Thursday, March 28, 2024
Homeविविध विषयअन्यचापाकल माफ करना! मैं बचपन से बेवजह तुम्हे कॉन्ग्रेस के नाम करता रहा

चापाकल माफ करना! मैं बचपन से बेवजह तुम्हे कॉन्ग्रेस के नाम करता रहा

हम अपनी स्मृतियों में बेवजह बहुत सारी अच्छी चीजों का श्रेय कॉन्ग्रेस को देकर बैठे हैं, जबकि उसका इससे दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं। इतिहास को केवल पाठ्यपुस्तकों में ही दुरुस्त करने की जरूरत नहीं... स्मृतियों के तथ्यों को भी खँगालने की जरूरत।

बिहार के मधुबनी जिले का एक गाँव है नवटोली। वैसे तो जिले में कई नवटोली हैं, लेकिन मैं जिसकी बात कर रहा, वह बेनीपट्टी प्रखंड के नगवास पंचायत में है। ये मेरा पैतृक गाँव है। 7 अगस्त की रात दिल्ली से गाँव पहुँचा। घर के बाहर की स्ट्रीट लाइट जल नहीं रही थी। चौंकिएगा मत! अब विकास की किरण गाँवों तक भी इतनी पहुँच चुकी है कि बिजली के खंभों पर बल्ब लगे हैं। हाँ, उनकी बत्ती का रोशन रहना आप पर निर्भर है। जरूरी है कि आप उसका ध्यान रखें और बीच-बीच में कुछ छोटा-मोटा हो जाए तो जेब से भी खर्च कर दें। सरकार भरोसे रहे तो बत्ती गुल ही रहेगी।

इस बल्ब को ठीक करने के लिए बिजली मिस्त्री को बुलाया गया जो पड़ोस के गाँव का है। उस वक्त दरवाजे पर कई लोग बैठे थे। पिता जी साथ गाँव आए हैं तो बैठे लोगों में बुजुर्ग भी थे। एक तो करीब 100 साल के वृद्ध हैं उनमें। बरही से एक साहब भी आए हुए थे। हाल ही में रिटायर हुए हैं। मोटे और खाए-पीए हैं। गाँव में कोठी बनवा रहे हैं। बात शुरू हुई जल निकासी की। गाँव के घर में इस्तेमाल होने वाला पानी हम यूँ ही नहीं बहाते, जैसे अमूमन गाँवों में दिखता है। हमने इसके सीधे जमीन के भीतर जाने की व्यवस्था कर रखी है। अब धीरे-धीरे गाँवों में भी जल निकासी और ग्राउंड वाटर लेवल के गिरते स्तर को लेकर जागरुकता आ रही है तो पता चला कि पिछले दो-चार साल में मकान बनवाने वाले कई लोगों ने मेरे घर में बने इस सोख्ता का अनुसरण किया है और वे साहब भी ऐसा करने जा रहे हैं।

सोख्ता से बात चापाकल (Hand pump) गड़वाने पर आई। साहब ने लाल कक्का से पूछा कि किससे गड़वाएँ? इसी बीच बिजली मिस्त्री मेरे घर के सामने लगे चापाकल की तरफ इशारा करते बोल पड़ा- हमलोग सुनते हैं कि सबस पहिल कल यैह छई (सबसे पहला चापाकल यही है)। मैंने मन ही मन सोचा बेवकूफ है ये तो दस साल पहले ही गड़ा है। फिर शतायु बुजुर्ग ने उस चापाकल की ओर इशारा किया जो लाल कक्का के घर के सामने गड़ा है, जिसकी तस्वीर ऊपर लगी है।

