कश्मीरी पंडितों के वादी से विस्थापन की त्रासदी को 30 साल पूरे हो गए। इन 30 सालों में कश्मीरी पंडित उस दर्दनाक वक्त को और खूनी माहौल को कभी नहीं भूल सके हैं। 19 जनवरी को कश्मीरी पंडितों के पलायन के रूप में जाना जाता है। 1990 में इसी दिन सैकड़ों कश्मीरी पंडितों को मार दिया गया था। कई जगहों पर सामूहिक नरसंहारों को अंजाम दिया गया था।
कश्मीरी पंडितों की महिलाओं, बहनों, बेटियों के साथ गैंगरेप की वारदातों को अंजाम दिया गया था। कई लोगों को लकड़ी चीरने की मशीन से जिंदा चीर दिया गया था। वो खौफ की रातें थीं जब घरों में चिट्ठी फेंक कर भाग जाने को कहा जाता था। मस्जिदों से काफिरों कश्मीर छोड़ो के नारे लगाए जाते थे। कहा जाता था कि हमें कश्मीरी पंडितों की औरतों के साथ कश्मीर चाहिए, मर्द नहीं चाहिए। यहाँ निजाम-ए-मुस्तफा चलेगा। हिंसक और आक्रमक भीड़ सड़कों पर निकलती थी, लूटपाट करती थी और मंदिरों को तोड़ती थी। आखिरकार 19 जनवरी 1990 में कश्मीरी पंडित अपने घरों, सामानों को छोड़ कर कश्मीर से निकल गए और अपने ही देश में शरणार्थी बन गए। इन कश्मीरी पंडितों में से हर एक के पास दर्दनाक कहानी है।
हमें हिंदू औरतें चाहिए… कश्मीर की हर मस्जिद से 19/1/1990 की रात आ रही थी यही आवाज
यह सिलसिला 1990 तक ही सीमित नहीं रहा। ये कश्मीरी पंडित इस दर्दनाक हादसे के सालों बाद बाद भी इस नृशंसता के, इस जिहाद के शिकार हुए। हम बात कर रहे हैं 1997 की। जब अशोक कुमार रैना के चेहरे को 11 गोलियाँ से छलनी करके सिर्फ इसलिए हत्या कर दी गई, क्योंकि वो एक कश्मीरी पंडित थे। जबकि वो वहाँ के मुस्लिम बच्चों को पढ़ाने के लिए जाते थे।
अशोक कुमार रैना और इस घटना के बारे में बताते हुए उनके बेटे विकास रैना कहते हैं कि 1988 में ही कश्मीर में इस्लामिक आतंक का उद्भव हो गया था। इसका मकसद अल्पसंख्यकों खासकर कश्मीरी पंडितों में डर और दहशत पैदा करना था, जिससे कि वो निजाम-ए-मुस्तफा स्थापित कर सकें। इसके लिए उन्होंने कश्मीरी पंडितों को मारना और उत्पीड़ित करना शुरू किया। उन जिहादियों ने आर्मी और एयरफोर्स ऑफिसर्स को भी नहीं छोड़ा, उन्हें भी निशाना बनाया। इसके तहत 1989-1990 में लाखों कश्मीरी पंडितों को उनके कश्मीर से निकाला गया।
विकास कहते हैं, “मुझे आज भी वो दिन याद है, मैं और मेरी बहन सो रहे थे, तभी पापा आए और हमसे कहा कि जल्दी से तैयार हो जाओ। हमलोग कश्मीर छोड़कर जा रहे हैं और फिर हमलोग कुछ दोस्तों की मदद से अपने परिवार के साथ उधमपुर के लिए निकल गए। रास्ते में हमने देखा कि ट्रकों, कारों और बसों आदि में हजारों की संख्या में कश्मीरी पंडित जम्मू की तरफ जा रहे थे। मेरे पापा ने हमसे कहा कि अभी हमलोग कश्मीर से बाहर जा रहे हैं, क्योंकि फिलहाल ये जगह हमारे समुदाय के लिए सुरक्षित नहीं है। जब सब कुछ सामान्य हो जाएगा तो फिर हमलोग वापस आ जाएँगे। और ये दर्दनाक कहानी हर परिवार की है। हम अपने ही देश में शरणार्थी बन गए। हम रिफ्यूजी बनकर उधमपुर में रहने लगे।”
