वो 26 जून, 1987 का दिन था। स्थान – सियाचिन ग्लेसियर। भारत की सबसे कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में ‘जम्मू कश्मीर लाइट इन्फेंट्री (JAK LI)’ के नायब सूबेदार बन्ना सिंह (Naib Subedar Bana Singh) ने खुद के कंधों पर एक जिम्मेदारी ली। ये जिम्मेदारी थी उस टास्क फोर्स में शामिल होना, जिसे पाकिस्तानी फ़ौज द्वारा कब्ज़ा में लिए गए ‘क़ाएद पोस्ट’ को खाली कराना था। 21,000 फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित सियाचिन ग्लेशियर के माहौल में उन्होंने ये कारनामा कर दिखाया, वो भी तब तक तापमान -50 डिग्री सेल्सियस को छू रहा था।
इतना ही नहीं, लगातार बर्फीले तूफ़ान चल रहे थे और ऑक्सीजन की कमी के कारण खुद को ज़िंदा रखना ही एक बहुत बड़ी चुनौती थी। विजिबिलिटी काफी बुरी थी, अर्थात कुछ दिख नहीं रहा था। ऐसे में ‘JAK LI’ के 8 जवानों ने बर्फ से बनी 457 मीटर (1500 फ़ीट) ऊँची दीवार पर चढ़ कर इसे लाँघने का निर्णय लिया। इस ऊँचाई पर पहुँचने में वो कामयाब भी रहे और वहाँ स्थित दुश्मन की पोस्ट को ग्रेनेड्स की बमबारी से तबाह कर दिया। भारत के पराक्रमी जवानों ने अपनी बंदूकों में लगे धारदार हथियारों से ही कई पाकिस्तानी फौजियों को मौत के घाट उतार दिया।
कई पाकिस्तानी फौजी तो अपनी जान बचाने के लिए डर के मारे ऊपर से ही कूद गए। पाकिस्तान का बंकर भारतीय सेना ने तबाह कर दिया। अति प्रतिकूल परिस्थितियों में भी विशिष्ट वीरता और उत्कृष्ट नेतृत्व का प्रदर्शन करने के लिए नायब सूबेदार बन्ना सिंह को परमवीर चक्र से नवाजा गया। 1988 को गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) के मौके पर उन्हें पुरस्कृत किया गया। बन्ना सिंह मूल रूप से जम्मू के रणबीर सिंह पोरा तहसील में स्थित कदयाल गाँव के रहने वाले हैं।
उनके पिता का नाम अमर सिंह और माता का नाम भोला देवी था। उन्होंने बर्फ की दीवारों से घिरी सियाचिन ग्लेशियर पर पाकिस्तानी पोस्ट को जिस तरह से अति प्रतिकूल परिस्थितियों में भी तबाह किया, उससे उनकी बहादुरी का पता चलता है। भारत ने पाकिस्तान द्वारा नामित किए गए ‘क़ाएद पोस्ट’ की जगह उस चोटी का नाम नायब सूबेदार के सम्मान में ‘बन्ना पोस्ट’ रखा। उनका परिवार लुबाना सिख समुदाय से ताल्लुक रखता है, जहाँ उनके पिता किसान थे, उनके चाचा लोग पहले से भारतीय सेना में सेवा देते रहे थे।
उन्होंने 6 जनवरी, 1969 से ‘JAK LI’ की आठवीं बटालियन में सेवा देना शुरू किया। गुलमर्ग में 1948 में स्थापित किए गए ‘हाई ऑल्टीट्यूड वॉरफेयर स्कूल (HAWS)’ में उनका प्रशिक्षण संपन्न हुआ। 16 अक्टूबर, 1985 को बन्ना सिंह को हवलदार से नायब सूबेदार के रैंक पर प्रमोट किया गया। इसके दो साल बाद ही उन्होंने ‘ऑपरेशन राजीव’ में अपनी बहादुरी का परिचय दिया। 6 जनवरी, 1949 को जन्मे बन्ना सिंह 20 अक्टूबर, 1996 को मेजर के रूप में प्रमोट किए गए और 31 अक्टूबर, 2000 को वो कैप्टन के रूप में रिटायर हुए।
