बंगाल के देगंगा (Deganga) में सितंबर 06, 2010 को सोमवार के दिन दंगे शुरू हो गए थे और कई दिनों तक जारी रहे थे। कोलकाता से लगभग 150 किलोमीटर दूर उत्तर 24 परगना के बशीरहाट इलाके में मजहबी उपद्रवियों द्वारा हिन्दू परिवारों को निशाना बनाया गया, जिसमें कई हिन्दू परिवार और पुलिसकर्मी तक बुरी तरह घायल हुए। हिन्दुओं के घर और संपत्तियों को तहस-नहस कर दिया गया और पूरे इलाके में मौजूद मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया।
इसका परिणाम यह हुआ कि कई लोगों की निर्मम हत्याएँ हुईं और कई लोगों को बेघर होना पड़ा। इस दंगे की वजह सिर्फ यह थी कि विवादित कब्रिस्तान के चारों ओर एक दीवार का निर्माण किया जा रहा था। मजहबी कट्टरपंथियों का मकसद हिन्दुओं को वहाँ मौजूद दुर्गा मंदिर के पूजा पंडाल में प्रवेश करने से रोकना और उस भूमि पर अपना नियंत्रण स्थापित करना था।
पीड़ित हिन्दुओं के अधिकारों और उन पर दंगों के दौरान हुए अत्याचारों का हिसाब क्या रहा होगा, इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब देगंगा में शरणार्थी हिन्दू अपनी घरों से जान बचाने के लिए यहाँ-वहाँ भाग रहे थे, उस साल 2010 में पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार थी, जिसके मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य थे और केंद्र में UPA सरकार थी, जिसकी लगाम लंबे दौर से सोनिया गाँधी के हाथों में ही थी।
भारत जैसे सेक्युलर देश में हिन्दुओं के खिलाफ ‘डरे हुए शंतिप्रियों’ द्वारा एक नहीं बल्कि अनेकों बार प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस ‘मनाए’ गए हैं। देगंगा दंगा इसी का एक और उदाहरण है। TMC सांसद नुरुल इस्लाम के नेतृत्व में दंगाई भीड़ के अत्याचारों के बाद दोनों ही धर्मों- ख़ास मजहब और हिन्दू, द्वारा अपने भाग्य पर छोड़ दिए हिन्दू इस देश की धर्म निरपेक्षता के असली गवाह हैं। हिन्दुओं के घरों में तोड़फोड़ की गई, हिन्दुओं की दुकानों में आग लगा दी गई, हिंदू मंदिरों को उजाड़ दिया गया। यह सब तब हुआ, जब इस्लामिक बर्बरता के छोटे से उदाहरण के सामने मजबूर होकर जिला प्रशासन और पुलिस ने कान पकड़ लिए थे। पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादियों को समुदाय विशेष के समर्थन की जरूरत रहती आई है। जबकि, TMC की बुनियाद ही खास समुदाय के समर्थन से ज्यादा हिन्दू-घृणा पर टिकी है।
मीडिया द्वारा विवाद का कारण दुर्गा माता के एक मंदिर का मंडप बताया गया था- इस जगह हर साल बंगालियों का सबसे बड़ा धार्मिक त्योहार दुर्गा पूजा आयोजित किया जाता था। मंडप के पीछे की जमीन एक सुनसान और विवादित कब्रिस्तान है, जिसका मालिकाना हक अदालत में काफी समय से लंबित रहा। इस स्थान को ‘चट्टलपल्ली’ कहा जाता है। कोई भी बंगाली-भाषी व्यक्ति इस नाम से ही तुरंत समझ जाएगा कि यह गाँव पूर्वी बंगाल के चटग्राम या चटगाँव जिले के विभाजन के बाद हिंदू शरणार्थियों द्वारा स्थापित किया गया था।
