकमिव केतो: प्रतिवातं नीयमानस्य।।’ – (कालिदास) अर्थात् शरीर किसी ध्वज दंड की तरह आगे-आगे जा रहा है और बेचैन मन रेशमी पताका की तरह हवा की विपरीत दिशा में पीछे की ओर भाग रहा है। उम्र आगे बढ़ती जाती है और मन बीते बचपन और यौवन को याद करता है। फिर मूल्यांकन भी हो ही जाता है कि अब तक क्या हासिल किया। भारत में आज हमें अपनी मातृभाषा पर ध्यान देने और संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन की ज़रूरत है।

यह प्रक्रिया जैसे व्यक्ति के सन्दर्भ में सच है, वैसे ही किसी राष्ट्र के विषय में भी सच है। मूल्यांकन हर जगह स्वाभाविक है और आवश्यक भी। इसमें हम अब तक की उपलब्धियों का आकलन करते हैं, जो अतीत की सैर के बिना संभव नहीं।

अगर हम भारत देश का मूल्यांकन करें तो हम पाते हैं कि हमारा अतीत बहुत समृद्ध था। एक तो ओल्ड को वैसे ही गोल्ड माना जाता है किंतु इस अतिव्याप्ति की सहूलियत का उपभोग किए बिना भी अगर हम अपने अतीत को किसी निष्पक्ष कसौटी के हवाले कर दें, एक ऐसी कसौटी जो सिफारिशें न मानती हो तब भी आप पाएँगे कि भारत ओल्ड होने पर गोल्ड नहीं हुआ। जब सब कुछ नया था, जब कुछ भी ओल्ड नहीं था तब भी भारत गोल्ड था।

हम कभी-कभी इस स्वर्णिम अतीत पर गर्व करने का समय भी निकाल लेते हैं, लेकिन जब स्वर्ण को तिजोरी से बाहर निकाल कर प्रयोग करने का प्रसंग आता है तो हम चौबीस कैरेट का वैराग्य धारण कर लेते हैं। वैराग्य अच्छी चीज़ है, इसे अपनाना चाहिए। लेकिन उसे उचित समय और स्थान पर प्रयोग करना है। क्योंकि वस्तु कितनी भी सुंदर, बहुमूल्य और उपयोगी क्यों न हो, औचित्य भंग हो जाने पर न शोभा देती है, न फायदा।

हमारे पास उच्च आध्यात्मिक आदर्शों से लेकर ऐहिक सफलताओं के अनेक सूत्र हैं लेकिन किसको कहाँ लगाना है, सारी समस्या वहाँ है। मतलब घोड़ा भी है और गाड़ी भी, बस हम घोड़े को गाड़ी के आगे नहीं लगा पा रहे हैं, वो अभी भी गाड़ी के पीछे ही खड़ा है तो गाड़ी नहीं चलेगी। इसलिए सही यही होगा कि हम अपने स्वर्णिम अतीत को वर्तमान में भी कुछ भूमिका दें। वर्तमान का भारत शिष्य बनकर अतीत के उस विश्वगुरु भारत के पास समित्पाणि होकर जा सकता है। उससे कुछ सीख सकता है।

कुछ लोग अतीत का महिमा मंडन करते हुए अक्सर हर बात की पैरवी करने लगते हैं। यानी जो कुछ पुराना है, वो सब सही है। लेकिन हमारा गुरु बड़ा सजग और उदात्त है। वो स्वयं हमें उपनिषद् में संदेश देता है- ‘यान्यस्माकं सुचारितानि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि।’ अर्थात् तुम मेरे सुचरित का ही अनुकरण करना, यदि मुझमें कोई दोष हो तो उसको मत अपनाना। ऐसी बहुत सी बातें हैं, जो हम अपने अतीत से सीख सकते हैं और सीखनी चाहिए।

