कुछ साल पहले वीर सावरकर के पड़पोते रणजीत सावरकर ने सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को वीर सावरकर पर अपमानजनक एवं अमर्यादित टिप्पणी करने के लिए एक नोटिस भेजा था। दरअसल, 2016 में कॉन्ग्रेस ने अपने अधिकारिक ट्विटर अकाउंट पर वीर सावरकर को देशद्रोही और कायर कहकर संबोधित किया था। साल 2019 में राहुल गाँधी ने एकबार फिर सावरकर का उपहास करते कहा कि ‘मेरा नाम राहुल गाँधी है, राहुल सावरकर नहीं’।
कॉन्ग्रेस द्वारा दिवंगत स्वतंत्रता सेनानी के लिए निचले स्तर की भाषा का प्रयोग करना एक तरह का प्रचलन बन गया है। यह समझ से बिलकुल भी बाहर है कि ऐसा करने से कॉन्ग्रेस और उसके समर्थकों को कौन सी खुशी मिलती है? वे कभी उन्हें नाजी कहते है तो कभी ब्रिटिश एजेंट, कभी षड्यंत्रकारी तो कभी घृणित कट्टरपंथी। यही नहीं, वीर सावरकर की दया याचिकायों को लेकर कॉन्ग्रेस और वामपंथी दोनों दलों के लोग हमेशा उनपर आक्षेप करने के लिए आतुर रहते है।
इन दया याचिकाओं पर बात करने से पहले यह समझने की जरुरत है कि उस दौर में कॉन्ग्रेस के नेताओं के ब्रिटिश वायसरॉय एवं अधिकारियों से बहुत ही अच्छे संबंध थे। यह आपसी संबंध इतने गहरे थे कि जैसा ब्रिटिश सरकार चाहती थी, कॉन्ग्रेस के नेता वैसा ही करते थे। जैसे जब कर्जन के बाद मिंटो को भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया तो उस समय बंगाल विभाजन के चलते स्वदेशी एवं विदेशी सामान के बहिष्कार का आन्दोलन अपने चरम पर था। मिंटो पर ब्रिटेन से ही दवाब था कि वह इस सन्दर्भ में कोई समाधान निकाले। इसलिए उसने कलकत्ता स्थित अपने निवास स्थान पर गोपाल कृष्ण गोखले को मिलने के लिए बुलाया।
उस मुलाकात में मिंटो ने गोखले से कहा, “मेरे भूतपूर्व वायसराय की नीतियों के चलते लोगों में असंतोष पैदा हो गया है। हालाँकि, मैंने अभी कुछ सोचा नहीं है। मुझे उम्मीद है कि तब तक आन्दोलन के नेता मेरे लिए कोई समस्या पैदा नहीं करेंगे।” गोखले ने वायसराय के कमरे में निजी सचिव, कर्नल डनलप स्मिथ की तरफ मुड़ते हुए कहा, “हिज एक्सेलेंसी ने सहानुभूति और समझदारी दिखाई है। मैं बहिष्कार को रोक दूँगा।”
इस मुलाकात का जिक्र खुद मिंटो की पत्नी द्वारा लिखित पुस्तक ‘मैरी काउंटेस ऑफ़ मिन्टो – इंडिया मिन्टो एंड मोर्ले 1905-1910’ के पृष्ठ 20 पर मिलता है। अब कोई कॉन्ग्रेस का नेता इस घटना की सफाई पेश करेगा कि गोखले को मिंटो से मिलने की आखिर क्या जरुरत थी? जबकि इस स्वदेशी एवं बहिष्कार के आन्दोलन ने ब्रिटिश सरकार के भारत में अस्तित्व पर लगभग प्रश्न खड़ा कर दिया था।
एक अन्य तथ्य तो यह भी है कि कॉन्ग्रेस के कई अधिवेशनों की शुरुआत ब्रिटेन के महाराजा के गुणगान से शुरू होती थी। जैसे जलियांवाला नरसंहार के कुछ दिनों बाद ही कॉन्ग्रेस का 34वाँ अधिवेशन अमृतसर में बुलाया गया था। इसके पहले दिन यानी 27 दिसंबर 1919 को मोतीलाल नेहरू ने अध्यक्षीय भाषण दिया और उन्होंने ब्रिटिश शासन की शान में खूब तारीफ की। उस दौरान जॉर्ज फ्रेडेरिक (V) यूनाइटेड किंगडम के राजा और भारत के कथित सम्राट थे। उनके उत्तराधिकारी प्रिंस ऑफ़ वेल्स, एडवर्ड अल्बर्ट (VIII) का 1921 में भारत दौरा प्रस्तावित था। अधिवेशन में मोतीलाल ने ‘सर्वशक्तिमान भगवान से प्रार्थना करते हुए भारत की समृद्धि और संतोष के लिए एडवर्ड की बुद्धिमानी और नेतृत्व की सराहना की थी।’
