सुप्रीम कोर्ट ने 94 साल की वीरा सरीन की याचिका पर केंद्र को नोटिस जारी किया है। सरीन ने 1975 में घोषित आपातकाल को ‘पूरी तरह असंवैधानिक’ घोषित करने की गुहार शीर्ष अदालत से लगाई है। जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार करते हुए कहा कि वह इस पहलू पर भी विचार करेगी कि क्या 45 साल बाद आपातकाल लागू करने की वैधानिकता पर विचार करना ‘जरूरी’ या ‘व्यावहारिक’ है।
Supreme Court agrees to examine whether it would be feasible or desirable to look into Constitutional validity of Emergency of 1975, after passage of 45 years.
— ANI (@ANI) December 14, 2020
94 साल की वीरा सरीन चाहती हैं कि चार दशक पहले उनका और उनके बच्चों का जो भी आपातकाल की वजह से नुकसान हुआ, उसकी अब भरपाई हो। सुप्रीम कोर्ट में डाली गई याचिका के अनुसार, तत्कालीन सरकार (इंदिरा सरकार) ने उनके पति और उन पर ‘अनुचित और मनमाने ढंग से डिटेंशन के आदेश’ जारी किए। इसके कारण उन्हें देश छोड़ना पड़ा। सरकार के आदेशों से उनका बिजनेस ठप्प हो गया। वहीं कई मूल्यवान वस्तुओं को अपने कब्जे में ले लिया। इसके लिए उन्होंने अपनी याचिका में 25 करोड़ रुपए के मुआवज़े की माँग की है।
वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे इस मामले की पैरवी कर रहे हैं। न्यायाधीश एसके कौल की अगुवाई वाली पीठ ने याचिकाकर्ता को निर्देश दिया है कि वह इसे संशोधित करके आगामी शुक्रवार (18 दिसंबर 2020) तक जमा करे। न्यायाधीश दिनेश माहेश्वरी और न्यायाधीश ऋषिकेश रॉय भी इस पीठ का हिस्सा हैं। पीठ ने यह भी कहा कि भले लोगों पर तमाम अत्याचार हुए हैं, लेकिन आपातकाल के सभी पहलुओं का दोबारा ज़िक्र करना सही नहीं होगा। उस दौर के 45 साल गुज़र जाने के बाद उन घावों को दोबारा कुरेदना सही नहीं होगा। पीठ ने स्पष्ट किया है कि वह सिर्फ आपातकाल की संवैधानिक वैधता के पहलू पर विचार करेगी।
हरीश साल्वे ने महिला का पक्ष रखते हुए कहा कि आपातकाल ‘छल’ था और यह संविधान पर ‘सबसे बड़ा हमला’ था क्योंकि महीनों तक मौलिक अधिकार निलंबित कर दिये गये थे। उन्होंने कहा, ‘‘यह हमारे संविधान पर सबसे बड़ा हमला था। यह ऐसा मामला है जिस पर हमारी पीढ़ी को गौर करना होगा। इस पर शीर्ष अदालत को फैसला करने की आवश्यकता है। यह राजनीतिक बहस नहीं है। हम सब जानते हैं कि जेलों में क्या हुआ। हो सकता है कि राहत के लिये हमने बहुत देर कर दी हो लेकिन किसी न किसी को तो यह बताना ही होगा कि जो कुछ किया गया था वह गलत था।’’
इस दलील पर न्यायाधीश कौल ने ज़िक्र किया कि 1975 में ऐसा कुछ तो हुआ था जो नहीं होना चाहिए था। साल्वे ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता ने न्यायालय का दरवाज़ा इसलिए खटखटाया है क्योंकि आपातकाल के दौरान उनके पति हिरासत में थे। इस पर न्यायालय का कहना था कि मामले से संबंधित लोग जीवित नहीं है। जवाब में हरीश साल्वे ने हिटलर के अत्याचारों का हवाला दिया। उनके मुताबिक़, “हिटलर भले आज जीवित नहीं है लेकिन उसके अत्याचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।”
साल्वे ने आपातकाल के क्रूर दौर की आलोचना करते हुए कहा, “उन 19 महीनों के दौरान मौलिक अधिकारों का हनन हुआ था। अगर इतिहास में सुधार नहीं किया गया तो वह खुद को ज़रूर दोहराता है। उस समय सत्ता और शक्ति का बड़े पैमाने पर दुरूपयोग हुआ था जिससे लोगों के मन में भय पैदा हुआ था। याचिकाकर्ता सिर्फ इस बात से बहुत खुश होगी अगर आपातकाल को ‘असंवैधानिक’ घोषित कर दिया जाए।”
याचिका में सरीन ने कहा है कि सरकार का यह अत्याचार उनके पति बर्दाश्त नहीं कर पाए और उन्होंने दबाव में आकर दम तोड़ दिया। इसके बाद वह अकेले हर परेशानी को झेलती रहीं और उन कार्रवाइयों को खुद ही सामना किया जो उनके ख़िलाफ़ आपातकाल में शुरू हुई थीं।