किसी भी राष्ट्र के निर्माण में उसका इतिहास, उसे लेकर गर्व की अनुभूति और उसे बनाए रखने का संकल्प मुख्य तत्व होते हैं। और राष्ट्र से अधिक ये हमारे काम आते हैं। व्यक्ति का अपना अर्जन उसे थामने के लिए पर्याप्त नहीं है। उसे हमेशा कुछ बड़ा चाहिए। हम निजता की बातें तो करते हैं लेकिन हमें समूह की हमेशा दरकार रहती है।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वो चाह कर भी निजी नहीं हो सकता। अलग रहने के लिए परम वैराग्य की ज़रtरत पड़ती है, जो आम बात नहीं है। इसलिए अपने स्वैच्छिक व संवैधानिक समूह अपने देश भारत को सशक्त बनाने के लिए हर संभव प्रयास करें। अतीत से सीखना इस प्रयास का सबसे भरोसेमंद हिस्सा है, क्योंकि उसे परखा जा चुका है।

लेकिन दुनिया में तो अंग्रेजियत की तूती बोल रही है, इसलिए हम हर कीमत पर बस उन्हीं का अनुकरण करने में अपने आप को धन्य समझते हैं। हमें अपना गौरवशाली इतिहास याद नहीं आता। बल्कि हम तो अपनी भाषा भी भूल गए जो किसी सभ्यता की सबसे बड़ी पहचान होती है।

हमारे यहाँ बच्चा जिस भाषा को स्वाभाविक रूप से बोलता-समझता है, उसकी पढ़ाई सीधी उसी भाषा में शुरू नहीं होती। पहले उसको अपना समय और ऊर्जा एक दूसरी भाषा को सीखने में लगाना पड़ता है। उस भाषा से जूझ कर जो थोड़ा समय बचता है, वही पढाई में लगता है। उसके स्कूल की भाषा कुछ और है, घर की कुछ और। इसलिए आधे से अधिक समय भाषा उसकी समस्या है। इसका नुकसान भी हमें उठाना पड़ रहा है। इससे हम अगुआ नहीं बन रहे हैं। हम सिर्फ मातहत बनकर विदेशी कंपनियों के लिए अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। हमारी प्रतिभाओं को सृजन का अवसर कम मिल पाता है।

छोटे बच्चे को पैदा होने के बाद इस दुनिया से सामंजस्य बैठाने के लिए कितना परिश्रम करना पड़ता है। उसे कितना कुछ सीखना पड़ता है। हमारे लिए जैसे ये आफत कम न हो, हम दोहरा परिश्रम कर रहे हैं। हम एक बार अपनी मातृभाषा में पैदा होते हैं, उसके बाद हमें फिर से एक बार अंग्रेजी में पैदा होना पड़ता है। इतनी देर में उधर सृजन बड़ा हो जाता है, उसकी उम्र निकल जाती है। फिर बड़ी उम्र में पढ़ाई करने बैठे छात्र का जो हाल होता है, वही हमारा भी होता है, चाहे हम कितने ही प्रतिभाशाली क्यों न हों।

इस तरह हमारे देश में बच्चे समय पर ज्ञान प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि पढ़ाई की पूरी प्रणाली ही ऐसी है कि आपको देर से ही शिक्षा मिलेगी। पहले दूसरी भाषा सीखनी है, फिर पढ़ाई शुरू की जाएगी। उसमें भी आप मजबूर हैं, अपने सामर्थ्य को किसी और के स्थापित पैमानों पर कसने के लिए। समय, ऊर्जा, संसाधन, नैसर्गिक प्रतिभा सबको यथेष्ट व्यय करने के बाद जो बचता है, आप उसके साथ आगे बढ़ने के लिए स्वतंत्र हैं।