यहीं पर एक संकरा कच्चा रास्ता दुर्गा मंडप और चट्टलपल्ली को मुख्य सड़क से जोड़ता है। स्थानीय कट्टपंथियों ने मुख्य सड़क से दुर्गा मंडप और गाँव, दोनों को अलग करने के लिए इस रास्ते पर एक नहर खोदना और दीवार निर्माण करना शुरू कर दिया। वे पहले ही विवादित कब्रिस्तान पर अपने अधिकार का दावा कर चुके थे। वो इस मार्ग को अवरुद्ध करना चाहते थे, जिससे उन्हें मंदिर की जमीन को जल्द से जल्द हासिल करने में मदद मिलती। लेकिन, स्थानीय हिंदुओं ने समुदाय विशेष वालों की इस हरकत का विरोध किया।
वर्ष 2010 में जब हिन्दुओं को उनके अधिकारों के लिए प्रताड़ित किया गया तो बंगाली मीडिया अपनी रिपोर्ट में यह नैरेटिव चलाने का काम कर रहा था कि हिंदू समूह सांप्रदायिक आग भड़का रहे हैं और बशीरहाट के तृणमूल कॉन्ग्रेस के सांसद हाजी नुरुल इस्लाम (Haji Nurul Islam) को अपमानित कर रहे हैं। तृणमूल कॉन्ग्रेस के सासंद… जी हाँ, वही TMC, जिसकी मुखिया ममता बनर्जी आज बंगाल में हिन्दुओं को ‘जय श्री राम’ का नारा लगाने पर गिरफ्तार कर लेती हैं। दंगा पीड़ित स्थानीय लोगों ने तब कहा था कि इन दंगों का असली जिम्मेदार इसी नुरुल हाजी ही था। इस सांसद को दंडित करने की माँग को लेकर बसीरहाट से 25 किलोमीटर दूर इलाके तक पोस्टर और लोगों द्वारा प्रदर्शन किए गए।
इस हिंसक रैली में हिंदुओं के सैकड़ों घरों और दुकानों को तबाह कर दिया गया, इसके अलावा वाहनों और पुलिस की गाड़ियों में आग लगा दी गई। स्थानीय निवासियों ने कहा था कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि इन दंगों का मुख्य खलनायक नुरुल इस्लाम ही था।
सदियों पुराने दुर्गा मंदिर को कब्जाना चाहते थे दंगाई
देगंगा के स्थानीय बहुसंख्यक दुर्गा मंडप की ओर जाने वाले हिंदूओं का मार्ग बाधित करने की कोशिश कर रहे थे। ये वो जगह थी, जहाँ तब पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से आए कई पीड़ित हिन्दू शरणार्थी रहा करते थे। पास के ही दूसरे मजहब के लोग उन्हें पूजा स्थलों और उनके घरों में घुसने से रोकते थे। लोगों द्वारा मंदिर पंडाल के रास्ते को खोदने का मुख्य कारण वहाँ बनाए गए ‘मजहबी कब्रिस्तान’ के नाम पर मंदिर की भूमि को हड़पना था।
इस्लामिक आतंक के तीन दिन
6 सितम्बर की सुबह उपद्रवियों ने दुर्गा मंदिर के पंडाल का मार्ग यह कहकर खोदना शुरू कर दिया कि वह कब्रिस्तान की जमीन है। लेकिन वास्तविकता यह थी कि इस दुर्गा मंदिर में पिछले चालीस वर्षों से विशाल दुर्गा पूजा का आयोजन होता आया था और इसे लेकर किसने भी आपत्ति नहीं की थी।
जब हिंदुओं ने मंदिर के रास्ते की खुदाई करने पर आपत्ति जताई तो उन पर मजहबी भीड़ द्वारा हमला किया गया। विवाद बढ़ने पर स्थानीय हिन्दू परिवारों ने पुलिस को इसकी सूचना दी। पुलिस जब वहाँ पहुँची और उपद्रवियों को रोकने की कोशिश की तो मजहबी भीड़ ने पुलिस को ही बुरी तरह से मारा और पीटा।