विकास आगे कहते हैं कि जिंदगी काफी संघर्ष के साथ बीत रही थी। मगर उन्हें यकीन था कि उनकी जिंदगी बेहतर हो जाएगी, क्योंकि वो अपने पेरेंट्स को हीरो मानते थे और उनका मानना था कि वो उनकी जिंदगी को बेहतर बना देंगे। वो कहते हैं कि उन्होंने अपने ग्रैंडपैरेंट्स और पैरेंट्स की आँखों में हमेशा ही दर्द और वेदना ही देखी। फिर उनके परिवार को पिता अशोक रैना के प्रिंसिपल के पोस्ट पर प्रमोशन की खबर के रूप में एक खुशखबरी मिली। उन्होंने बताया कि अशोक रैना उस समय मात्र 42 साल के थे, तो ये किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं थी। इस उम्र में भी उनके पास 21 साल के लेक्चररशिप का अनुभव था।
अशोक रैना की पोस्टिंग कारगिल (लद्दाख) में हुई। इस दौरान उनका परिवार उधमपुर से जम्मू में शिफ्ट हो गया। उन्होंने 1991 से 1994 तक कारगिल में तीन साल की सेवा पूरी की। इसके बाद उनका ट्रांसफर जम्मू में कर दिया गया। अशोक के साथ ही 14 अन्य का भी ट्रांसफर किया गया। विकास कहते हैं कि अशोक रैना को छोड़कर बाकी सभी को जम्मू में ही नियुक्त किया गया, जबकि उन्हें नई नियुक्ति दी गई। उनका ट्रांसफर गुल (रामबन) में कर दिया गया।
विकास बताते हैं कि जम्मू-कश्मीर सरकार के नियम के अनुसार, जिस किसी की भी पोस्टिंग 3 साल के लिए लद्दाख में हो चुकी होगी, उसे किसी सुरक्षित जगह पर पोस्टिंग दी जाएगी, वो भी उसके पसंद के हिसाब से। लेकिन अशोक रैना के 3 साल लद्दाख में बिताने के बाद भी आतंक प्रभावित क्षेत्र में पोस्टिंग दी गई। उन्होंने इसके लिए शिक्षा मंत्री से भी मिलकर बात की, लेकिन उन्होंने भी उनकी बात को नजरअंदाज कर दिया। उनके मौलिक अधिकार का भी हनन किया गया।
इसके बाद अशोक के पिता ने उनको वहाँ जाने से मना किया। क्योंकि गुल एक पहाड़ी इलाका है और यह आतंकवादी हिजबुल मुजाहिद्दीन ग्रुप का प्रभाव क्षेत्र था। हालाँकि पिता के मना करने के बाद भी अशोक रैना ने नौकरी ज्वाइन कर ली, क्योंकि वो अपने काम को लेकर काफी समर्पित थे। उन्होंने वहाँ पर जाकर शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना शुरू कर दिया।
अशोक रैना के साथ हुई दर्दनाक वाकये को याद करते हुए विकास कहते हैं, “मेरे पापा गर्मी की छुट्टियों में घर आए हुए थे। वो वापस जाने वाले थे। वो 14 जून 1997 का दिन था, हमें नहीं पता था कि अगला दिन हम सबकी जिंदगी का सबसे काला दिन होगा। अगले दिन मेरे पापा गुल के लिए निकलने वाले थे। शाम में मैं अपनी दादी को लेकर ऑप्टिशियन के पास गया। इसके बाद हमलोग जम्मू के शिव मंदिर गए। मैंने पापा से ढेर सारी बातें की और फिर वापस घर आ गए। घर पर रविंद्र जी और सुशील जी नाम के लेक्चरर आए। वो दोनो भी छुट्टियाँ खत्म होने के बाद वापस से नौकरी ज्वाइन करने के लिए जाने वाले थे, तो वो पापा के साथ अगले दिन के लिए डिस्कस करने आए थे कि कैसे जाना है।”