हमें असली घाटे का अंदाज़ा इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि अधिकांश तौर पर हमने अंग्रेजी बोलने को पढ़े-लिखे होने की पहचान मान रखा है। जिस दिन हमें अंग्रेजी और शिक्षा में फर्क करना आ जाएगा, उस दिन हम इस नुकसान को पहचान पाएँगे। नई शिक्षा नीति में प्राथमिक अध्ययन के लिए मातृभाषा की अनिवार्यता कुछ आशा जगा रही है।

हमारी मातृभूमि के पास हमें देने के लिए भाषा के साथ-साथ और भी बहुत कुछ है, जिसकी अभी तक उपेक्षा जारी है। शिक्षा का वो मातृ संस्कार कहीं गायब हो गया है, जिसके दम पर हम विश्वगुरु थे। इस ओर ध्यान देना कितना जरूरी है, ये हमारी समझदारी पर टिका है।

वैसे भी जहाँ छोटी-छोटी चीजों में हम संस्करण ढूँढ़ते हैं, कहीं क्षेत्र-विशेष के हिसाब से तो कहीं लोगों के आम झुकाव व अभिरुचि के हिसाब से, वहीं शिक्षा का भी हर देश का अपना संस्करण होना ही चाहिए। बहुत से देश ऐसा करते भी हैं, हमें भी इसकी जरूरत है। पूरी दुनिया में शिक्षा को सिर्फ एक ही लकीर पर नहीं चलाया जा सकता।

एक सामान्य सिद्धांत है कि व्यक्ति की स्वाभाविक विशेषताओं का प्रयोग करते हुए उससे काम लिया जाए तो उसकी ताकत कई गुना बढ़ जाती है। जैसे खिलाड़ी बहुत तरह के होते हैं। अलग-अलग खेलों को खेलते हैं। बल्कि एक ही खेल में भिन्न भूमिकाओं में भिन्न खिलाड़ी होते हैं। जैसे एक ही खेल क्रिकेट में कुछ बल्लेबाज फिरकी गेंदबाजों को अच्छा खेलते हैं तो कुछ तेज गेंदबाजों को। कुछ नंबर दो पर या तीन पर अच्छा खेलते हैं तो कुछ चार-पाँच पर। हैं सभी बल्लेबाज ही, किंतु खिलाड़ी का स्वाभाविक खेल और तरीका मायने रखता है।

शारीरिक बनावट और स्वाभाविक योग्यता खिलाड़ी की सफलता में बड़ा महत्व रखते हैं। जब एक खिलाड़ी की सफलता इतने सारे व्यक्तिगत बिंदुओं पर टिकी है तो क्या पूरब से लेकर पश्चिम तक के सब विद्यार्थियों को एक ही पैमाने पर कसा जा सकता है? उनके लिए अलग योजना होनी ही चाहिए।

मातृभाषा के अतिरिक्त किसी भाषा का थोपा जाना व्यक्तित्व में एक अपरिहार्य कृत्रिमता को भर देता है। बचपन से ही ये संस्कार मजबूत हो जाता है कि शिक्षित होने का मतलब अंग्रेजी में बोलना-समझना है, क्योंकि बच्चा अंग्रेजी में ही पढ़ रहा है। अपनी भाषा को तो वो घर पर बोल रहा है, वो भी पढ़ाई से अलग समय में। ऐसे में अंग्रेजी बोलना पढ़े-लिखे होने का पर्यायवाची बन जाए तो इसमें आश्चर्य क्या है? पढ़ा-लिखा कौन नहीं दिखना चाहता तो मजबूरन सबको अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजियत झाड़नी पड़ती है।

आज के दिन हमारे देश में हालत ये है कि एक पीएचडी धारी व्यक्ति अगर अंग्रेजी न बोल रहा हो और व्यवहार में वही घिसे-पिटे कृत्रिम तौर-तरीके प्रदर्शित न कर रहा हो तो सीधे तौर पर अनपढ़ समझा जाएगा। ऊपर से अगर उसने धोती-कुर्ता पहन रखा हो तो गई डिग्री ब्लैक होल में। ये सब कितनी खोखली बाते हैं। शिक्षा के लिए एक बड़ी हानि है। इसलिए नई शिक्षा नीति में प्रारंभिक अध्ययन में मातृभाषाओं को वरीयता देना एक विवेकपूर्ण और अपरिहार्य कदम है। उसका स्वागत होना चाहिए।

