टोक्यो ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले नीरज चोपड़ा ने भारत के दिवंगत धावक मिल्खा सिंह को धरद्धजली दी है। उन्होंने अपने गोल्ड मेडल उन्हें समर्पित किया है। 18 जून, 2021 को 91 वर्ष की उम्र में भारत के ‘फ़्लाइंग सिख’ मिल्खा सिंह का निधन हो गया था। वो जब तक जीवित रहे, खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाते रहे और खेल को प्रोत्साहन देने के काम करते रहे। वो किसी पहचान के मोहताज नहीं। लेकिन, क्या आपको माखन सिंह याद हैं?
जी हाँ, धावक माखन सिंह। मिल्खा सिंह पर फिल्म भी बनी और उसने दुनिया भर में 200 करोड़ रुपयों से भी अधिक का कारोबार किया। इस भारतीय लीजेंड की गाथा घर-घर पहुँचनी भी चाहिए। लेकिन, माखन सिंह इस मामले में बड़े ही दुर्भाग्यशाली रहे। अगर भारत के ही एक एथलिट के पास मिल्खा सिंह को हराने का तमगा हासिल है, ये आपको पता नहीं होगा। माखन सिंह को सरकार ने भुला दिया, उनका जीवन गरीबी में गुजरा।
टोक्यो ओलंपिक में जब भारत ने 7 मेडल जीत कर अपना अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है, आज हम माखन सिंह की बात कर रहे हैं। माखन सिंह की स्थिति ऐसी हो गई थी कि उन्हें ट्रक चलाना पड़ता था। रास्ते में पुलिस वाले घूस माँगते थे। इसके बदले माखन सिंह उन्हें एक तस्वीर दिखाते थे। तस्वीर में एक युवक राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन से ‘अर्जुन अवॉर्ड’ ले रहा होता है। ये युवक माखन सिंह ही थे।
माखन सिंह की स्थिति ऐसी थी कि पुलिस वाले भी इस तस्वीर को देख कर पहचान नहीं पाते थे कि अब इस तरह कमजोर दिख रहा ये व्यक्ति ही तस्वीर वाला ओजस्वी युवक है। जी हाँ, 1962 के एशियन गेम्स में स्वर्ण व रजत पदक जीतने वाले खिलाड़ी की 1999 आते-आते यही हालत हो गई थी। हवा की तरह भागने वाला व्यक्ति उसी भारत की आबोहवा में तड़प-तड़प कर मरा, जिसका प्रतिनिधित्व उसने देश-विदेश में किया था।
माखन सिंह को एक ट्रक ड्राइवर के रूप में काम करना पड़ा। स्टेशनरी की दुकान चलानी पड़ी। एक दुर्घटना में उनका एक पाँव चला गया, जिसके बाद आर्टिफीसियल लेग लगवाने पड़े थे। दर्द को मिटाने के लिए उन्हें अल्कोहल का सहारा लेना पड़ता था। रोते-रोते कहते थे कि इस ‘अर्जुन अवॉर्ड’ को मेरी आँखों के सामने से हटाओ। बारिश होने पर घर में पानी टपकता था। वो गरीब कम थे, गरीबी में जी ज्यादा रहे थे।
उपेक्षा की सीमा देखिए कि ‘अर्जुन अवॉर्ड’ विजेताओं को जो रेल पास मिलता है, उन्हें वो तक नहीं मिला। वो दिल्ली के रेलवे भवन में गए ज़रूर थे, लेकिन उन्हें खाली हाथ लौटा दिया गया। वहाँ कर्मचारियों ने उनका मजाक बनाया। उनका कहना था कि एशियन गेम्स में सोना जीतने वाला इस तरह बैसाखी पर नहीं चलता है। उन्हें लगता था कि कोई भिखाड़ी है, जो किसी तरह यहाँ घुस आया है। उन्हें अपमानित किया जाता था।
इस समय से साढ़े 3 दशक पीछे जाएँ तो 1964 ही वो साल था, जब माखन सिंह ने कलकत्ता में हुए एक 400 मीटर की रेस में मिल्खा सिंह को 2 यार्ड्स से मात दी थी। जकार्ता में हुए 1962 के एशियन गेम्स में भी उनका मुकाबला मिल्खा सिंह से ही था। उस वक़्त ‘फ़्लाइंग सिख’ ने बाजी मारी थी। लेकिन, रिले में मिल्खा सिंह के साथ-साथ माखन को भी स्वर्ण पदक मिला। भारत के लिए दोहरी ख़ुशी। लेकिन, कुछ ही सालों बाद उनका बुरा दौर शुरू हो गया।
उनकी एक टाँग चली गई। वो अपने जीवनयापन के लिए एक गैस एजेंसी आउटलेट खोलना चाहते थे। लाख कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी। पंजाब के एक सांसद तक से निवेदन किया, लेकिन उस नेता ने उनसे इसके लिए 5 लाख रुपए घूस माँगे। कई नेताओं से मिले, लेकिन निराशा हाथ लगी। 1 जुलाई, 1937 को पंजाब के होशियारपुर स्थित भथुल्ला गाँव में जन्मे माखन सिंह 1955 में भारतीय सेना में भी भर्ती हुए थे, जिसके बाद उन्होंने खेल की दुनिया में कदम रखा।