अब चौंकने की बारी मेरी थी। इस चापाकल को मैंने बचपन से देखा है। पहले यह दालान (जिसका अब ​अस्तित्व नहीं) पर था। जब बड़का कक्का रिटायर हुए और बँटवारा हुआ तो जमीन का वह टुकड़ा उनके हिस्से चला गया और चापाकल लाल कक्का के हिस्से आया। उस वक्त इस चापाकल को जगह बदलते देखा था। मेरे बचपन के दिनों में गाँव में गिने-चुने लोगों के पास ही चापाकल था। वो सारे भी सरकारी थे। कॉन्ग्रेस राज में जब कभी जनप्रतिनिधि हमारे गाँव आते तो मेरा दालान उनका ठिकाना होता था। पिताजी को ऐसे कई मौकों पर चापाकल के लिए पैरवी करते और उन्हें लगते देखा था। आज वे सारे चापाकल प्राइवेट प्रॉपर्टी हैं। खैर अब चापाकल कोई दुर्लभ वस्तु भी नहीं रही तो किसी को इससे फर्क भी नहीं पड़ता। घर-घर में है चापाकल। साथ में हर घर नल जल योजना भी। लिहाजा अपने दालान पर लगे चापाकल को लेकर भी मेरा मानना था कि यह कॉन्ग्रेस जमाने के किसी फंड से आई है। इस चापाकल पर मैंने हर वक्त लगने वाला जमावड़ा भी देखा है। आसपास के कई घर इसके ही भरोसे थे।

पर कभी सोचा नहीं था कि ये गाँव का सबसे पुराना चापाकल होगा। कभी घर के किसी बुजुर्ग ने भी इस बात की चर्चा नहीं की थी। उस दिन जब बात चली तो शतायु के करीब हुए वे वृद्ध खतिहान खोलकर बैठ गए। इतिहास खुलना शुरू हुआ तो कई भ्रम एक साथ टूट गए। पता चला कि यह चापाकल पहली बार वहाँ गड़ा भी नहीं था, जहाँ इसे मैंने देखा था। यानी मेरे पैदा होने से पहले भी इसने जगह बदली थी। उन्होंने जो जगह बताई, जमीन का वो टुकड़ा अब मेरे हिस्से में है और मेरे परदेस रहने के कारण वहाँ जंगल है। इसकी पुष्टि मेरे पिता सहित वहाँ मौजूद उन सभी लोगों ने की जो जीवन के छठे या सातवें दशक में हैं। उस वृद्ध ने बताया कि इस चापाकल को गाड़ने के लिए लोग कलकत्ता से आए थे। सारे सामान भी वहीं से आए थे। किसी कारणवश फिल्टर लाना लोग भूल गए। चापाकल को गाड़ने से पहले फिल्टर की स्थानीय बाजार में तालाश शुरू हुई। कई बाजार घूमने के बाद जयनगर में फिल्टर मिला था।

फिर उन्होंने इसे गाड़ने का जो तरीका बताया वो सुनकर बेहद श्रमसाध्य लगा। करीब तीन दशक पहले जैसे चापाकल को गड़ते देखा था उससे भी कठिन। आजकल तो ये फटाफट का काम ही समझ लीजिए। उनके अनुसार उस समय चापाकल को गड़ते देखने के लिए दूर-दूर से लोग आए थे।

गाँव का वो बल्ब, जिसकी वजह से चापाकल का इतिहास सामने आया

फिर भी यह विश्वास नहीं हो रहा था कि यह पहला चापाकल होगा। मैंने आसपास के कुछ पुश्तैनी अमीरों के नाम लिए। पता चला कि इनके यहाँ चापाकल तो साठ और सत्तर के दशक के लोगों ने लगते देखा है। फिर परजुआर के एक पुराने धनाढ्य रमाकांत झा की चर्चा हुई। उन शतायु बुजुर्ग ने बताया कि तीन साल लगातार सूखा पड़ा था। सारे कुएँ-तालाब सूख गए थे। मेरे गाँव का बड़का पोखर, जिसे मैंने अपने पूरे जीवन लबालब भरा ही देखा है, के लिए बताया कि सूख कर उसमें मोटी-मोटी दरारें हो गईं थी। उस वक्त रमाकांत झा का हाथी इस चापाकल के पास लाया जाता था। बाल्टी भर-भर कर उसके साथ आए नौकर उसे पानी पिलाते थे। इस घटना के बाद उन्होंने भी चापाकल गड़वाया था। इसके लिए भी लोग कलकत्ता से ही बुलवाए गए थे। फिर आसपास के गाँवों के कुछेक लोगों के नाम आए और पता चला कि इनलोगों के यहाँ भी चापाकल उसी समय गड़ा था। कलकत्ता से आए वे कारीगर तब कई महीने तक इसी इलाके में रुके थे।

