Tuesday, May 21, 2024
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भक्तों से चढ़ावा लेने पर तमिलनाडु पुलिस ने 4 पुजारियों को किया गिरफ्तार: जानिए अंग्रेजों का काला कानून हिंदुओं को कैसे कर रहा प्रताड़ित

जब अंग्रेजों ने मद्रास धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम 1925 लागू किया तो मुस्लिमों और ईसाइयों ने इसका भारी विरोध किया। इसके बाद इन दोनों समुदायों को इन से बाहर कर दिया गया। इसके बाद 1927 में इस कानून को केवल हिंदुओं पर लागू किया गया और इसका नाम बदलकर मद्रास हिंदू धार्मिक और बंदोबस्ती अधिनियम 1927 कर दिया गया।

देश को आजाद हुए लगभग 77 साल हो गए हैं। भाजपा की सरकार अंग्रेजों के दमनकारी कानूनों को बदलने का लगातार प्रयास कर रही है। हालाँकि, मंदिरों को लेकर अंग्रेजों के कानून आज भी अपने बदले स्वरूप में लागू हैं। अंग्रेजों ने हिंदुओं के मंदिरों एवं अन्य स्थलों को अपनी निगरानी में ले लिया था। अब ऐसे ही कानून के आधार पर तमिलनाडु पुलिस ने अब कुछ पुजारियों को गिरफ्तार कर लिया है।

तमिलनाडु के मेट्टुपलयम के पास स्थित थेकमपट्टी में वाना बद्रकालियाम्मन मंदिर के चार पुजारियों को पुलिस ने गुरुवार (25 अप्रैल 2024) की रात को गिरफ्तार कर लिया। पुजारियों पर आरोप है कि उन्होंने भक्तों द्वारा चढ़ाए गए पैसे को हड़प लिया। एक शिकायत के बाद मंदिर के सहायक आयुक्त ने चार पुजारियों और वंशानुगत ट्रस्टी वसंत संपत के खिलाफ मामला भी दर्ज कराया है।

शिकायत के आधार पर तमिलनाडु पुलिस ने जाँच की और उसके बाद चारों पुजारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। जिन पुजारियों को गिरफ्तार किया हैं, उनकी पहचान सुलुर के रहने वाले 36 वर्षीय आर रघुपति, मेट्टुपलयम के रहने वाले 47 वर्षीय एस दंडपाणि, 54 साल के सरवनन और गोबिचेट्टिपलयम के 33 वर्षीय विष्णु कुमार के रूप में हुई है। वहीं, मंदिर के वंशानुगत ट्रस्टी वसंत संपत फरार हैं।

एक पुलिस अधिकारी का कहना है कि चारों पुजारियों को सीसीटीवी कैमरे में भक्तों द्वारा अपनी थाली में छोड़े गए चढ़ावे को अपने घर ले जाते हुए पकड़ा गया था। हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती (एचआर एंड सीई) विभाग के सहायक आयुक्त और मंदिर के कार्यकारी अधिकारी यूएस कैलासमूर्ति ने कहा कि मंदिर के पुजारियों को चढ़ावे के पैसे को मंदिर की हुंडी में जमा करना होता है।

कैलासमूर्ति ने कहा, “इस आशय का एक सरकारी आदेश है। मद्रास उच्च न्यायालय ने भी इस प्रथा का समर्थन किया है और प्लेट पर संग्रह सहित पूरे दान को मंदिर के राजस्व के रूप में मानने का आदेश दिया है।” उन्होंने कहा कि मंदिर प्रशासन ने पुजारियों पर नजर रखने के लिए एक सीसीटीवी कैमरा लगाया है, ताकि यह देखा जा सके कि वे थाली की राशि को हुंडी में जमा कर रहे हैं या नहीं।

कैलासमूर्ति ने कुछ महीने पहले मेट्टुपलयम न्यायिक मजिस्ट्रेट अदालत के समक्ष दायर अपनी याचिका में कहा, “चारों लोग इस प्रथा का पालन नहीं कर रहे थे।” अदालत ने इस साल 14 मार्च को मेट्टुपालयम पुलिस को पुजारियों और उनका समर्थन करने वाले मंदिर ट्रस्टी के खिलाफ उचित कार्रवाई करने का निर्देश दिया था। इसके बाद पुलिस ने इनके खिलाफ मामला दर्ज करके इन्हें गिरफ्तार कर लिया।

अंग्रेजों का कानून और मंदिर पर नियंत्रण

दरअसल, भारत में आने से पहले हिंदू मंदिरों का प्रबंधन उसे बनवाने वाले राजा-महाराजाओं की निगरानी में स्थानीय समुदाय द्वारा किया जाता था। मैसूर, त्रावणकोर और कोचीन जैसी हिंदू शासकों ने इस लोकतांत्रिक स्थिति में भी मंदिरों की देखरेख की परंपरा को बनाए रखा। ईस्ट इंडिया कंपनी की अगुवाई में अंग्रेजों ने भारत में जब राज कायम किया तो मंदिरों को राजस्व के एक प्रमुख स्रोत के रूप में देखा।

