यह देखना कितना दिलचस्प है कि भौतिकवादी पाश्चात्य देश खुद को जहाँ धार्मिक जीवनशैली से जितना मुक्त दिखाने का आडंबर करते हैं, उसके मूल में सारी दुनिया को ईसाइयत में तब्दील करने का लक्ष्य पलता है। इनके तरीके बेहद लुभावने हैं और पहनावे आकर्षक। इतने आकर्षक कि एक बार के लिए इन्हें देखकर एक सम्पन्न व्यक्ति भी इन्हें अपनाना चाहता है।
पूरा विश्व जिस समय कोरोना वायरस की महामारी से जूझ रहा है, उस समय उत्तराखंड संक्रमण के साथ-साथ मिशनरी धर्मांतरण से भी संघर्ष कर रहा है।
जहाँ हिन्दू जनेऊ पहनने, तिलक लगाने को बीते समय की बात कहते हैं और अपने धार्मिक क्रियाकलापों के अनुसरण करने में हिचकिचाते हैं, वहीं बाहरी देशों के आतताई, खुलकर दूसरों के धर्म में सेंध लगाते हुए यह साबित करते देखे जाते हैं कि ‘परमपिता जीसस’ ने बस हाथ के इशारे से तूफ़ान को रोककर अपने चेलों को तूफ़ान से बचाया और चेलों से भजन गवाकर उन्हें ‘चंगा’ किया। (यह सब आधा-अधूरा ज्ञान उस ‘जीसस भजन संग्रह’ और ‘परमपिता परमेश्वर की कहानियों’ से साभार- जो ‘ईसाई पर्यटक’ मुझे भी थमा गए थे।”
कार्ल मार्क्स ने कहा था कि धर्म अफ़ीम है। ईसाई मिशनरियों ने इस अफ़ीम को ग्रामीण और वंचितों की रगों में भरने का पूरा इंतजाम कर रखा है। मिशनरियों द्वारा अब इस अफ़ीम को चावल-राशन-बाइक-मुर्गा आदि में तब्दील कर दिया गया है। इस अफ़ीम के बदले वो उनसे उनके भविष्य से तो वंचित कर ही रहे हैं, साथ ही उनके वर्तमान के साथ भी घिनौना षड्यंत्र कर रहे हैं।
ऑपइंडिया पर इसाई धर्मांतरण पर आवाज उठाने के बाद जबरदस्त प्रतिक्रिया लोगों की ओर से देखने को मिली। उत्तराखंड राज्य के लगभग हर जिले से लोगों ने सम्पर्क कर अपने गाँव और कस्बे का हाल बताया। इसमें सबसे ज्यादा हैरान करने वाले देहरादून के पास के इलाकों के लोगों का अनुभव था। इनका कहना है कि देहरादून के पास रहने के बावजूद उनके नजदीकी गाँव के गाँव ईसाई बना दिए गए।
उत्तराखंड में वंचित और पिछड़े वर्ग की आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों का लाभ लेकर ईसाई मिशनरी किस प्रकार देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड राज्य को धर्मांतरण से प्रभावित कर रहे हैं यह सभी तथ्य हैरान करते हैं।
लेकिन उत्तराखंड के इस जनजातीय समाज में या तो हर कोई उतना ही वंचित है या फिर उतना ही संपन्न और इसका किसी की जाति से कोई भी सम्बन्ध नहीं है। लगभग हर परिवार के पास अपने खेत हैं, पशुधन है और अपने हुनर के अनुसार काम है। फिर ऐसे में अनुसूचित जाति को वंचित कहना कम से कम उत्तराखंड की दृष्टि में तो पूरे समाज के साथ भेदभाव कहा जा सकता है।
हालाँकि, वंचितों की इस लड़ाई को शहरों में रहने वाले वो सम्पन्न लोग अवश्य कमजोर करते हैं, जो प्रमोशन में आरक्षण की माँग के लिए धर्मांतरण की धमकी देते देखे जाते हैं।