इस हिंसक झड़प में थाना प्रभारी अरूप घोष को सिर में चोटें आईं और एक हाथ में फ्रैक्चर हो गया। यही नहीं, उपद्रवियों ने शाम को फिर से हिंदुओं को अच्छा सबक सिखाने की धमकी दी।
शाम को लगभग 8.30 बजे, करीब 2000 लोगों की भीड़ देगंगा, कार्तिकपुर और बेलियाघाटा के बाजार क्षेत्रों पर उतरी और बड़े स्तर पर आगजनी, तोड़फोड़ और हिंसा की। हिंदुओं की दुकानें बुरी तरह से लूटी गईं, जला दी गईं और उन्हें नष्ट कर दिया गया। हिंदू समुदाय की बस्तियों से लगी सड़कों पर आग लगा दी गई।
अगले दिन, मंगलवार की सुबह, 7 सितंबर को TMC सांसद हाजी नुरुल इस्लाम के नेतृत्व में हथियारबंद कट्टरपंथियों की बड़ी भीड़ देगंगा पुलिस स्टेशन पहुँची और पुलिस को धमकाया। इस सशस्त्र मजहबी भीड़ का नेतृत्व मकबुर रहमान और मिंटू साहजी जैसे स्थानीय लोगों ने किया।
पुलिस द्वारा लगाई गई धारा 144 को ताक पर रखते हुए सभी आदेशों को नजरअंदाज कर दिया गया। मजहबी भीड़ ने भारी गोलाबारी की और बम फेंके। इसी बीच इसी भीड़ ने वहीं फाल्टी गाँव के एक मजहब विशेष के युवक को ही बेलियाघाटा पुल पर गलती से गोली मार दी और उसकी मौत हो गई।
इसके बाद, पुलिस दल और अधिकारी रैपिड एक्शन फोर्स के एक विशाल दल के साथ दंगों को नियंत्रित करने के लिए वहाँ पहुँचे। लेकिन, दोनों डीएसपी को भीड़ ने जमकर पीटा। अशोक रे को रैपिड एक्शन फोर्स (आरएएफ) द्वारा बचाया गया और एक नर्सिंग होम में स्थानांतरित कर दिया गया।
सुबह 11 बजे, डीआईजी (प्रेसीडेंसी रेंज) सिद्धनाथ गुप्ता, उत्तर 24 परगना के डीएसपी राहुल श्रीवास्तव और डीएम विनोद कुमार ने एक आपात बैठक बुलाई और जिले के 15 पुलिस थानों के पुलिसकर्मी मजहबी
दंगाइयों को रोकने में नाकाम रहे।
दोपहर 1.30 बजे, एसडीपीओ (बारासात) महमूद अख्तर ने धारा-144 की घोषणा की। जिला पुलिस, रैपिड एक्शन फोर्स और बीएसएफ भी हालात नियंत्रित करने में असफल रहे तो राज्य सरकार ने सेना को बुलाया।
शाम तक किसी तरह सेना की दो बटालियन देगंगा इलाके में प्रवेश कर पाईं। अब तक दंगों और यातनाओं को झेल रहे तड़पते हुए ग्रामीण हिन्दू इस आशा में अपने घरों से बाहर निकले कि अब उन्हें किसी सुरक्षित जगह ले जाया जा सकेगा।
कट्टरपंथियों ने हिन्दू मंदिरों को कर दिया था बुरी तरह से तबाह
दंगाइयों की सशस्त्र भीड़ ने हिंदू मंदिरों में बुरी तरह से तोड़फोड़ की। देगंगा की ही कॉलोनी में स्थित काली मंदिर को भीड़ ने खंडित कर दिया था। ये दंगाई वहाँ बेलियाघाटा, साशन और बशीरहाट से ट्रकों में पहुँचे थे। काली मंदिर को तृणमूल कॉन्ग्रेस के सांसद हाजी नुरुल इस्लाम के नेतृत्व में तोड़ दिया गया।
जब वहाँ मौजूद हिंदुओं ने इसका विरोध किया तो उन्हें उपद्रवियों की भीड़ ने उनका पीछा तलवारों और खंजर से किया और उन पर बम फेंके गए। उन्होंने काकड़ा मिर्जा नगर काली मंदिर को भी जला दिया। कार्तिकपुर के शनि मंदिर को भी इस भीड़ द्वारा खंडित कर दिया गया था। इस पर देगंगा बाजार के पास मस्जिद का लाउडस्पीकर फहराता था, जबकि यह यह धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकर के प्रयोग पर उच्च न्यायालय के आदेश के भी खिलाफ था।
