Sunday, September 15, 2024
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जज का काम फैसला देना, उपदेश देना नहीं: जानिए क्यों ‘दो मिनट का मजा’ पर घिरी कलकत्ता हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट ने क्यों बदला फैसला

कलकत्ता हाई कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में यह भी कहा था, “हमें कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि केवल एक लड़की ही दुर्व्यवहार का शिकार होती है, क्योंकि लड़के भी दुर्व्यवहार का शिकार होते हैं। माता-पिता के मार्गदर्शन के अलावा, इन पहलुओं और रिप्रोडक्टिव हेल्थ और हाइजीन पर जोर देने वाली यौन शिक्षा हर स्कूल के पाठ्यक्रम का हिस्सा होनी चाहिए।”

सुप्रीम कोर्ट ने कलकत्ता हाई कोर्ट के उस फैसले को खारिज कर दिया है, जिसमें लड़कियों को अपनी यौन इच्छाओं पर काबू रखने की सलाह दी गई थी। मामले का स्वत: संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायाधीश का काम निर्णय लेना है, उपदेश देना नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कलकत्ता हाई कोर्ट की टिप्पणी आपत्तिजनक, अप्रासंगिक, उपदेशात्मक और अनुचित थी। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि इस निर्णय से गलत संकेत गया है।

दरअसल, कलकत्ता हाई कोर्ट के जस्टिस चित्तरंजन दास और पार्थ सारथी सेन की पीठ ने 18 अक्टूबर 2023 को एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि किशोर लड़कियों को यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए। दो मिनट के सुख के लिए सेक्स से बचना चाहिए। इसके साथ ही नाबालिग से रेप के दोषी युवक को बरी कर दिया। बकौल कोर्टस युवक का पीड़िता के साथ ‘रोमांटिक सम्बन्ध’ थे।

कलकत्ता हाई कोर्ट की टिप्पणी का ‘किशोरों की निजता के अधिकार के संबंध में’ शीर्षक से सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुयान की पीठ ने सुनवाई की। मंगलवार (20 अगस्त 2021) को सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया और उनकी टिप्पणियों पर असहमति जताई।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “न्यायालय के निर्णय में न्यायाधीश की विभिन्न विषयों पर व्यक्तिगत राय शामिल नहीं हो सकती। इसी तरह, न्यायालय द्वारा परामर्श क्षेत्राधिकार का प्रयोग पक्षों को सलाह देकर नहीं किया जा सकता। न्यायाधीश को किसी मामले का निर्णय करना होता है, उपदेश नहीं देना होता। निर्णय में अप्रासंगिक और अनावश्यक सामग्री शामिल नहीं हो सकती।”

सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा, “निर्णय सरल भाषा में होना चाहिए और बहुत अधिक नहीं होना चाहिए। संक्षिप्तता गुणवत्तापूर्ण निर्णय की पहचान है। हमें याद रखना चाहिए कि निर्णय न तो कोई थीसिस है और न ही साहित्य का कोई टुकड़ा। हालाँकि, हम पाते हैं कि विवादित निर्णय में न्यायाधीश की व्यक्तिगत राय, युवा पीढ़ी को सलाह और विधायिका को सलाह शामिल है।”

निर्णय लिखने में किस बात का ध्यान रखें कोर्ट: सुप्रीम कोर्ट

पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणी विवाद को तय करने के लिए ‘पूरी तरह अप्रासंगिक’ और ‘चौंकाने वाली’ है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अपील में दोषसिद्धि के आदेश पर विचार करते समय न्यायालयों के निर्णय में निम्नलिखित बातें शामिल होनी चाहिए:

(i) मामले के तथ्यों का संक्षिप्त विवरण, (ii) अभियोजन पक्ष और बचाव पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य की प्रकृति, यदि कोई हो, (iii) पक्षों द्वारा प्रस्तुत किए गए तर्क, (iv) साक्ष्य के पुनर्मूल्यांकन पर आधारित विश्लेषण और (v) अभियुक्त के अपराध की पुष्टि करने या अभियुक्त को बरी करने के कारण।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अपीलीय न्यायालय को मौखिक और दस्तावेजी, दोनों तरह के साक्ष्यों की जाँच करनी चाहिए और उनका पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए। इसके बाद अपीलीय न्यायालय को अभियोजन पक्ष के साक्ष्य को स्वीकार करने या अभियोजन पक्ष के साक्ष्य पर अविश्वास करने के कारणों को दर्ज करना चाहिए। न्यायालय को यह तय करने के लिए कारण दर्ज करने चाहिए कि अभियुक्त के खिलाफ आरोप साबित हुए हैं या नहीं।

सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि इस मामले में यदि दोषसिद्धि हो जाती है तो न्यायालय को सजा की वैधता और पर्याप्तता से निपटना होगा। ऐसे मामले में सजा की वैधता और पर्याप्तता पर कारणों के साथ एक निष्कर्ष दर्ज किया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि ऐसा करने के पीछे का ये उद्देश्य है कि जिसके पक्ष में या जिसके विपक्ष में निर्णय दिया या है, उन्हें पता चले कि ऐसा क्यों किया गया। इसलिए निर्णय साधारण भाषा में होनी चाहिए और ठोस तथ्यों पर आधारित होना चाहिए।

पिछली सुनवाई में भी सुप्रीम कोर्ट ने जताई थी चिंता

इस साल जनवरी में सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान कलकत्ता हाई कोर्ट के इस फैसले को गलत और परेशान करने वाला बताया था। शीर्ष अदालत स्वत: संज्ञान लेकर इस मामले की सुनवाई कर रही है। 4 जनवरी 2024 को मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की बेंच ने हाई कोर्ट के फैसले की वैधता पर सवाल उठाते हुए टिप्पणियों को ‘समस्याग्रस्त’ बताया।

पिछली सुनवाई के दौरान भी सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के कुछ हिस्सों को बेहद आपत्तिजनक और अनुचित था। साथ ही कहा था कि न्यायाधीशों से यह उम्मीद नहीं की जाती कि वे अपने निजी विचार रखें या भाषण दें। यह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत किशोरों के अधिकारों का पूरी तरह उल्लंघन है।

पिछली सुनवाई के दौरान ही शीर्ष अदालत ने इस मामले में राज्य सरकार को नोटिस जारी कर इसके खिलाफ अपील दायर करने को लेकर जवाब माँगा था। गुरुवार को हुई सुनवाई के दौरान राज्य सरकार ने इस फैसले के खिलाफ अपील दायर करने की जानकारी दी। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इस अपील के साथ स्वत: संज्ञान की कार्यवाही को जोड़ने के लिए भी कहा है।

क्या है मामला?

हाई कोर्ट के जस्टिस चित्तरंजन दास और पार्थ सारथी सेन ने 18 अक्टूबर 2023 को नाबालिग लड़की से रेप के दोषी एक युवक को बरी कर दिया था। इस दौरान कोर्ट ने कहा था कि किशोर लड़कियों को यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए। दो मिनट के सुख के लिए सेक्स से बचना चाहिए। इसके साथ ही नाबालिग से रेप के दोषी युवक को बरी कर दिया। युवक का पीड़िता के साथ ‘रोमांटिक सम्बन्ध’ थे।

इतना ही नहीं, कलकत्ता हाई कोर्ट की पीठ ने इस तरह के मामलों में यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम (POCSO) के इस्तेमाल पर भी चिंता व्यक्त की थी। 16 साल से अधिक उम्र के किशोरों के बीच सहमति से सेक्स की स्थिति में इसे अपराध की श्रेणी से हटाने का सुझाव दिया था। हाई कोर्ट ने कम उम्र में यौन संबंधों को लेकर किशोरों को नसीहत भी दी थी। 