1959 में कटक में हुए नेशनल में कांस्य पदक उनकी पहली बड़ी जीत थी। इसके अगले ही साल दिल्ली में हुए राष्ट्रीय खेलों में उन्होंने शॉर्ट स्प्रिंट में स्वर्ण पदक और 300 मीटर की रेस में रजत पदक अपने नाम किया। मिल्खा सिंह ने एक इंटरव्यू में बताया था कि कोई एक व्यक्ति है जिससे वो ट्रैक पर डरते हैं, तो वो धावक माखन सिंह हैं। उन्होंने कहा था कि माखन सिंह एक उम्दा एथलिट थे, जिन्होंने उन्हें उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने को मजबूर करते थे।
मिल्खा सिंह ने माखन सिंह को पाकिस्तान के अब्दुल खालिक से भी ऊपर रेट किया था। एक टोक्यो ओलंपिक 1964 में भी हुआ था, जिसमें 4×100 व 4×400 रिले टीम का हिस्सा थे। 1972 में वो सेना में सूबेदार पद से रिटायर हुए और उसके बाद से ही उनके बुरे दिन शुरू हो गए। मुंबई, पुणे और नागपुर में उन्हें ट्रक चला कर समान की डिलीवरी का काम करना पड़ा। उनका कहना था कि ऐसी सफलता किस काम की जिसे लोग नहीं पहचानें, आपको खुद अपनी तारीफ़ करनी पड़े।
1974 में उन्होंने शादी की। उनकी तीन संतानें हुईं, लेकिन उनमें से दो इंद्रपाल और गुरविंदर बीमारी से चल बसे। इलाज के लिए रुपए नहीं थे। मेडिकल सपोर्ट के बिना उनकी जान नहीं बचाई जा सकी। 1990 में दुर्घटना में उनका एक पाँव चला गया। सरकार ने इलाज के लिए कोई सुविधा नहीं दी, कोई मदद नहीं की। एक पड़ोसी से पैसे उधार लेकर आर्टिफीसियल लेग लगवाया। ट्रक चलाना अब दूभर था, इसीलिए दुकान खोल ली।
चब्बेवाल में स्थित उस दुकान को चलाने के लिए उन्हें रोज 3 किलोमीटर साइकिल से रास्ता तय करना होता था। 2002 में 65 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। कार्डियक अरेस्ट को उसकी मौत की वजह बताई गई। उनके परिवार की गरीबी की हालत ये थी कि वो उनके अवॉर्ड्स और पुराने स्पोर्ट्स ब्लेजर बेच कर किसी तरह अपना गुजरा चलाना चाहते थे। ऐसे समय में भाजपा की दिवंगत नेता सुषमा स्वराज आगे आईं।
सुषमा स्वराज ने अगस्त 2013 में यूपीए सरकार की आँखें खोलते हुए संसद में माखन सिंह के परिवार की बदहाली का मुद्दा उठाया। अगस्त 2013 में ‘भाग मिल्खा भाग’ देखने के बाद सुषमा स्वराज ने ट्विटर पर लिखा था कि किस तरह ये फिल्म युवाओं को प्रेरणा देती है और सफलता के पीछे किस तरह परिश्रम करना पड़ता है। लेकिन इसी समय ‘जी न्यूज’ पर माखन सिंह के परिवार की बदहाली की खबर दिखाई।
संसद में सुषमा स्वराज ने बताया कि किस तरह उनकी विधवा के पास खाने के लिए रोटी तक नहीं थी। वो मेडलों का ढेर लगा कर बैठी थीं कि कोई उन्हें खरीद कर कुछ रुपए दे जाए। सरदार माखन सिंह हमेशा बच्चों से कहते थे – कभी खिलाड़ी नहीं बनना। इसके बाद सरकार जागी और 7 लाख रुपए की सहायता परिवार को दी गई। उनके बेटे परमिंदर को डिस्ट्रिक्ट सैनिक वेलफेयर ऑफिस में क्लर्क की नौकरी मिली, 7000 रुपए की मासिक तनख्वाह पर।
इसीलिए, आज जब अंजू बॉबी जॉर्ज जैसी खिलाड़ी कहती हैं कि मोदी सरकार के आने के बाद बदलाव हुआ है, तो हमें मानना चाहिए। ओलंपिक जीतने वाले खिलाड़ियों को सिर्फ मेडल लाने पर ही प्रोत्साहन के रूप में रुपए नहीं दिए जाते हैं, बल्कि उनकी तैयारी की शुरुआत से ही उनका साथ दिया जाता है। अभी ज़रूरत है कि जमीनी स्तर पर काम में और तेज़ी आए, ताकि गाँव-गाँव से बच्चे ओलंपिक में पहुँचें।
माखन सिंह के अलावा भारत का कोई भी धावक मिल्खा सिंह को हरा नहीं सका था। उनकी शादी के बाद भी उनके ससुराल वाले उन्हें एक ट्रक ड्राइवर ही समझते थे। एक मैगजीन में जब उन्होंने उनके बारे में एक लेख देखा, तो उनकी पत्नी से कहा कि वो इस बारे में किसी को कुछ नहीं बताएँ। उनकी पत्नी ने मिल्खा सिंह के साथ रेस की एक तस्वीर देखी, जब जाकर यकीन हुआ। गाँव में लोगों को संशय होता था कि क्या वो सच में ‘अर्जुन अवॉर्ड’ से सम्मानित हैं।