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विकास आगे कहते हैं, “अगली सुबह 15 जून 1997 को मेरे पापा सुबह-सुबह गुल के लिए निकल गए। उस समय मैं सो ही रहा था। मैंने अपनी माँ से कहा कि उन्होंने मुझे उठाया क्यों नहीं, मैं पापा को गुडबाय बोलना चाहता था। मुझे क्या पता था कि मैं अपने पापा को कभी गुडबाय नहीं बोल पाऊँगा। अगली सुबह 16 जून 1997 को मैं, मेरी माँ और दादी माँ सो रहे थे, तभी तकरीबन 4 बजे डोरबेल बजी। माँ ने दरवाजा खोला तो वहाँ पर कुछ पुलिस ऑफिसर्स थे। उन्होंने माँ से कहा कि जिस बस में मेरे पापा थे, उस पर आतंकवादियों ने हमला कर दिया, जिसमें कई लोग घायल हो गए। मैं और मेरी माँ, चाचा के घर गए और फिर वहाँ से घटनास्थल की तरफ दौड़े। 7 बजे तक सभी लगभग सभी अखबारों में खबर छप गई थी कि आतंकवादियों ने गुल में 3 कश्मीरी पंडितों की हत्या कर दी।”
विकास आगे उस दिन का दर्दनाक पीड़ा के बारे में बताते हुए कहते हैं, “मैंने अपना होश खो दिया था। वह दु:ख की बेला हम सबके लिए काफी लंबी और पीड़ादायक थी। हमारा परिवार उजड़ गया था, बिखर गए थे हमलोग। शाम में हमारे घर के बार उनकी डेड बॉडी आई। उस समय हमने अंतिम बार अपने पिता को देखा था। मैंने उनके माथे को चूमकर आखिरी गुडबाय बोला। मेरी बहन मुझे पकड़-पकड़ कर रो रही थी। सभी लोग लगातार रोए जा रहे थे और मेरा दिमाग काम करना बंद कर दिया था। मुझे याद है कि चेहरे पर 11 गोलियाँ लगने के बाद भी काफी निश्चलता थी, बॉडी भी सॉफ्ट थी। रात के 10:30 के आस-पास उनका अंतिम संस्कार किया गया। यह इंसानियत की मौत थी।”
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विकास कुछ प्रत्यक्षदर्शी के हवाले से बताते हैं कि आतंकवादियों द्वारा अशोक रैना की बस को गुल से 7 किलोमीटर पहले ही रोक लिया गया था। इसके बाद सभी हिंदुओं को बस से नीचे उतरने के लिए कहा गया। जब कुछ यात्रियों ने इसका विरोध किया तो आतंकवादियों ने कहा कि वो इन लोगों को नुकसान नहीं पहुँचाएँगे, उसके कमांडर सिर्फ इनसे बात करना चाहते हैं। उन आतंकवादियों ने यात्रियों को यकीन दिलाने के लिए पैगंबर मोहम्मद और कुरान की कसम भी खाई थी।
इसके बाद 6 हिंदुओं (4 कश्मीरी पंडित और 2 जम्मू के निवासी) को नीचे उतारा गया। इसमें से 2 यात्री भाग निकले। एक चट्टान कूदकर तो दूसरा पहाड़ों के ऊपर से भाग निकला। बाकी बचे चारों को वहाँ से 30 किलोमीटर दूर एक छोटी सी नदी के पास ले जाया गया और तीनों कश्मीरी पंडितों को गोली मार दिया गया, जबकि चौथे, जो कि जम्मू का था, उसे छोड़ दिया गया। मतलब साफ है- उनका निशाना कश्मीरी पंडित थे। आतंकवादियों ने जिन कश्मीरी पंडितों की हत्या की, उनके नाम हैं- अशोक कुमार रैना (प्रिंसिपल), रविंद्र काबू (लेक्चरर) और सुशील पंडिता (सीनियर टीचर)। विकास कहते हैं कि ये एक पूर्व-नियोजित टारगेटेड हत्या थी। उनके पिता की हत्या इसलिए की गई, क्योंकि वो एक कश्मीरी पंडित थे। उन्होंने कहा कि इस जघन्य अपराध को हिजबुल मुजाहिद्दीन और अमानुल्लाह गुज्जर ग्रुप के बिल्लू गुज्जर ने अंजाम दिया और इस दंश वो आज भी झेल रहे हैं।
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