कलकत्ता हाई कोर्ट ने कहा था, “प्रमुख एंड्रोजेनिक स्टेरॉयड टेस्टोस्टेरोन हॉर्मोन है, जो मुख्य रूप से पुरुषों में वृषण (Testicle) और महिलाओं के अंडाशय (Ovaries) से और पुरुषों और महिलाओं दोनों में अधिवृक्क ग्रंथियों (Adrenal Glands) से थोड़ी मात्रा में स्रावित होता है। हाइपोथैलेमस और पिट्यूटरी ग्लैंड्स टेस्टोस्टेरोन की मात्रा को नियंत्रित करते हैं, जो मुख्य रूप से (पुरुषों में) सेक्स या कामेच्छा के लिए जिम्मेदार होता है।

हाई कोर्ट ने आगे कहा था, “इसका अस्तित्व शरीर में है। इसलिए जब संबंधित ग्रंथि उत्तेजना से सक्रिय हो जाती है, तो यौन इच्छा जागृत होती है। लेकिन संबंधित जिम्मेदार ग्रंथि का सक्रिय होना स्वचालित नहीं है। क्योंकि इसे हमारी दृष्टि, श्रवण, कामुक सामग्री पढ़ने और विपरीत लिंग के साथ बातचीत से उत्तेजना की आवश्यकता होती है। यौन इच्छा हमारी अपनी क्रियाओं से जागृत होता है।”

हाई कोर्ट ने कहा था, “किशोरों में सेक्स सामान्य है लेकिन यौन इच्छा या ऐसी इच्छा की उत्तेजना व्यक्ति, पुरुष या महिला के कुछ कार्यों पर निर्भर होती है। इसलिए यौन इच्छा बिल्कुल भी सामान्य और आदर्श नहीं है। अगर हम कुछ क्रियाएँ बंद कर देते हैं तो यौन इच्छा की उत्तेजना सामान्य नहीं रह जाती, जैसा कि हमारी चर्चा में कहा गया है।”

इस दौरान अदालत ने किशोरों को सेक्स की शिक्षा देने पर भी जोर दिया। कहा कि इसकी शुरुआत घर से होनी चाहिए। माता-पिता पहले शिक्षक होने चाहिए। बच्चों, खासकर लड़कियों को बैड टच, अश्लील इशारों के बारे में बताना आवश्यक है। कम उम्र में सेक्स से स्वास्थ्य और बच्चे पैदा करने की क्षमता पर पड़ने वाले दुष्परिणामों के बारे में बताया जाना चाहिए।

कलकत्ता हाई कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में यह भी कहा था, “हमें कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि केवल एक लड़की ही दुर्व्यवहार का शिकार होती है, क्योंकि लड़के भी दुर्व्यवहार का शिकार होते हैं। माता-पिता के मार्गदर्शन के अलावा, इन पहलुओं और रिप्रोडक्टिव हेल्थ और हाइजीन पर जोर देने वाली यौन शिक्षा हर स्कूल के पाठ्यक्रम का हिस्सा होनी चाहिए।”

हाई कोर्ट ने कहा था यह प्रत्येक महिला का कर्तव्य/दायित्व है कि वे अपने शरीर की रक्षा करें। अपनी गरिमा और आत्म-सम्मान की रक्षा करें। लैंगिक बाधाओं को परे रख अपने सम्पूर्ण विकास के लिए प्रयास करें। यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखें, क्योंकि समाज की नजरों में वे तब हार जाती हैं, जब मुश्किल से दो मिनट के यौन सुख का आनंद लेने के लिए तैयार हो जाती हैं। अपने शरीर की सीमाओं और उसकी निजता के अधिकार की रक्षा करें।

वहीं किशोर पुरुषों के लिए हाई कोर्ट ने कहा था, ”किसी युवा लड़की या महिला के उपरोक्त कर्तव्यों का सम्मान करना एक किशोर पुरुष का कर्तव्य है और उसे अपने दिमाग को एक महिला, उसकी मूल्यों, उसकी गरिमा, गोपनीयता और उसकी शारीरिक सीमाओं का सम्मान करना चाहिए।”

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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