न केवल भाषा किंतु अध्ययन सामग्री और अध्ययन प्रणाली की दृष्टि से भी हमारा बीता कल बहुत कुछ अपने भीतर समेटे हुए है। भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा में जो भी चीजें हैं, उन सबकी विशेषता यही है कि वो सरल, सूत्रात्मक, उपयोगी और आडम्बरशून्य हैं। आयुर्वेद, विज्ञान, वाणिज्य, गणित, अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र, भाषाशास्त्र, सभी शाखाओं में प्रपंच रहित शोध-अनुसंधान किए गए हैं। गहन तत्वों पर भी इतनी सरल विधि से चर्चा हुई है कि जितनी मेहनत करके आज की शिक्षा पद्धति विद्यार्थी को किसी एक शाखा का विशेषज्ञ बनाती है, उतनी मेहनत से वो कई विषयों में विशेषज्ञता प्राप्त कर सकता है। बुद्धिमत्ता युक्तियों के सरलीकरण में है, उन्हें जटिल बनाने में नहीं।

सूर्यसिद्धांत व आर्यभटीयम् में खगोल, भूगोल, अंकगणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति जैसे विषयों पर गहन अध्ययन हुआ है। ग्रहों की गति एवं उनके परिक्रमा पथ का आकलन, सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण आदि की जानकारी, ग्रहों-उपग्रहों की गति के अनुसार कालनिर्णय जैसे अनेक विशिष्ट विषय वहाँ उपस्थित हैं। लीलावती गणित के क्षेत्र की सुप्रसिद्ध रचना है। इसके अलावा कर व्यवस्था, राज व्यवस्था, न्याय व्यवस्था आदि से सम्बंधित अनेक ग्रन्थ हैं, जिनका परिचय छात्रों के लिए उपयोगी होगा। इन ग्रंथों में शैली की सरलता और विषयों की उदात्तता बहुत ही ग्राह्य है। 

भारत का दार्शनिक विवेचन पराकाष्ठा पर पहुँचा है। जीवन दर्शन लाजवाब है। तत्त्व चिंतन की इतनी समृद्ध परंपरा अपने घर में ही उपेक्षा का शिकार हो जाए तो इससे बड़ी जड़ता और क्या होगी? हमें इस लापरवाही से जितनी जल्दी हो सके बाहर निकलना चाहिए। भारतीय दर्शन भारतीय मनीषा का सर्वोत्कृष्ट बिंदु है। साथ ही काव्यशास्त्रीय मीमांसा भी उच्च कोटि की है। दुनिया की किसी भी दर्शन-शास्त्र परंपरा के साथ भारत की इस परंपरा का तुलनात्मक अध्ययन करके देखें, आपको उससे ज्ञान तो मिलेगा ही साथ ही नि:संदेह गर्व की अनुभूति होगी। हमारे नीति निर्माताओं को इस पर ज़रूर ध्यान देना चाहिए और इन्हें पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना चाहिए।    

वास्तुकला में भारत की उपलब्धियाँ देखें तो यद्यपि विदेशी आक्रांताओं और हमारी उपेक्षाओं ने बहुत कुछ ध्वस्त कर दिया है, फिर भी भारत की स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने अभी भी हमें आश्चर्य चकित करते हैं। अगर आज हमें उन्हें वैसा ही बनाने की चुनौती मिले तो हम नहीं बना सकते। लेकिन इन कलाओं को भी विद्यार्थी किताबों में नहीं पढ़ते। आप केवल उन स्थलों पर जाकर उन्हें देख सकते हैं। ये सभी चीजें उपेक्षा की शिकार हुई हैं।