ऑपरेशन राजीव: सियाचिन ग्लेशियर और पाकिस्तान की फजीहत
सियाचिन ग्लेशियर पर स्थित ‘एक्चुअल ग्राउंड पोजीशन लाइन (AGPL)’ पर नियंत्रण के लिए जून 1986 में ‘ऑपरेशन राजीव’ को अंजाम दिया गया था। 1984 में ‘ऑपरेशन मेघदूत’ के दौरान भारत ने इस क्षेत्र पर नियंत्रण लिया था, लेकिन अप्रैल 1986 में पाकिस्तान यहाँ आ जमा। वहाँ से वो पूरे सलतोरो-सियाचिन के पूरे क्षेत्र को देख सकते थे। कई बार भारत ने प्रयास किया, लेकिन अंत में बन्ना सिंह के नेतृत्व में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को वहाँ से उखाड़ फेंका। भारतीय सेना के सेकेंड लेफ्टिनेंट रहे राजीव पांडेय के नाम पर इसे ‘ऑपरेशन राजीव’ नाम दिया गया था। इसी चोटी पर नियंत्रण के प्रयास में वो बलिदान हुए थे।
26 जून, 2019 को इस युद्ध की बरसी पर भारतीय सेना ने सोशल मीडिया पर इसकी जानकारी देते हुए लिखा था, “असम्भव भी सम्भव… 26 जून, 1987 को नायब सूबेदार बन्ना सिंह ने सियाचिन में अपनी टोली के साथ सैकड़ों मीटर ऊँची खड़ी बर्फ की दीवार चढ़ कर पाकिस्तान के काएद चौकी पर कब्ज़ा किया। आज उसे बाना पोस्ट के नाम से जाना जाता है। पुरस्कृत परमवीर चक्र” बता दें कि ‘क़ाएद पोस्ट’ का नाम पाकिस्तान में ‘कायदे आजम’ नाम से जाने जाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना के सम्मान में रखा गया था। 1987 में जून ही नहीं, सितम्बर-अक्टूबर में ही एक और एनकाउंटर हुआ था। उसकी भी चर्चा कर लेते हैं।
‘असम्भव भी सम्भव’
— ADG PI – INDIAN ARMY (@adgpi) June 26, 2019
26 जून 1987
नायब सुबेदार बाना सिंह ने सियाचिन में अपनी टोली के साथ सैंकड़ों मीटर ऊंची खड़ी बर्फ की दीवार चढ़ कर पाकिस्तान के काएद चौकी पर कब्ज़ा किया। आज उसे बाना पोस्ट के नाम से जाना जाता है।
पुरस्कृत #परमवीर चक्रhttps://t.co/GsbNANcKi6 pic.twitter.com/esmhdpvDmO
उस चोटी का नाम है ‘बिलाफोंड ला (Bilafond La)’, जहाँ भारतीय सेना ने कई दिनों से डेरा डाला हुआ था। करीब 20,000 फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित इस इलाके और इसके आसपास हमेशा बर्फ जमी रहती है। भारतीय सेना यहाँ से सियाचिन ग्लेशियर पर नजर रख रही थी और आशंका थी कि नीचे से पाकिस्तानी फ़ौज हमला करेगी। दूरबीन के जरिए वो पाकिस्तानियों पर नजर रख रहे थे, जिन्होंने पहले से कहीं ज्यादा हथियार और खाद्य सामग्रियाँ अपने साथ रखी हुई थीं।
भारतीय सैनिकों ने अनौपचारिक रूप से ही पाकिस्तानियों को सूचित किया कि वो किसी प्रकार का कोई हमला न करें। लेकिन, पाकिस्तानी फ़ौज ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया और 23 सितम्बर, 1987 को उन्होंने भारतीय पोस्ट पर मोर्टार शेल्स से हमला बोलना शुरू कर दिया। चारों तरफ से घेर कर भारतीय सैनिकों पर मोर्टल शेल्स दागे जाने लगे। साथ ही वो लम्बी दूरी की मिसाइलें भी छोड़ रहे थे, इस उम्मीद में कि भारतीय पक्ष का ज्यादा से ज्यादा नुकसान हो।