दंगों में जलाए गए घर, मंदिर, और नदी में डुबोई गई पुलिस के वैन की तस्वीरें –
बुधवार की सुबह, 8 सितंबर को रामनाथपुर और खेजुरंगा में एक सशस्त्र भीड़ ने सलिमपुकुर और अस्पताल में हिंदुओं को निशाना बनाया और उन पर हमला किया। सलिमपुकुर में 23 घरों में तोड़फोड़ की गई, पीड़ितों ने पास के कार्तिकपुर इलाके में शरण ली। देगंगा थाने के प्रभारी अधिकारी अरूप घोष ने दंगाइयों के खिलाफ एक पुलिस दल का नेतृत्व किया, जिन पर दंगाइयों ने जमकर पथराव किया और उन पर ईंट-पत्थर बरसाए। पुलिसकर्मियों के सिर पर इस पथराव में गंभीर चोट आई और वो घायल हो गए।
दंगों के बाद
भारी दंगों के बाद सेना की मौजूदगी के बावजूद आखिरकार बृहस्पतिवार को हिंसा की छिटपुट घटनाएँ होती रहीं। शुक्रवार के दिन तक किसी तरह स्थिति शांत हुई, हालाँकि पूरे क्षेत्र में तनाव और भय पसरा था।
हिन्दू, विशेषकर वो महिलाओं जो मजहबी दंगाइयों के उत्पीड़न के बाद अपने घरों से भाग गईं, अभी तक भी अपने घरों को नहीं लौटीं थीं। हिन्दुओं के घरों को निशाना बनाकर उन्हें तहस-नहस कर दिया गया था और संपत्तियों को लूटा गया था। मजहबी भीड़ ने हिन्दुओं के घरों को आग लगा दी थी और मंदिरों को खंडित कर दिया था। भयभीत लोग तीन-चार दिन बाद अपने घरों को वापस लौट आए।
करीब साठ पीड़ित हिन्दुओं ने पुलिस स्टेशन में दंगाइयों के खिलाफ FIR दर्ज कराई थीं। जाँच दल ने अपनी इन्वेस्टिगेशन में पाया था कि 6 सितम्बर को शफ़िक, अलाउद्दीन, अरब, फ़रीद, फ़ज़लू, अफ़ज़ल, मोहम्मद याकूब और हसिया और डोगाचिया गाँव के 100 से अधिक लोग घरों में बनी कुल्हाड़ी, लोहे की रॉड और हथियारों से लैस थे, जिन्होंने लोगों पर हमला किया और हिंदू व्यापारियों की दुकानों को लूटना और उन्हें आग के हवाले करना शुरू कर दिया था।
दस साल बाद हुए दिल्ली के हिन्दू-विरोधी दंगों की झलक
बंगाल के देगंगा में हुए यह दंगे 2010 की घटना है, जबकि इसके ठीक दस साल बाद दिल्ली में जो हिन्दू-विरोधी दंगे हुए, उनमें भी यही तरीके देखे गए। जो यह बताता है कि एक सम्प्रदाय विशेष अपनी निशानदेही और दंगों के तरीकों में कितनी स्पष्ट रणनीति को अपनाता है।
देगंगा में भी पुलिस पर हमला किया गया था, पथराव किया गया था, निशाना बनाया गया, हिन्दुओं के परिवारों और उनकी दुकानों को निशाना बनाया गया था। कितनी दिलचस्प बात है कि ठीक यही शैली 2020 की शुरुआत में पूर्वोत्तर दिल्ली में हुए हिन्दू-विरोधी दंगों में भी अपनाई गई थी।
यह सभी बातें, सभी घटनाएँ और तरीके सब एक ही निष्कर्ष तक पहुँचाती हैं। ‘अच्छा मजहबी और बुरा मजहबी’ जैसे वाक्यांशों को सिर्फ मिथक और कपोल कल्पना साबित करने पर मजबूर करती हैं। एक मजहब द्वारा हिन्दुओं को उन्हीं के देश में प्रताड़ित करने के ऐसे ही कई और किस्से हैं, जिन्हें मीडिया की कारस्तानी और राजनीतिक षड्यंत्रों ने कभी सामने आने ही नहीं दिया और जिन पर बात तक नहीं की गई है।