कॉन्ग्रेस के आज के नेताओं को जवाहरलाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू के इन उपरोक्त शब्दों का भी स्पष्टीकरण देना चाहिए। वे ऐसा कैसे कह सकते है जबकि कुछ दिनों पहले ही जलियांवाला नरसंहार उसी शहर में घटित हुआ था जहाँ कॉन्ग्रेस का अधिवेशन आयोजित हो रहा था।
इन घटनाओं के जिक्र का यह मतलब नहीं है कि गोखले और मोतीलाल कोई देशद्रोही अथवा ब्रिटिश एजेंट थे। वे दोनों राष्ट्रभक्त थे, जिनका स्वतंत्रता के आन्दोलन में अभूतपूर्व योगदान था। स्वाभाविक रूप से उस दौरान सभी नेता एवं क्रन्तिकारी अपनी-अपनी सोच अथवा विचारों के अनुसार स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे। वास्तव में, इसी सच्चाई को समझने की जरुरत है। अतः अपनी राजनैतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए स्वतंत्रता सेनानियों को घसीटने का कोई अर्थ नहीं है।
यह बात ठीक है कि सावरकर ने दया याचिकाएँ लिखी, जो एक कैदी के रूप में उनका अधिकार भी था। मगर इसके साथ उस पत्र का भी जिक्र होना चाहिए जो उन्होंने अपने भाई को अंडमान जेल से 9 मार्च 1915 को लिखा था। वे लिखते है, “राजा या राष्ट्र क्षमा के अधिकार का उपयोग, तब तक नहीं कर सकता, जब तक स्वयं जनता ही कैदी को वापिस लाने, स्वतंत्र करने के लिए जोर न लगाए। यदि हिंदुस्तानवासी इस बात को चाहे और इस आशय के प्रार्थना पत्र लड़ाई (विश्व युद्ध) के अंत में जाए तो संभव है कि हम लोग मुक्त कर दिए जाए। परन्तु यदि हिंदुस्तानवासी ही हमें वापस नहीं चाहते हो तो न तो सरकार हमें छोड़ सकती है और न ही अन्य प्रकारों से मुक्ति का पाना हमें ही श्रेयस्कर है।”
जो व्यक्ति अपनी रिहाई के लिए भारत की जनता से अनुमति माँग रहा है, क्या उसके लिए अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करना न्यायसंगत होगा? जब सावरकर को फिर से आजीवन कारावास की सजा मिली तो जनता ही नहीं, बल्कि कॉन्ग्रेस भी उनकी रिहाई के लिए प्रयासरत थी। साल 1923 में कॉन्ग्रेस के अधिवेशन के दौरान विनायक दामोदर सावरकर के नाम से एक प्रस्ताव खुद तत्कालीन कॉन्ग्रेस अध्यक्ष मोहम्मद अली ने पेश किया था।
उस प्रस्ताव के शब्द इस प्रकार थे, “जैसा कि हम जानते है कि श्रीमान सावरकर को इस प्रशासन ने आजीवन कारावास दिया है। उनके भाई को भी यही सजा मिली है और मैं यहाँ एक बात जोड़ना चाहता हूँ कि कैदी के नाते मैं भी बीजापुर की उस जेल में बंद था जहाँ श्रीमान विनायक दामोदर सावरकर और श्रीमान गणेश दोमादर सावरकर कैद थे। श्रीमान गणेश सावरकार को रिहा कर दिया गया, लेकिन विनायक दामोदर सावरकर अभी वहीं कैद है। इसलिए हम उनके संबंध में सरकार की कार्रवाई की निंदा करने के लिए यह प्रस्ताव पेश कर रहे है। एक निर्बल व्यक्ति को बदले की भावना से जेल में रखा जा रहा है जबकि वह रिहा होने का हकदार है।”
यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ और सावरकर की शान में एक उर्दू गीत भी इसी अधिवेशन में गाया गया था। इस घटना को हुए लगभग एक सदी पूरी होने वाला है लेकिन साक्ष्य अभी मिटे नहीं है। यह दुर्भाग्य ही है कि कॉन्ग्रेस का एक अध्यक्ष सावरकर को सम्मान दे रहा था तो आज की कॉन्ग्रेस अपने ही इतिहास को भूल गई है।
महात्मा गाँधी भी कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष रहे थे और उनका सावरकर भाइयों से पुराना रिश्ता था। वे 1909 में विजयादशमी के दिन लंदन में विनायक सावरकर से पहली बार मिले थे। अपनी इस मुलाकात का जिक्र उन्होंने’ यंग इंडिया’ में 18 मई 1921 को किया था।