लेकिन, भारतीय सैन्य अधिकारी और जवान इसके लिए पहले से तैयार थे। रात को पाकिस्तानियों ने भारतीय जवानों पर दावा बोलने की कोशिश की, लेकिन उनकी इस छापेमारी को अगली 2-3 रातों तक विफल किया जाता रहा। 25 सितम्बर को पाकिस्तानी फ़ौज पीछे हट गई। उस समय प्रकाशित ‘इंडिया टुडे’ की एक खबर के अनुसार, भारतीय सेना ने 150 पाकिस्तानी फौजियों को मार गिराने और इतनी ही संख्या में घायल किए जाने की जानकारी दी थी।
हालाँकि, इस युद्ध में सूत्रों के हवाले से 20 से 50 भारतीय जवानों के वीरगति को प्राप्त होने की बात कही गई थी। 1984 में ही पाकिस्तान ने सियाचिन ग्लेशियर पर स्थित रणनीतिक बिंदुओं पर अपने पोस्ट्स स्थापित कर लिए थे। एक भारतीय सैन्य अधिकारी के शब्दों में ही कहें तो ये पाकिस्तान के लिए ‘करो या मरो’ वाली स्थिति बन गई थी, जिसका परिणाम ‘मरो और कुछ नहीं करो’ के रूप में हुआ। पाकिस्तान के तत्कालीन रक्षा मंत्री राना नईम महमूद ने इस युद्ध में भारत के दावे को नकार दिया था और अपने फौजियों के मरने की खबर को निरर्थक करार दिया था।
लेकिन, पाकिस्तानी अख़बारों ने ही उनकी पोल खोल दी और जानकारी दी कि भारतीय सेना ने अब उस स्थान को भी अपने नियंत्रण में ले लिया है, जहाँ कुछ ही दिनों पहले पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने दौरा किया था। पाकिस्तान ने जीत के दावे किए, लेकिन उनके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था कि किस क्षेत्र में कहाँ उन्हें फायदा हुआ है। सियाचिन के आसपास सभी पहाड़ियों पर भारतीय सेना ने डेरा डाल दिया था। ये ऐसी विषम जगह है, जहाँ सैनिक बन्दूक की गोली से ज्यादा गिरने से मरते हैं।
सितंबर-अक्टूबर में यहाँ धूप आने और बर्फ पिघलने के साथ ही पाकिस्तानियों की कारगुजारी शुरू हो जाती थी। 1984 में इसी को देखते हुए हैलिकॉप्टरों का इस्तेमाल कर के भारतीय सेना ने यहाँ निगरानी रखी हुई थी। पाकिस्तान को पता था कि उस समय भारत का श्रीलंका के साथ तनाव चल रहा है और तिब्बत में भी वो फँसा हुआ है, इसीलिए उसने हमले के लिए ये समय चुना। पाकिस्तान के राष्ट्रपति और जनरल रहे ज़ियाउल हक़ पर भी विपक्ष का दबाव था।
जून 1986 में सियाचिन में तिरंगा और बन्ना सिंह की बहादुरी और उनका जीवन
बन्ना सिंह ने खुद कई ग्रेनेड पाकिस्तानी फौजियों की तरफ फेंके थे। गोलीबारी के बीच वो फायरिंग करते हुए और ग्रेनेड फेंकते हुए आगे बढ़े थे। उन्होंने बंकर के दरवाजे पर ग्रेनेड फेंक कर इसे ध्वस्त किया और उसके साथ ही 6 पाकिस्तानी फौजी मारे गए। इसके बाद ‘हैंड तो हैंड’ लड़ाई हुई, जिसमें कई पाकिस्तानी फौजी खेत रहे। ये फौजी पाकिस्तानी इलीट सर्विसेज ग्रुप के ‘शाहीन कंपनी’ से ताल्लुक रखते थे। बाद में इसका पता चला। इसके बाद भारतीय सेना ने बंदूकों का निशाना पाकिस्तान की तरफ किया, जो इससे पहले दक्षिण की तरफ भारत की ओर मुड़ा हुआ था।