उन बुजुर्ग से पूछा कि ये कब की बात रही होगी तो उन्हें साल याद नहीं था। खैर साल तो उन्हें अपने पैदा होने का भी पता नहीं। जब पहली बार चापाकल गड़ा था तब वे खुद के 5-6 साल के होने का दावा करते हैं। गाँव में उनकी उम्र को लेकर जो अनुमान है और इस चापाकल को लेकर उन्होंने जो दावे किए उससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह चापाकल अपने उम्र के 90वें दशक में है। 75 साल के इसके होने में तो कोई संदेह ही नहीं दिखता, क्योंकि लाल कक्का का कहना है कि उनको जब से समझ है उन्होंने इस चापाकल को देखा है। हालाँकि इसके कल-पुर्जे बदलते कई बार मैंने भी देखे हैं। अब ‘विकास’ की वजह से इसे हैंडल मारने वाला भी कोई नहीं है। उपेक्षित पड़ा है।

हम देश की स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में प्रवेश करने जा रहे हैं। इस चापाकल ने गुलामी का वो दौर देखा है। इस चर्चा से यह एहसास हुआ कि हम अपनी स्मृतियों में बेवजह बहुत सारी अच्छी चीजों का श्रेय कॉन्ग्रेस को देकर बैठे हैं, जबकि उसका इससे दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। इतिहास को केवल पाठ्यपुस्तकों में ही दुरुस्त करने की जरूरत नहीं है। स्मृतियों के तथ्यों को भी खँगालने की जरूरत है।

5 पीढ़ियों का गला तर कर चुका ये चापाकल असल में 8 भाइयों में से उस एक के पुरुषार्थ का नतीजा था, जिसने दशकों पहले परिवार के लिए कलकत्ता जाने और वहाँ अपने ज्योतिष ज्ञान का उपयोग करने का फैसला किया था और मेरी यादों में अल्पज्ञान की वजह से कॉन्ग्रेस बरसों से इसका क्रेडिट लिए बैठी थी।

Special coverage by OpIndia on Ram Mandir in Ayodhya

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

अजीत झा
अजीत झा
देसिल बयना सब जन मिट्ठा

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

RSS से जुड़ी सेवा भारती ने कश्मीर में स्थापित किए 1250 स्कूल, देशभक्ति और कश्मीरियत का पढ़ा रहे पाठ: न कोई ड्रॉपआउट, न कोई...

इन स्कूलों में कश्मीरी और उर्दू भाषा में पढ़ाई कराई जा रही है। हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे आतंकवादियों के सहयोगी बनें या पत्थरबाजों के ग्रुप में शामिल हों।

‘डराना-धमकाना कॉन्ग्रेस की संस्कृति’: 600+ वकीलों की चिट्ठी को PM मोदी का समर्थन, CJI से कहा था – दिन में केस लड़ता है ‘गिरोह’,...

"5 दशक पहले ही उन्होंने 'प्रतिबद्ध न्यायपालिका' की बात की थी - वो बेशर्मी से दूसरों से तो प्रतिबद्धता चाहते हैं लेकिन खुद राष्ट्र के प्रति किसी भी प्रतिबद्धता से बचते हैं।"

प्रचलित ख़बरें

- विज्ञापन -

हमसे जुड़ें

295,307FansLike
282,677FollowersFollow
418,000SubscribersSubscribe