महात्मा गाँधी ने लिखा, “सावरकर बंधुओं की प्रतिभा का उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए। अगर भारत इसी तरह सोया पड़ा रहा तो मुझे डर है कि उसके ये दो निष्ठावान पुत्र सदा के लिए हाथ से चले जाएँगे। एक सावरकर भाई को मैं अच्छे से जानता हूँ। मुझे लंदन में उनसे भेंट का सौभाग्य मिला था। वे बहादुर हैं, चतुर हैं, देशभक्त हैं। वे क्रन्तिकारी हैं और इसे छुपाते नहीं हैं। मौजूदा शासन प्रणाली की बुराई का सबसे भीषण रूप उन्होंने बहुत पहले, मुझे से काफी पहले, देख लिया था। आज भारत को, अपने देश को, दिलोजान से प्यार करने के अपराध में कालापानी भोग रहे हैं। अगर सच्ची और न्यायी सरकार होती तो वे किसी ऊँचे शासकीय पद को सुशोभित कर रहे होते। मुझे उनके और उनके भाई के लिए बड़ा दुःख है।” (सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय, खंड 20, पृष्ठ 102)
वीर सावरकर की जीवनी लिखने वाले प्रख्यात लेखक धनंजय कीर लिखते है, “समाज की भलाई के लिए कई बार दो महान लोग एक समय में अलग-अलग कार्य कर रहे होते हैं। इसमें एक व्यक्ति वह होता है, जोकि समाज के भलाई के लिए दुख सहन करता है और दूसरा उसकी बेहतरी का बीड़ा उठता है। गाँधी पहली तरह के व्यक्तियों में शामिल थे जबकि सावरकर दूसरी तरह के लोगों का नेतृत्व करते है।” कीर, सावरकर के साथ-साथ लोकमान्य तिलक, डॉ. भीमराव आंबेडकर और ज्योतिराव फुले के भी जीवनीकार हैं।
गाँधी और सावरकार को अलग नजरिए से देखना कोई समझदारी नहीं है। जब महात्मा गाँधी 1927 में रत्नागिरी के दौरे पर थे, उनकी मुलाकात सावरकर से हुई थी। दोनों ने अस्पृश्यता और शुद्धि के सम्बन्ध में बातचीत की। इस विषय को लेकर दोनों व्यक्तियों के मतों में अंतर था फिर भी किसी ने एक-दूसरे से वैर नहीं रखा। महात्मा गाँधी लिखते है, “सत्यप्रेमी तथा सत्य के लिए प्राणतक न्योछावर कर सकने वाले व्यक्ति के रूप में आपके लिए मेरे मन में कितना आदर है। इसके अतिरिक्त अंततः हम दोनों का ध्येय भी एक है और मैं चाहूँगा कि उन सभी बातों के सम्बन्ध में आप मुझसे पत्र-व्यवहार करें जिनमे आपका मुझसे मतभेद है। और दूसरी बातों के बारे में भी लिखे। मैं जानता हूँ कि आप रत्नागिरी से बाहर नहीं जा सकते, इसलिए यदि जरुरी हो तो इन बातों पर जी भरकर बातचीत करने के लिए मुझे दो-तीन दिन का समय निकालकर आपके पास आकर रहना भी नहीं अखरेगा। (सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय, खंड 33, पृष्ठ 147)
क्या आज के कॉन्ग्रेस के नेता महात्मा गाँधी के सावरकर के प्रति विश्वास और लगाव को झुठला सकते है? वैसे देखा जाए तो कॉन्ग्रेस के नेताओं को अपने पुस्तकालय में ‘धूल खा रही’ पुस्तकों को भी एकबार पढने की जरुरत है। स्वतंत्रता के बाद कॉन्ग्रेस ने एक समिति का गठन किया जिसमें डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. पट्टाभि सीतारामय्या, डॉ एस. राधाकृष्णन, जय प्रकाश नारायण और विजयलक्ष्मी पंडित शामिल थीं। इस समिति के नेतृत्व में भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन पर एक पुस्तक – ‘To The Gates of Liberty’ का प्रकाशन किया गया। प्रस्तावना जवाहरलाल नेहरू ने लिखी और सावरकर के भी दो लेखों ‘Ideology of the War Independence – Swadharma and Swaraj and ‘The Rani of Jhansi’ को इसमें समाहित किया गया था। इस पुस्तक की एक विशेष बात यह भी थी कि इस समिति ने सावरकर के नाम के आगे ‘वीर’ लगाया था।