इस तस्वीर में सन्देश अधूरा है। बाइबिल में इसका पूरा वर्णन इस तरह से है – “Go therefore and make disciples of all nations, baptizing them in[a] the name of the Father and of the Son and of the Holy Spirit”
जिसका हिंदी में अर्थ है, “इसलिए तुम जाओ, सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता, और पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से बप्तिज्मा दो, और उन्हें सब बातें जो मैंने तुम्हें आज्ञा दी हैं, मानना सिखाओ। और देखो, मैं जगत के अन्त तक सदा तुम्हारे संग हूँ (मत्ती 28:19-20)।”
बप्तिज्मा
बाइबिल में बताया गया है कि प्रभु यीशु ने अपने 12 प्रेषितों को शिष्य बनाने के लिए कहा और उन्हें उन सभी चीजों का निरीक्षण करन सिखाया, जो उन्होंने उन्हें करने की आज्ञा दी थी। एक शिष्य, एक शिक्षक, धर्म या विश्वास का अनुयायी या ‘बिलिवर’ होता है।
पवित्र पुस्तक बाइबिल के अनुसार, यह उद्घोष अपने स्वर्गारोहण से ठीक पहले यीशु ने कहा था। यह बप्तिज्मा के लिए यीशु के आज्ञा है। बाइबिल में बताया गया है कि बप्तिज्मा के अतिमहत्वपूर्ण होने का कोई और कारण नहीं, क्योंकि यीशु ने इसकी आज्ञा दी है।
बप्तिज्मा पिता, पुत्र और आत्मा के नाम से दिया जाता है। ये मिल कर एक ‘मसीही बप्तिज्मा’ को बनाते हैं। इस विधान के द्वारा एक व्यक्ति को कलीसिया (चर्च) की संगति में स्वीकार कर लिया जाता है। यह सब जानकारी इसलिए दी जानी आवश्यक हैं, ताकि ऑनलाइन बाइबिल क्लासेज़ का उदेश्य स्पष्ट हो सके।
प्रलोभन के बदले वंचितों की आस्था का व्यापार
एक ओर जहाँ हिन्दू धर्म हमेशा से ही सिर्फ और सिर्फ अपने दैनिक जीवन की गतिविधियों और आवश्यकताओं से ही अपनी संस्कृति को जोड़कर उसे अपना धर्म मानता आया, वहीं दूसरी ओर लाक्षित तरीकों से अन्य धर्म के लोगों ने इसे ही निशाना बनाने के अनेकों प्रयास किए हैं।
हम जानते हैं कि सदियों से मुगलों द्वारा हिंदुओं के बर्बरतापूर्ण धर्मांतरण और फिर ईसाइयों द्वारा, विशेषकर दक्षिण भारतीय गोवा जैसे राज्यों में खुद को सभ्यता का सूर्य बताने वाले ‘व्हाइटमैन बर्डेन सिद्दांत’ के उपासक, यही हिंदुओं को ईसाई बनाने वाले किस प्रकार अपना ध्येय पूरा करने में सफल रहे हैं।
दुर्भाग्यवश, जिस वंचित वर्ग को ईसाई मिशनरी अपना शिकार बनाते हैं, वह ईसाईयों द्वारा धर्मांतरण के इस बर्बर इतिहास को नहीं जानता। ना ही वह वर्ग इस धर्मांतरण के पीछे की व्यापक साजिश और उनके आडंबरों के भ्रम से ही परिचित है।
उत्तराखंड राज्य को यूँ तो ईसाई मिशनरियों ने बहुत गहराई से प्रभावित किया है, लेकिन जब इनके द्वारा आपदा, महामारी जैसी परिस्थितियों को धर्मांतरण का आसान जरिया बनाते देखा जाता है तब यह भेद करना मुश्किल हो जाता है कि क्या वास्तव में ये समाज के तालमेल को खंडित करने का प्रयास कर रहे हैं, या फिर ये वास्तव में उस देवता की सच्ची सेवा कर रहे हैं, जिसके नाम पर ईसाई मिशनरी वंचितों की आस्था का व्यापार कर लेते हैं।
कोरोना महामारी और ऑनलाइन बाइबिल क्लास
