महाराष्ट्र के पालघर में गुरुवार (अप्रैल 16, 2020) को दो नागा साधुओं सहित 3 व्यक्ति की भीड़ द्वारा पुलिस के सामने ही निर्मम हत्या के बाद बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है। उस इलाक़े में अलग-अलग तरह की कई हिंसा की वारदातें होती रही हैं लेकिन पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। इस घटना वाले सप्ताह भी कुल मिला कर 3 ऐसी घटनाएँ हुईं, जिनमें भीड़ द्वारा हिंसा की वारदातों को अंजाम दिया गया। साधुओं की हत्या तो घृणा के एक नए माहौल की ओर इशारा करती ही हैं, लेकिन कुछ अन्य प्रकार की घटनाएँ भी हैं जो महाराष्ट्र पुलिस की पोल खोलती हैं।
इस घटना के अगले ही दिन शुक्रवार की रात दहानु में एक मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति को जम कर पीटा गया। अगर गुरुवार को इतनी क्रूर और निर्मम वारदात हो चुकी थी तो फिर भीड़ की हिम्मत कैसे हुई कि वो अगले ही दिन अन्य आपराधिक कृत्य को अंजाम देने निकले? पुलिस ने किसी तरह समय पर पहुँच कर उस व्यक्ति को बचा लिया। ये वही पुलिस है, जिसने साधुओं की कोई मदद नहीं की। वृद्ध साधु जब पुलिसकर्मी के हाथ पकड़ता, तो उसका हाथ झटक दिया गया था। लगातार दो दिन अलग-अलग तरह की हिंसक वारदात हुई लेकिन पुलिस कुछ नहीं कर पाई।
मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति को भी इतना पीटा गया कि उसके सिर में गहरी चोटें आईं और उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। भीड़ यहाँ न सिर्फ़ पत्थरबाजी करती है, बल्कि लाठी-डंडों से भी वार करती है। हर घटना में ऐसा करने के पीछे अलग-अलग कारण हो सकते हैं। साधुओं की हत्या कासा पुलिस स्टेशन के अंतर्गत गडचिंचले गाँव में हुई थी, लेकिन गिरफ़्तार होने वालों में अधिकतर दहानु तालुका के गडचिंचले के ही हैं। ऊपर वाली घटना की बात करें तो ज़ाईदुबलपाड़ा में भी एक व्यक्ति को 15 लोगों ने घेर लिया और पुलिस के दावे के अनुसार उसे चोर बता कर उसकी पिटाई करने लगे। साधुओं वाली घटना में भी न सिर्फ़ पुलिस, बाकी मीडिया ने भी यही एंगल चलाया। सवाल पूछा जा सकता है कि क्या ऐसा करके कुछ छिपाया जा रहा है, ताकि इसे बाकी घटनाओं की तरह ही दिखाया जा सके?
जिस व्यक्ति को चोर बता कर उसकी पिटाई की गई, वो मराठी भी नहीं समझता था। उसे तमिल भाषा आती थी। उसकी भी पिटाई के समय पुलिस ने वहाँ पहुँच कर उसे बचा लिया लेकिन साधुओं को बचाने में पुलिस नाकाम साबित हुई। पुलिस ने एक तमिल बोलने वाले को बात समझने के लिए बुलाया लेकिन पीड़ित ने कुछ ख़ास जानकारी नहीं दी थी। इस मामले में भी वीडियो सबूत के आधार पर आरोपितों को चिह्नित तो किया गया लेकिन शनिवार तक किसी की भी गिरफ़्तारी नहीं हुई थी।
Reports by TOI, IE, HT & The Hindu, in Mumbai editions on 18 April. The first 3 mention the victims’ names in reports and that they were priests
— Swati Goel Sharma (@swati_gs) April 20, 2020
Even a casual observer of English media knows that if they belonged to Christian or Muslim clergy, this identity wud be in headlines pic.twitter.com/INnvz8d7m0
इसी तरह सारणी गाँव में स्किन स्पेशलिस्ट डॉक्टर विश्वास वलवी की गाड़ी को घेर लिया गया था लेकिन पुलिस ने उन्हें बचा लिया। तुलनात्मक रूप से साधुओं की निर्मम हत्या के सामने ये घटनाएँ ख़बर नहीं बन पाई लेकिन ऐसी घटनाओं को नज़रअंदाज़ किया गया पुलिस द्वारा। साधुओं की मॉब लिंचिंग की घटना भी आम जनमानस के बीच तभी पहुँची, जब इसके वीडियो 3 दिन बाद वायरल हुआ, वरना इसे भी तो ‘चोरी से जुड़ा मामला’ ही बताया जा रहा था। अगर ऐसा है तो साधुओं की मॉब लिंचिंग में एनसीपी और सीपीएम नेताओं की मौजूदगी की बातें क्यों सामने आ रही हैं?
सैकड़ों लोगों द्वारा तीन लोगों की हत्या एक बहुत बड़ी ख़बर होती है और अगर इसे छिपाया गया है तो ज़रूर दाल में कुछ काला है। इससे पहले चोर बता कर हुई मारपीट या फिर डॉक्टर की गाड़ी में तोड़फोड़ वाली घटना में न तो भीड़ इतनी संख्या में थी और न ही किसी की हत्या हुई। पुलिस ने भी समय पर पहुँच कर बीच-बचाव कर लिया। ये सभी बातें साधुओं की हत्या को इन घटनाओं से अलग बनाती है। इलाक़े में मुस्लिम और ईसाई मिशनरियों के प्रभाव की बातें भी कही जा रही हैं।