मध्य प्रदेश के उज्जैन स्थित महाकाल मंदिर से हिंदुओं की भावनाएँ अंतरात्मा से जुड़ी हैं। महाकाल मंदिर कोई आम मंदिर नहीं है। यह स्वयंभू मंदिर है। इसको लेकर कई मान्यताएँ हैं, जिसका जिक्र धार्मिक ग्रंथों किया गया है। हालाँकि, कालांतर में मुस्लिम आक्रमण ने हमले कर इसे ध्वस्त कर दिया, लेकिन बाद में इसका पुनर्निर्माण किया गया।
उज्जैन के महाकाल मंदिर में भगवान शंकर का शिवलिंग है। इन्हें श्री महाकालेश्वर के नाम से जाना जाता है, जो भारत में स्थित बारह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं। सम्राट विक्रमादित्य के समय से उज्जैन (तब अवंतिका) भारतीय समय की गणना का केंद्रबिंदु रहा। मंदिर के शिखर से कर्क रेखा गुजरती है, इसलिए इसे पृथ्वी का नाभिस्थल भी माना जाता है।
कहा जाता है कि महाकाल मंदिर में स्थित लिंगम् स्वयंभू (स्वयं पैदा हुआ) है, जो स्वयं के भीतर से शक्ति प्रदायी माना जाता है। यहाँ भगवान महाकालेश्वर दक्षिणाभिमुखी हैं। यह तांत्रिक परंपरा की एक अनूठी विशेषता है, जो 12 ज्योतिर्लिंगों में सिर्फ महाकालेश्वर में है।
महाकालेश्वर ज्योर्तिलिंग की उत्पत्ति
पुराणों के अनुसार, एक समय उज्जयिनी में महाराजा चंद्रसेन का राज हुआ करता था। वे भगवान शिव के परम भक्त थे। भगवान शिव के गणों में मुख्य मणिभद्र राजा चंद्रसेन के मित्र हुआ करते थे। एक बार मणिभद्र ने राजा चंद्रसेन को एक चिंतामणि प्रदान की। इसमें अतुलनीय तेज था।
राजा चंद्रसेन ने मणि को अपने गले में धारण कर लिया। मणि को धारण करते ही पूरा प्रभामंडल जगमगा उठा। मणि की दिव्यता से राजा चंद्रसेन की यश और कीर्ति दूसरे देशों में भी फैलने लगी। राज्य में धन-धान्य बढ़ने लगा।
राजा चंद्रसेन की यश और कीर्ति को बढ़ता देखकर अन्य राजाओं ने मणि को प्राप्त करने का प्रयास किया, लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो पाए। कुछ समय बाद अन्य राजाओं ने मिलकर राजा चंद्रसेन पर आक्रमण कर दिया। इसकी जानकारी मिलते ही राजा चंद्रसेन भगवान महाकाल की शरण में जाकर ध्यानमग्न हो गए।
उसी दौरान एक विधवा अपने पाँच साल के छोटे बालक को साथ लेकर वहाँ दर्शन के लिए आई। राजा चंद्रसेन को ध्यानमग्न देखकर बालक प्रेरित हुआ। घर जाकर बालक ने एक पत्थर लिया और उसे अपने घर के एकांत स्थान में रखकर उसके ध्यान में मग्न हो गया। वह इतना लीन हो गया कि उसकी माता उसे बार-बार बुलाती रही, लेकिन बालक को इसका पता नहीं चला।
बालक के व्यवहार से क्रुद्ध होकर महिला ने उसे पीटना शुरू कर दिया और पूजा का समान उठाकर फेंक दिया। बालक को जब चेतना आई तो वहाँ का दृश्य देखकर वह बहुत दुखी हुआ। अचानक वहाँ चमत्कार हुआ और वहाँ एक सुंदर मंदिर बन गया। मंदिर में एक दिव्य शिवलिंग विराजमान था। यह देखकर महिला आश्चर्यचकित रह गई। भगवान महाकाल तब ही से उज्जयिनी में विराजमान हैं। महाकाल को उज्जैन का राजाधिराज माना जाता है।