उससे भी बड़ी हैरान कर देने वाली बात जो देखने को मिली है वो ये कि कोरोना वायरस के दौरान जारी लॉकडाउन के बीच ईसाई मिशनरी तकनीक के इस्तेमाल से अपने एजेंडा को जारी रखने में सक्षम हैं।
ईसाई मिशनरी गाँव के युवाओं को ‘बाइबिल क्लास’ का ज्ञान देने के लिए उनसे लगातार सम्पर्क कर रहे हैं। ग्रामीण युवा इनसे लैपटॉप और इंटरनेट के जरिए जुड़कर वीडियो कॉन्फ्रेंस के द्वारा इन क्लासेज को अटेंड कर रहे हैं।
मिशनरी स्कूलों द्वारा इन्टरनेट पर दी जाने वाली मिशनरी क्लासेज़, जिनका प्रयोग अब उत्तराखंड के युवाओं पर किया जा रहा है –
यहाँ पर ये जिक्र करना भी आवश्यक है कि जहाँ आजकल महानगरों से घर लौटे हुए लोग ‘वर्क फ्रॉम होम’ के लिए अच्छे इंटरनेट या ब्रॉडबैंड सर्विस बड़ी मुश्किल से इस्तेमाल कर पा रहे हैं, वहीं ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण की गिरफ्त में आए युवा उनसे लगभग रोजाना ही ऑनलाइन बाइबिल क्लास ले रहे हैं।
20-25 की उम्र के ये उन परिवारों के युवा हैं, जिनके घर में आय का कोई साधन नहीं है। ये किसी रोजगार का हिस्सा नहीं हैं। खेती की जमीन ये लोग वर्षों पहले या तो बाहरी लोगों के हवाले कर चुके हैं, या फिर वो बंजर हैं। ऐसे में बेहतरीन तकनीक का इस्तेमाल और ‘लाइफस्टाइल’ सभी ग्रामीणों को हैरान करता है।
मिशनरी स्कूलों का सबसे बड़ा खेल और ब्रेनवॉश करने का षड्यंत्र तो यह है कि ना ही ये युवा खलकर अपनी संदिग्ध गतिविधियों के बारे में किसी से कहते हैं और ना ही ग्रामीण लोग सब कुछ जानने के बावजूद किसी कानूनी कार्रवाई के भय से इस बारे में अपनी पहचान स्पष्ट करना चाहते हैं।
ऐसे में ईसाइयों द्वारा किया जा रहा यह धर्मांतरण एक पहेली बनकर उभरा है और शासन और प्रशासन की नजरों से भी सुरक्षित है। युवाओं को दिए जा रहे लालच से वो एक प्रकार का नशा उन्हें उपलब्ध करवा रहे हैं।
नाम न बताने की शर्त पर कुछ लोगों का कहना है कि इन मिशनरी शिक्षाओं का केंद्र मसूरी में ही किसी जगह पर है, जहाँ समय-समय पर पार्टी, सैर और अन्य लुभावनी गतिविधियाँ आयोजित करवाई जाती हैं। वर्ष 2009-10 के आसपास एक बार मैंने स्वयं भी इनके ही एक दल से मित्रता कर इनकी कार्यशैली के बारे में कुछ जानकारियाँ जुटाईं थीं। जिनसे मैं कुछ नतीजों पर पहुँचने में सक्षम रहा।
जिन युवाओं के कंधों पर समाज की मुख्यधारा से जुड़ने की जिम्मेदारी होनी चाहिए थी, मिशनरियों द्वारा उन्हें मुख्य शिक्षा से ही विमुख कर उन्हें ब्रेनवॉश तो किया ही जा रहा है, साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि वो आने वाले समय में अपने समाज और अपनी सांस्कृतिक सभ्यता से ही कट जाएँ।
विज्ञान के समय में इस मजहबी बाइबिल की शिक्षा को लेकर यदि वो ‘पादरी’ बनते भी हैं, तो ऐसा कर के अपनी आने वाली पीढ़ियों को वो कौन सा भविष्य सौंपने जा रहे हैं? NCERT और स्कूल के सिलेबस की जगह पर बाइबिल के दोहे पढ़कर किस भविष्य की नींव रखी जा रही है?