योग के चमत्कार को तो पूरी दुनिया मान ही चुकी है। वैसी ही सर्वसुगमता और सार्वभौमिकता भारत की प्राचीन विद्या की हर शाखा की विशेषता है। आयुर्वेद के ऐसे कितने ही योग और सामान्य नियम हैं, जिनका बचपन से ही बच्चों को ज्ञान कराया जाए तो डॉक्टर के पास जाने की सत्तर-अस्सी प्रतिशत जरूरत ख़त्म हो जाएगी। रोगों से बचने के उपाय और अनेक रोगों की चिकित्सा के सरल तरीके पाठ्यक्रम के माध्यम से दिनचर्या का हिस्सा बन सकते हैं।

स्वास्थ्य संबंधी अधिकांश समस्याएँ विरुद्ध आहार की उपज हैं। पथ्य-अपथ्य की अनभिज्ञता व्यक्ति को आ बैल मुझे मार की दशा में पहुँचा देती है। छोटी-छोटी बातों की अनभिज्ञता के कारण हम अपने स्वास्थ्य की हानि स्वयं करते रहते हैं। स्वस्थ जीवनचर्या बाद में सीख कर समझने की चीज़ नहीं है। जिस नियम का हमें दिन रात पालन करना है, उसे बचपन से सीखना होगा।

अध्ययन की सभी शाखाओं में प्राचीन विधाओं का ज्ञान उपयोगी है। यह कोरे आदर्शवाद की बात नहीं है। अपने देश भारत के संदर्भ में ही देखें तो शिक्षा में प्राचीन का समावेश बहुत ही उपयोगी है। ऐसा न करके हम अपने सदियों के अनुभव, निष्कर्षों, अनुसंधानों और आविष्कारों को शून्य कर देते हैं। हर अच्छी चीज़ की चरितार्थता उसकी उपयोगिता में होती है। इसलिए हमें अपनी सदियों की साधना को जाया नहीं होने देना चाहिए।

चीन इस विषय में अनुकरणीय है। चीन अपने पारंपरिक ज्ञान का कितना सम्मान करता है, उसे आप इस एक बात से ही समझ सकते हैं कि वहाँ आधुनिक चिकित्सा के छात्रों के लिए परम्परागत चीनी चिकित्सा पद्धति का अध्ययन अनिवार्य है। हमारे यहाँ एमबीबीएस के साथ आयुर्वेद के अध्ययन के बारे में सोचना भी बेवकूफी या अति उत्साह की श्रेणी में गिना जाएगा। 

चीन का माल चाहे न लें पर चीन से सीख जरूर लें। उन्हीं की तरह आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ प्रत्येक विषय से संबंधित कुछ प्राचीन अंश को भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाएँ तो बच्चे बचपन से अपने पुरखों के ज्ञान से परिचय पा लेंगे। प्राचीन और नवीन के संगम से वो परिणाम निकलेंगे, जो अभी तक देखे-सुने नहीं गए।  

अतीत हमारे बीच में गाथाओं, किंवदंतियों, मुहावरों, प्रणालियों, शैलियों, रिवाजों, परम्पराओं, मान्यताओं या लिखित साहित्य किसी भी रूप में हो सकता है। यदि हम इनके लिखित स्रोतों पर निर्भर करते हैं तो कोई न कोई भाषा ही इनके सम्प्रेषण का माध्यम है। इस दृष्टि से भारत ने अपना अधिकांश समय संस्कृत या संस्कृत जन्य भाषाओं में ही बिताया है। इसलिए स्वाभाविक रूप से हमारे अतीत के ताले में संस्कृत की चाभी सही बैठेगी।