उसी दौरान भगवान महावीर प्रकट हुए और कहा कि इस शिवभक्त बालक की आठवीं पीढ़ी में यशस्वी नंद जन्म लेंगे और वे भगवान नारायण के अवतार के पालनहार बनेंगे। इस तरह इस मंदिर का निर्माण द्वापर युग के नंद जी के 8 पीढ़ी पहले हुआ।
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, ईस्वी पूर्व छठी शताब्दी में उज्जैन में राजा चंद्रप्रद्योत का शासन काल का उल्लेख मिलता है। इस मंदिर की व्यवस्था के लिए उन्होंने अपने पुत्र कुमार संभव को जिम्मेवारी दी थी। कालांतर में 10वीं शताब्दी के आसपास इस क्षेत्र पर परमार क्षत्रियों का शासन स्थापित हो गया और उन्होंने इस मंदिर की देखभाल की।
सम्राट विक्रमादित्य और महाकालेश्वर
विक्रम संवत की शुरुआत करने वाले उज्जैन के अधिपति सम्राट विक्रमादित्य का यहाँ 57 ईसा पूर्व में शासन था। सम्राट विक्रमादित्य माता हरसिद्धि के परमभक्त थे, जिनका मंदिर महाकाल मंदिर से थोड़ी दूरी पर है। वहीं, सम्राट की बहन राजकुमारी सुंदरा महाकाल की परमभक्त थीं।
कहा जाता है कि सम्राट विक्रमादित्य ने अपनी बहन सुंदरा को वचन दिया था कि वे उनकी शादी वैसी जगह कराएँगे जहाँ अवंतिका जैसा तीर्थ नगर और महाकाल जैसा मंदिर हो। इसके बाद उन्होंने कालीसिंध नदी के तट पर सुंदरगढ़ नामक गर बसाया। आज इसे सुंदरसी कहा जाता है, जो शुजापुर जिले में है।
सम्राट विक्रमादित्य ने सुंदरगढ़ में भव्य महाकाल मंदिर का निर्माण करवाया, ताकि विवाह के बाद उनकी बहन महाकाल की पूजा-अर्चना कर सके। इस मंदिर के चारों तरफ काल भैरव, नवग्रह, बड़े गणेश, चिंताहरण गणेश, गोपाल मंदिर का निर्माण भी कराया। नगर बस जाने के बाद सम्राट विक्रमादित्य ने अपनी बहन सुंदरा का विवाह कराया।
कहा जाता है कि शाजापुर के इस महाकाल मंदिर के गर्भगृह में एक गुफा है, जिससे राजकुमारी सुंदरा के स्नान के लिए उज्जैन के शिप्रा नदी का जल आता था। इस जलमार्ग का निर्माण सम्राट विक्रमादित्य ने कराया था। बाद में तपस्वी बाबा महाकाल के दर्शन करने के लिए इस गुफा के रास्ते उज्जैन जाते थे। अब इस गुफा को बंद कर दिया गया है।
सम्राट विक्रमादित्य के बारे में कहा जाता है कि उन्हें माता हरसिद्धि और माता बगलामुखी ने साक्षात दर्शन दिया था। आवंतिका नगरी की रक्षा इसके चारों ओर स्थित देवियाँ आज भी करती हैं। विक्रमादित्य से सिंहासन बत्तीसी और विक्रम बेताल की कथा भी जुड़ी है। विक्रमादित्य का वर्णन स्कंद पुराण और भविष्य पुराण में मिलता है।
मान्यता है कि विक्रमादित्य जैसा कोई न्यायप्रिय राजा नहीं हुआ। वह रात में वेश बदलकर अपनी प्रजा का हाल जानने निकलते थे। विक्रमादित्य के परलोक गमन के बाद यह नगरी महाकाल के अधीन हो गई। उन्हीं के अधीन रहकर राज करना होता था। महाकाल को उज्जैन का अधिपति कहा जाता है।
कहा जाता है अवंतिका क्षेत्र में वहीं राजा रात में रूक सकता है, जो विक्रमादित्य जैसा न्यायप्रिय हो। इसलिए आज भी कोई मंत्री-विधायक रात में उज्जैन में रूकने से डरते है। कहा जाता है कि जिसने भी ऐसा किया, अगले दिन उसकी कुर्सी चली गई या मौत हो गई।
