‘जंगलराज’ – ये शब्द सुनते ही आपके दिमाग में क्या आता है? बिहार में लालू यादव का कार्यकाल, यानी 15 वर्ष। तकनीकी रूप से तो इसमें से 8 साल तक उनकी पत्नी राबड़ी देवी मुख्यमंत्री रहीं लेकिन इस दौरान सत्ता लालू ही चलाते रहे। ये वो दौर था, जब बिहार में हत्या और अपहरण एक ‘उद्योग’ बन चुका था, एक कारोबार था, पैसे कमाने का एक जरिया था। राजनेताओं, अधिकारियों और माफियाओं का ऐसा गठजोड़ इसके पहले कहीं देखा ही नहीं गया।
सबसे पहले बात आँकड़ों की कर लेते हैं। अगर सिर्फ लालू राज के अंतिम वर्ष 2005 की ही बात करें तो उस साल 3471 हत्याएँ हुईं। साथ ही 251 अपहरण की वारदातें हुईं और बलात्कार की 1147 घटनाएँ हुईं। इसके एक साल और पीछे जाएँ तो 2004 में बिहार में हत्या के 3948 मामले आए थे। इसी तरह रंगदारी के लिए अपहरण 411 घटनाएँ और बलात्कार की 1390 घटनाएँ दर्ज की गई थीं।
एक और समस्या जो लालू यादव और राजद के काल में सबसे ज्यादा बढ़ रही रही, वो थी नक्सली हमलों की घटनाएँ। लालू यादव की पार्टी के कई नेताओं के नक्सलियों के साथ साँठ-गाँठ थे और वोट बैंक की राजनीति के कारण उन्हें अपने पाले में रखा करते थे। परिणाम ये हुआ कि हर महीने बड़ी नक्सली घटनाएँ होती थीं। अगर लालू-राबड़ी के अंतिम वर्ष 2005 की बात करें तो अकेले उस साल नक्सली हिंसा की 203 वारदातें हुई थीं।
2005 के अंत में नीतीश कुमार के सत्ता संभालते ही इन वारदातों में कमी आ गई। हालाँकि, 2005 में काफी दिनों तक राष्ट्रपति शासन भी लगा हुआ था लेकिन बिहार में एक तरह से लालू-राबड़ी की ही चल रही थी क्योंकि लालू यादव तब केंद्र की यूपीए-1 की सरकार में रेल मंत्री थे और लोकसभा में 22 सांसदों के साथ सरकार में उनका अच्छा-खासा दबदबा था। अपराधियों में 2006 से भय का माहौल व्याप्त होता चला गया।
जब नीतीश कुमार ने 2010 में अपना पहला कार्यकाल पूरा किया, तब तक 50,000 अपराधियों को सजा दिलवाई जा चुकी थी। ये वो प्रक्रिया थी, जो लालू यादव के जंगलराज वाले काल में एकदम से रुकी हुई थी। कई हत्याओं का मामला कोर्ट तो दूर, पुलिस स्टेशन भी नहीं पहुँच पाता था क्योंकि लोगों को सीधा गायब ही करा दिया जाता था। उन्हें कहाँ ठिकाने लगाया जाता था, इसका पता पुलिस तक को नहीं चल पाता था।
सीवान में सांसद शहाबुद्दीन का आतंक सबसे ज्यादा था। उसके खिलाफ खड़े होने वाले उम्मीदवारों पर गोलीबारी होती थी। उसके खिलाफ कार्रवाई करने वाले पुलिस अधिकारियों पर गोलीबारी होती थी। सीवान के वर्तमान जदयू सांसद ओम प्रकाश यादव और बिहार के वर्तमान डीजीपी एसके सिंघल इसके भुक्तभोगी हैं। जो विपक्षी उम्मीदवारों के पोस्टर लगाते थे, उन्हें गायब कर दिया जाता था। विपक्षी कार्यकर्ताओं की हत्या करा दी जाती थी।
बिहार में इस तरह के कई गुंडे-बदमाश थे, जिनमें से अधिकांश नेता और ठेकेदार थे। उनका पूरा का पूरा सिस्टम था। माफिया टेंडर लेते थे, विकास कार्यों का। अब आप समझ सकते हैं कि सड़कें कैसी बनती होंगी और कंस्ट्रक्शन कैसे होता होगा। नेता ही अपहरण-हत्या उद्योग के अभिभावक हुआ करते थे। एक अपराधी जब नेता बन जाता था तो वो सौ नए अपराधियों को पालता था। इस तरह से ये ‘उद्योग’ बढ़ता ही चला गया।
अगर कुल अपराध की बात करें तो 2004 में हत्या की 3861, डकैती की 1297, दंगे के 9199, और अपहरण के 2566 मामले दर्ज किए गए थे। इसी तरह 2003 में हत्या की 3652 और अपहरण की 1956 वारदातें दर्ज की गईं। वहीं 8189 दंगे हुए। आप देख सकते हैं कि ये वो काल था, जब बिहार में 10,000 के आसपास दंगे हर साल हुआ करते थे। 2005-10 में ये आँकड़े काफी ज्यादा सुधरे।