ज्ञान का अगाध भंडार इस भाषा में लिखे साहित्य में छुपा हुआ है लेकिन हम उसका कोई उपयोग नहीं ले पाते हैं, क्योंकि ऐसा होने में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि जो बच्चे संस्कृत पढ़ते हैं, वे विज्ञान-गणित नहीं पढ़ते, जो विज्ञान पढ़ते हैं वे संस्कृत नहीं पढ़ते। संस्कृत छात्रों के पाठ्यक्रम में भी अधिकतर साहित्य और व्याकरण का अंश ही निर्धारित है, क्योंकि संस्कृत को एक भाषा के रूप में ही पढ़ा जा रहा है। इसलिए संस्कृत छात्र भी एक सीमा में बंधे हुए हैं। ऐसे में वर्त्तमान शिक्षा अलग दिशा में चलती है और प्राचीन को लेकर हमारा गर्व अलग दिशा में चलता रहता है। दोनों में कोई तालमेल नहीं है। इन दोनों को मिला दिया जाए तो अद्भुत परिणाम सामने आएँगे।

अनेक बार ख़बरें आती हैं कि नासा में संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों पर शोध चल रहा है। जर्मनी में शोधकर्ता शोध में लगे हुए हैं। क्या हमें ये करना मना है? जब अमेरिका हमारे ग्रंथों से कोई बड़ी खोज कर लेगा, तब हम ये हास्यास्पद दावा करेंगे कि अरे! ये तो हमारे यहाँ पहले से ही था। हमारे घर के सोने से कोई और आभूषण बनाकर पहन ले और हम ईर्ष्याग्रस्त हो उठें, इससे अच्छा है पहले ही जाग जाएँ। आधुनिक पाठ्यक्रम के साथ उस-उस विषय से संबंधित प्राचीन ग्रंथों को शामिल करना शुरू करें या और कोई उपाय करें। और हाँ, इसे शिक्षा का भारतीयकरण कहते हैं, भगवाकरण नहीं।

एक शिक्षा का भारतीय संस्कार भी है, जिस पक्ष पर ध्यान देकर हम मानव समाज के रूप में अपने जीवन को समरस और आसान बना सकते हैं। भारत में विज्ञान और अध्यात्म की समान प्रगति किंतु अध्यात्म की अधिक अनुशंसा और संस्तुति हमारे उपभोक्तावाद के पैरों को संसाधनों की चादर के हिसाब से फैलने में मदद करती है। वर्ना बेतहाशा उपभोग सामग्री को जुटाने की होड़ में हमने उस धरती को ही खोखला करना शुरू कर दिया, जो हमारे टिकने का आधार है। मेज को शाही लुक देने के लिए कुर्सी को तोड़कर अतिरिक्त लकड़ी जुटानी पड़े तो बैठेंगे कहाँ?

जीवन जीने की पहली शर्त है कि आप अपनी नाक से ठीक तरह से प्राणवायु लेते रहें। ताकि आप जिंदा रहने पर कुछ कर पाएँ। लेकिन आज की शिक्षा न तो धैर्य सिखा रही है न संतोष। थोड़ी सी विपरीत स्थिति में ही बहुमूल्य जीवन इस दुनिया से विदा लेने के लिए अपने हाथों से अपना दम घोंट लेते हैं। भारतीय समाज में अभी भी कुछ मूल्य स्कूली शिक्षा के बिना जिंदा हैं। जिस दिन दादा-दादी और नाना-नानी भी आज की वो पीढ़ी बन जाएगी, जो पाश्चात्य सभ्यता के अन्धानुकरण में अपनी शेखी मानती है, उस दिन से हमारे देश में तनाव और निराशा का ग्राफ पश्चिमी देशों से होड़ करने लगेगा।

प्राचीन भारत में विद्या दान का एक नियम यह भी था कि अपात्र को विद्या नहीं दी जा सकती। मानवीय संवेदनाओं, मूल्यों से रहित व्यक्ति शिक्षा का अधिकारी नहीं था, क्योंकि उसके माध्यम से विद्या का दुरूपयोग होने की पूरी सम्भावना होती है। सीटीबीटी, एनपीटी, क्योटो प्रोटोकॉल, पेरिस समझौता आदि संधियाँ इन्हीं चिंताओं का अद्यतन रूप हैं।