कहा जाता है कि विक्रमादित्य का शासन श्रीलंका से लेकर तिब्बत, चीन, आज के तुर्कमेनिस्तान, ईरान और अरब तक था। अरब पर विक्रमादित्य के विजय का वर्णन अरबी कवि जिरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक ‘शायर उल ओकुल’ में किया है। यह किताब तुर्की की राजधानी इस्तांबुल की लाइब्रेरी मकतलब-ए-सुल्तानिया रखे होने की बात कही जाती है।
मुस्लिम आक्रांता इल्तुतमिश ने मंदिर तोड़वाया
इतिहाकारों के अनुसार, 11वीं सदी के आठवें दशक में गजनी सेनापति ने इस मंदिर पर हमला किया। इसके बाद 11वीं सदी के उत्तरार्ध व 12वीं सदी के पूर्वार्ध में राजा उदयादित्य और राजा नरवर्मा के शासनकाल में मंदिर का पुनर्निमाण किया गया।
भारत में जब मुस्लिम आक्रमणकारियों का राज कायम हुआ तब उनमें से एक इल्तुतमिश ने 1234-35 ईस्वी में इस मंदिर को ध्वस्त करा दिया था। कहा जाता है कि हिंदुओं ने ज्योतिर्लिंग को एक कुंड में छिपा दिया था। इसके बाद मुगल आक्रांता औरंगजेब ने इस स्थान पर मस्जिद का निर्माण करवा दिया।
इतिहासकारों के अनुसार, मंदिर को ध्वस्त कराने के बाद महाकाल ज्योतिर्लिंग को लगभग 500 वर्षों तक मंदिर के अवशेषों में ही पूजा जाता था। ग्वालियर-मालवा के तत्कालीन सूबेदार और सिंधिया राजवंश के संस्थापक राणोजी सिंधिया ने जब बंगाल विजय के दौरान उज्जैन में पड़ाव डाला। उन्होंने जब महाकाल मंदिर की दुर्दशा देखकर व्यथित हो उठे।
कहा जाता है कि उन्होंने अधिकारियों और उज्जैन के कारोबारियों को आदेश दिया कि बंगाल विजय से लौटने तक भव्य महाकाल मंदिर बनवा दी जाए। राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने अपनी आत्मकथा ‘राजपथ से लोकपथ पर’ में इसका जिक्र किया है।
राणोजी सिंधिया जब बंगाल विजय से वापस उज्जैन पहुँचे तो वहाँ औरंगजेब द्वारा निर्मित मस्जिद को ढहवा दिया और नवनिर्मित मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा कराकर महाकाल की पूजा-अर्चना की। इसके बाद उन्होंने उन्होंने सिंहस्थ कुंभ का फिर से आयोजन शुरू करवाया।
महाकालेश्वर मंदिर की बनावट
बारह ज्योतिर्लिंगों में तीसरे नंबर पर आने वाले महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर तीन खंडों विभक्त है। मंदिर के निचले खंड में महाकालेश्वर, बीच में ओंकारेश्वर तथा सबसे ऊपर वाले खंड में नागचन्द्रेश्वर के शिवलिंग प्रतिष्ठ हैं।
महाकालेश्वर मंदिर के शिखर के तीसरे तल पर भगवान शंकर और माता पार्वती नाग के आसन बैठी हुई हैं। यहाँ एक शिवलिंग भी है। इस सुन्दर और दुर्लभ प्रतिमा का दर्शन सिर्फ नागपंचमी के दिन होते हैं।
कोटि तीर्थ कुण्ड के पूर्व में एक विशाल बरामदा है। यहीं से महाकालेश्वर मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश का रास्ता है। इस बरामदे के उत्तरी छोर पर भगवान राम और देवी अवन्तिका की आकर्षक प्रतिमाएँ हैं। गर्भगृह के पश्चिम, उत्तर और पूर्व में गणेश, पार्वती और कार्तिकेय के चित्र स्थापित हैं। दक्षिण में नंदी की प्रतिमा है। दीवारों पर चारों ओर शिव की मनोहारी स्तुति अंकित है।