ग्रामीण युवा, जिन्हें सरकारी स्कूलों ने ठीक से अंग्रेजी तक नहीं पढ़ाई, वो अब हिंदी में बाइबिल के अध्याय पढ़ रहे हैं। उनके सोशल मीडिया एकाउंट्स में सिर्फ वह चीजें शेयर की गई हैं, जो उन्हें किसी मिशनरी अध्याय के अनुसार अब तक के जीवन के लिए अपराधी बताती हैं।
पहले प्रचार फिर ‘प्रचारक’ में तब्दील होते ग्रामीण युवा
मिशनरियों के निशाने पर जो स्थानीय युवा हैं, उन्हें तो शायद इस बात की भनक भी ना हो कि जिस सच्चाई को वो अपने आस-पास के लोगों से छुपाते फिर रहे हैं, उन्हीं की तस्वीरें यही मिशनरी अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर ‘अचीवमेंट’ के रूप में अपने बीच के लोगों के साथ गर्व से शेयर कर रहे हैं।
इसका उदाहरण स्थानीय युवाओं के हाथों में “पवित्र बाइबिल” के ये संग्रह हैं जो मिशनरी स्कूल के संचालकों ने अपने अन्य मित्रों के साथ सोशल मीडिया पर शेयर किए हैं –
जैसे कि हमने पहले भी यह बात रखी थी कि उत्तराखंड राज्य का यह सुदूर इलाका, जो कि अब जाकर कहीं मुख्यधारा से जुड़ पाया है, हमेशा से ही मिशनरियों के निशाने पर रहा। ये लोग यहाँ आकर ग्रामीणों के साथ इतने घुल-मिल गए कि वो उनकी बोली-भाषा, रीति रिवाज और उनके आम जीवन का हिस्सा बन गए।
जो आज सामने नजर आ रहा है, वह वास्तव में कई वर्षों की चरणबद्ध प्रक्रिया का नतीजा है। स्थानीय लोग इस धर्मांतरण की महामारी को लेकर खुद भी इतने जागरूक नहीं थे, जो वो कभी इस विषय को महत्व देते।
इन तस्वीरों में आप देख सकते हैं कि बाहरी लोग भारत ही नहीं बल्कि उत्तराखंड की सीमा से लगे नेपाल को भी निशाना बना रहे हैं, जहाँ कि मिशनरी शिक्षा लेकर ये युवक गाँव-गाँव लौटकर चर्च का निर्माण करेंगे।
लेकिन यह भी विचारणीय बात है कि जिस अनुसूचित आबादी के युवा आज कुछ प्रलोभनों के कारण बाइबिल क्लास में रुचि ले रहे हैं, उसी अनुसूचित जाति के कुछ ही दूरी के गाँव के लोग आज अच्छी शिक्षा लेकर अपने भविष्य में निवेश कर रहे हैं, बेहतरीन रोजगार के लायक खुद को बनाने में सक्षम हैं यहाँ तक कि कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं जो आज अच्छे राजकीय पदों पर भी आसीन हैं और युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं।
लेकिन, एक पहलू यह भी है कि जिस बड़े मिशनरी अभियान से अनुसूचित जाति के युवाओं को अंधकार में धकेलने का काम किया जा रहा है, उस पर समाज स्वयं भी आगे आकर उनकी मदद करने, उन्हें इस क्षणिक प्रलोभन के दलदल से निकालने में मदद नहीं करना चाहता है। हालाँकि, अब यह ईसाइयत इन युवाओं में अपनी इतनी गहरी पैठ बना चुका है कि यह काम वास्तव में खतरनाक भी होता जा रहा है, जिसे कि इसकी तह में जाने वाले महसूस कर सकते हैं।
यह भी तय है कि ऐसी पहल करने वाले को बड़े संघर्ष और चुनौती से गुजरना होगा। लेकिन यदि उत्तराखंड के इस जनजातीय इलाके के सामंजस्य को बरकरार रखना है, और युवाओं को इस धर्मांतरण से बचाना है, तो इसे सरकार और स्थानीय लोगों को साथ मिलकर काम करना ही होगा।
महाराष्ट्र के पालघर में हम देख चुके हैं, ईसाइयों ने जिस आदिवासियों की आबादी को अपने चावल-राशन योजना से ब्रेनवाश करने का काम किया, वही भीड़ साधुओं की मॉब लिंचिंग करती नजर आई है। ऐसे में यदि यह सिलसिला हर राज्य को लीलने लगा तो भारत की संस्कृति बहुत लम्बे समय तक इसका परिचय रह पाने में सक्षम नहीं रहेगी।