विजय हासिल करने के बाद भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तानी स्टोव का इस्तेमाल कर के ही चावल बनाया। पिछले 3 दिनों से उन्होंने कुछ खाया नहीं था और ये उन 3 दिनों में उनका पहला भोजन था। बाद में बन्ना सिंह ने बताया था कि भारतीय सैनिक भूख और युद्ध के कारण इतने बेचैन थे कि भाँगड़ा कर के जश्न मनाने लायक भी उनमें ताकत नहीं बची थी। उनका कहना था कि अगर थोड़ी भी सुस्ती हमने दिखाई होती, तो शायद पाकिस्तान वहाँ आने वाले कई वर्षों के लिए ‘क़ाएद’ पोस्ट पर बना रहता।
26 जून, 1987 के दिन भारत का झंडा सियाचिन ग्लेशियर पर फहरा रहा था। शाम के 5 बजे उन्होंने ये कारनामा कर दिखाया। कारगिल युद्ध के एक वर्ष बाद बन्ना सिंह भारतीय सेना में 32 वर्षों की सेवा के बाद रिटायर हुए। मेजर रामास्वामी परमेश्वरम के अलावा शांतिकाल में परमवीर चक्र पाने वाले वो अकेले सैनिक हैं। उनके बेटे राजिंदर सिंह ने भी वयस्क होते ही भारतीय सेना में शामिल होने का फैसला लिया। बन्ना सिंह को रिटायरमेंट के बाद जम्मू कश्मीर सरकार मात्र 166 रुपए का पेंशन देती थी, जिसका उन्होंने विरोध किया।
उन्होंने राज्य सरकार को कई बार याचिका भेजी, लेकिन इस पर कोई सुनवाई नहीं हुई। तब पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार ने उन्हें 10 लाख रुपए का सम्मान देने की घोषणा की। उससे पहले 20 वर्षों तक उन्हें सिर्फ वादे मिलते रहे, लेकिन काम नहीं हुआ। तब मुख्यमंत्री रहे कॉन्ग्रेस के गुलाम नबी आज़ाद से उनकी मुलाकात हुई, ‘J&K एक्स सर्विसमेन लीग’ ने उनकी बात उठाई, 4 सदस्यीय कमिटी बनी, लेकिन कुछ नहीं हुआ। तब पंजाब में परमवीर चक्र विजेता को 12,500 रुपए, हरियाणा में 10,400 रुपए और हिमाचल प्रदेश में 10,000 रुपए मिलते थे।
In 1987 when Pakistanis captured the Quaid Post , Which was highest peak at 6500 mtrs. in Siachen Glacier Area, From this feature Pakistanis could snipe at our army positions and have the clear view of soltoro range & siachen glacier. pic.twitter.com/DtPsxd4W4N
— TheBiker (@Bharat_Bhraman) July 9, 2020
जम्मू कश्मीर की सरकार ने उन्हें हिमाचल प्रदेश के बराबर पेंशन देने का वादा किया, लेकिन इस पर कोई एक्शन नहीं लिया गया। अक्टूबर 2006 में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सामान राशि का ऐलान किया और मार्च 2007 में तत्कालीन पंजाब सीएम प्रकाश सिंह बादल के हाथों उन्हें ये सम्मान प्राप्त हुआ। बन्ना सिंह ने तब कहा था कि हमारी सरकार कैसे देश के लिए अपना जीवन दाँव पर लगाने वाले सैनिकों के साथ व्यवहार करती है, ये आप देख सकते हैं। उनका कहना था कि जम्मू कश्मीर सरकार को इस मामले में संवेदनशील बनना चाहिए।