हम देख सकते हैं कि पदार्थ विज्ञान को सर्व सुलभ बनाकर दुनिया दो सौ साल बाद ही खतरे में पड़ गई। कहीं परमाणु हमलों का खतरा तो कहीं वायरसों की मार है। इस दुनिया के लिए एक किम जोंग ही काफी है। खतरनाक हथियारों तक एक आतंकी सोच की पहुँच इसे चुटकियों में तबाह कर सकती है।

मानवीय प्रवृत्तियों की गहरी समझ रखने वाली भारतीय सभ्यता ने बड़ी ज़िम्मेदारी से प्रतिभा के शैतानीकरण को रोक कर दुनिया को विध्वंस से बचा कर रखा। उससे सीख लेकर हम विद्यार्थी काल से ही बच्चों में सर्वहित और मानवता की भावना जगाने वाली शिक्षा पर बल दे सकते हैं। अन्यथा मानव को बनाने वाली शिक्षा ही मानवता का सर्वनाश करने पर तुल जाएगी। विद्या दान के साथ मानवीय मूल्यों का प्रबल प्रशिक्षण बहुत जरूरी है।   

हम भारत का मूल्यांकन तुलनात्मक रूप से करें तो ‘हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी..’ की स्थिति में पहुँच जाएँगे। कम से कम अब भी आँख खोलकर हम देखें कि एक देश, जिसने हमें तथ्यों के विपरीत गडरियों का देश कहा, वो स्वयं कभी मछुआरों का देश हुआ करता था। ये बात उनके नाम में लिखी है। England शब्द angul और lond से बना है। पहले Anglalond और फिर England. जहाँ angul का मतलब है hook यानी मछली पकड़ने का काँटा और angles मतलब hook-men यानी मछुआरे।

जबकि भारत का प्राचीन नाम आर्यावर्त था। जिसका मतलब ही है श्रेष्ठ-कर्मशील लोगों का देश। किंतु अपनी कर्महीनता से हमने उस स्थिति को खो दिया, जबकि कर्मशीलता के बल पर अंग्रेजों ने दुनिया पर राज किया।

दुनिया को हड़प्पा जैसी विकसित सभ्यता देने वाले देश पर हड़पने की सभ्यता को थोंपा और फिर भी सभ्य कहलाया। ये सब परिश्रम और राष्ट्रीय एकता के बल पर संभव हुआ और हम अकर्मण्यता से सब कुछ हार बैठे। अभी भी हमें मानसिक रूप से उस प्रभाव से बाहर आकर खुद को पहचानने की आवश्यकता है।

व्यापक रूप में अपने प्राकृतिक सामर्थ्यों और देशी संभावनाओं को पहचानना है। इसे सिर्फ शिक्षा के माध्यम से ही सही तरह से प्राप्त किया जा सकता है। नई शिक्षा नीति के साथ नए पाठ्यक्रम की भी तैयारी है। काश हम उसमें शिक्षा के भारतीयकरण पर भी ध्यान दें। ताकि भारत भारत बन जाए।  

लोकल के लिए वोकल होने और आत्मनिर्भर होने का संबंध सिर्फ आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित न हो बल्कि उसे अपनी परम्पराओं को बचाने-बढ़ाने में भी प्रयोग किया जाए। प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन को भी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। जिससे हमारा प्राचीन ज्ञान फिर से प्रासंगिक बने, वही ज्ञान जिसके दम पर भारत कभी विश्वगुरु कहलाया।

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Dr. Amita
Dr. Amita
डॉ. अमिता गुरुकुल महाविद्यालय चोटीपुरा, अमरोहा (उ.प्र.) में संस्कृत की सहायक आचार्या हैं.

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