इस मामले में दक्षिण भारत के मंदिरों पर अंग्रेजों की विशेष निगाह रही, क्योंकि उधर के अधिकांश मंदिर मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण से बच गए थे। इस बीच साल 1796 में मद्रास के ब्रिटिश कलेक्टर ने कोंजीवरम (कांचीपुरम) में हिंदू मंदिरों का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। इसी तरह 1801 में यह घोषित किया गया कि तिरुपति के सभी मंदिर अर्कोट के जिला कलेक्टर के नियंत्रण में रहेंगे।

द प्रिंट में छपे अभिनव चंद्रचूड़ की लेख के अनुसार, इस आदेश में कहा गया कि जो मंदिर प्रशासन या पुजारी मंदिरों के धनों का दुरुपयोग करने पर उन्हें दंडित किया जाएगा। इसके बाद अंग्रेज सरकार ने जल्द ही अन्य मंदिरों और धार्मिक संस्थानों के नियंत्रण एवं प्रशासन के लिए कानून बनाना शुरू कर दिया। सन 1806 में सरकार ने आधुनिक ओडिशा में जगन्नाथ मंदिर के ‘प्रबंधन’ के लिए नियम जारी किए।

इस नियम के तहत मंदिर का प्रबंधन तो पुजारियों की एक समिति के पास थी, लेकिन किसी कदाचार की स्थिति में अंग्रेज सरकार उन्हें हटा सकती थी। हालाँकि, यह व्यवस्था बहुत लंबे समय तक नहीं चली। 1809 में जगन्नाथ मंदिर का प्रबंधन खोरदाह के राजा को स्थानांतरित कर दिया गया, जिन्हें मंदिर का ट्रस्टी नियुक्त किया गया था। हालाँकि, अंग्रेजी सरकार ने मंदिर पर कुछ नियंत्रण बरकरार रखा।

इसके तुरंत बाद अंग्रेजी सरकार ने मंदिरों के प्रशासन को विनियमित करने के लिए बंगाल, मद्रास और बॉम्बे में नियम बनाए। सन 1810 में बंगाल के लिए कानून बनाया गया था। इसके पीछे अंग्रेज सरकार ने तर्क दिया कि लोगों द्वारा मंदिरों को दिए गए बड़े दान और योगदान का उन संस्थानों के प्रबंधकों द्वारा दुरुपयोग और गबन किया जा रहा था। इन कानूनों के तहत सरकार ने इन पर निगरानी शुरू कर दी।

इसी तरह का एक कानून सन 1817 में मद्रास प्रांत के लिए बनाया गया। सन 1827 में बंबई के लिए एक कानून बनाया गया। इसमें कहा गया था कि जिन भूमियों को करों का भुगतान करने से छूट दी गई थी उन पर अब कर लगाया जाएगा। इस तरह अंग्रेज सरकार विभिन्न उपायों से इन मंदिरों पर निगरानी रखने लगी और भ्रष्टाचार के आरोप में मंदिर प्रशासन की बेदखली अपने हिसाब से करने लगी।

सन 1833 तक मद्रास सरकार 7600 हिंदू मंदिरों के प्रशासन की प्रभार देखती थी। हालाँकि, इंग्लैंड के राजा के हस्तक्षेप के 1840 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक निर्देश जारी किया कि मंदिरों को उनके ट्रस्टी को लौटाया जाएगा। इसके बाद धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम 1863 आया, जिसने मंदिर प्रशासन को ब्रिटिश सरकार से ट्रस्टियों को सौंप दिया गया।

जब अंग्रेजों ने मद्रास धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम 1925 लागू किया तो मुस्लिमों और ईसाइयों ने इसका भारी विरोध किया। इसके बाद इन दोनों समुदायों को इन से बाहर कर दिया गया। इसके सन 1927 में इस कानून को केवल हिंदुओं पर लागू किया गया और इसका नाम बदलकर मद्रास हिंदू धार्मिक और बंदोबस्ती अधिनियम 1927 कर दिया गया।

सन 1935 के अधिनियम XII के माध्यम से कानून में थोड़ा सा परिवर्तन पेश किया गया। इसके माध्यम से मंदिरों को सरकार द्वारा अधिसूचित किया जा सकता था और उनके प्रशासन को अपने कब्जे में लिया जा सकता था। इस तरह हिंदू धार्मिक बंदोबस्ती बोर्ड ने मंदिरों को सँभालने और प्रशासन करने की शक्तियाँ ग्रहण कर लीं। इस बोर्ड में तीन से पाँच सदस्य होते थे।

कॉन्ग्रेस सरकार और मंदिर पर नियंत्रण

देश आजाद होने के बाद तमिलनाडु सरकार ने 1951 में हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम 1951 नामक एक अधिनियम पारित किया और मंदिरों एवं उनकी संपत्ति का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। इसे मद्रास उच्च न्यायालय और उसके बाद उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई। इसके बाद 1951 अधिनियम के कई प्रावधानों को दोनों अदालतों द्वारा रद्द कर दिया गया था।

कुछ बदलावों के साथ तमिलनाडु हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम 1959 में पारित किया गया। उस समय देश में कॉन्ग्रेस की सरकार थी। इसमें कहा गया है कि अधिनियम का उद्देश्य यह देखना था कि धार्मिक ट्रस्टों और संस्थानों का प्रबंधन ठीक से किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि आय का दुरुपयोग न हो। इसके बाद से यह कानून अभी भी जारी है।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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