ये वो समय था, जब जनप्रतिनिधि तक सुरक्षित नहीं थे। विधायक अजीत सरकार हों, विधायक देवेंद्र दुबे हों, विधायक का चुनाव लड़ रहे छोटन शुक्ला हों या फिर मंत्री बृजबिहारी प्रसाद – ये लोग रंजिशों में ही मारे गए। यहाँ तक कि अधिकारी भी सुरक्षित नहीं थे। IAS अधिकारी बीबी विश्वास की पत्नी चम्पा विश्वास, उनकी माँ, भतीजी और 2 मेड्स के साथ बलात्कार की घटना हुई। डीएम जी कृष्णैया की मॉब लिंचिंग हो गई।
और सरकार क्या कर रही थी? सत्ताधीश लालू यादव खुद घोटालों में व्यस्त थे। आज भी वो चारा घोटाला मामले में जेल में बंद हैं। इस मामले में उनके साथ-साथ कई अधिकारी और नेता भी नपे हैं। यानी, सब मिल-जुल कर जनता का पैसा खाने में लगे हुए थे और जहाँ जानवरों का चारा तक सत्ता में बैठे नेता खा जाते थे, वहाँ बाकी विकास परियोजनाओं का क्या हाल होता होगा। ऐसे कई घोटाले हुए, जिसने बिहार के खजाने को ही बर्बाद कर के रख दिया।
बची-खुची कसर लालू यादव के दोनों साले पूरा कर दिया करते थे। सुभाष यादव और साधु यादव का दबदबा ऐसा था कि लालू यादव की बेटियों की शादी होती थी तो गाड़ियों के शोरूम ही खाली कर लिए जाते थे और इस तरह बिहार में कोई कारोबार करना ही नहीं चाहता था। उन शादियों पर सरकारी खजानों से 100 करोड़ खर्च होते थे और 25,000 अतिथियों को खिलाया जाता था। अधिकारीगण जनता की सेवा नहीं, नेता की चापलूसी में लगा दिए जाते थे।
Laalu spent 100 crores in the wedding, (this was in 1999) all from state coffers, while it didn’t have any money to pay salaries to govt employees.
— Gabbbar (@GabbbarSingh) April 1, 2018
Every business owner had to pay this Rangdari tax, to the local goons, if you didn’t, you were shot or your kid was kidnapped
ऊपर से जंगलराज के दौरान लालू यादव विकास पर पूछे गए सवालों को और जनता की समस्याओं को हवा में उड़ा दिया करते थे। हेमा मालिनी और ममता कुलकर्णी के बारे में उनके बयान सुर्खियाँ बना करते थे। जब बिहार में बाढ़ आता था तो वो कहते थे कि इससे लोगों के घरों में मछलियाँ आएँगी और वो पका कर खा सकेंगे। जब अच्छी सड़कें बनवाने की बातें आती थी तो वो कहते थे कि इससे जानवरों के खुर (पाँव का निचला हिस्सा) उखड़ जाएँगे।
तब बिहार राज्य की स्थिति ऐसी थी कि जिनके पास रुपए और संपत्ति थी, वो भी अच्छी लाइफस्टाइल में नहीं जी सकते थे। अगर किसी ने कार तक खरीद लिया तो वो अपहरण उद्योग के रडार पर आ जाता था। डॉक्टरों के क्लिनिक चल गए, इंजीनियरों को बड़ा प्रोजेक्ट मिल गया, वकीलों की वकालत चल पड़ी या फिर किसी कारोबारी की दुकान पर भीड़ जुटने लगी – उसे तुरंत अपराधियों का समन आता था और उसे जेब ढीले करने पड़ते थे।
तब स्थिति ऐसी थी कि अगर घर का कोई व्यक्ति ज़रूरी काम से भी बाहर गया हो और वो शाम के 6 बजे से पहले घर नहीं लौटे तो परिवार और रिश्तेदारों में कोहराम मच जाता था। कब, किसे, कौन और कहाँ मार कर फेंक दे – कुछ पता नहीं था। लाशें बरामद होती थीं और लोगों की धड़कनें बढ़ती थीं कि कहीं ये उनका कोई अपना तो नहीं। रोजगार और शिक्षा की बात तो छोड़ ही दीजिए। इन दोनों मामलों में न काम हुआ, न इसकी ज़रूरत समझी गई।