जातीयता से लेकर मजहब, इतिहास और भौगोलिकता कुकी समाज दशकों से अपनी पहचान को अलग-अलग रूप देता रहा है। बताया जाता है कि ये लोग म्यांमार के चीन क्षेत्र से भारत में आए थे। ये इलाका सीमा पर ही स्थित है। बताया जाता है कि चीन-कुकी-मिजो (CHIKUMI) समुदाय अधिकतर ईसाई मजहब का अनुसरण करते हैं। लेकिन, क्या आपको पता है कि उनके पूर्वजों को लेकर एक थ्योरी ये भी है कि ये लोग इजरायल से आकर भारत में बसे थे।
मणिपुर में जब कुकी-मैतेई हिंसा के दौरान कुकी समाज के घरों में आग लगाई गई थी, तब इजरायली मीडिया ने भी इसे खूब कवर किया था। कुकी समाज ने यहूदी राष्ट्र से भी मदद की माँग की है, जिसके बाद एक बार फिर से कुकी-इजरायल संबंधों को लेकर चर्चा शुरू हो गई। ऐसे में अब सवाल ये उठता है कि मणिपुर में जो आज कुकी समाज रह रहा है, वो क्या है। आइए, इस पर चर्चा करते हैं कि कुकी समाज और इजरायल का क्या संबंध है।
आज का कुकी समाज कौन है
जहाँ तक चीन-कुकी-मिजो जनजातीय समाज की बात है, वो उत्तर-पूर्वी राज्यों मणिपुर, मिजोरम, असम, मेघालय और त्रिपुरा में बसे हुए हैं। ये सामान्यतः म्यांमार और बांग्लादेश से लगी सीमावर्ती इलाकों में ये रहते हैं। उन्हें तिब्बत-बर्मा भाषाई समूह का हिस्सा माना जाता है। इनका ताल्लुक मिजोरम के मिजो और म्यांमार के चीन से भी है। कुकी समाज के भीतर भी 20 समुदाय आते हैं, अधिकतर ईसाई ही हैं। वो माइग्रेशन ही कारण है कि इन्हें ‘नए कुकी’ और ‘पुराने कुकी’ के रूप में जाना जाता है।
‘ओल्ड कुकीज़’ उन्हें कहा जाता है, जो सन् 1600 या उससे पहले नॉर्थ-ईस्ट के राज्यों में माइग्रेट हुए थे। वहीं ‘न्यू कुकीज’ उन्हें कहा जाता है, जो 18वीं या 19वीं सदी में आए। CHIKUMI से जुड़े जितने भी साहित्य हैं, वो बताते हैं कि कई चरणों में इनका पलायन संपन्न हुआ। निश्चित रूप से ये नहीं कहा जा सकता कि वो उत्तर-पूर्वी राज्यों के मूलनिवासी हैं या नहीं। हालाँकि, म्यांमार के चीन स्टेट से आए हुए कुकी समाज के बारे में बहुत कुछ नहीं पता है।
फिर कुकी समाज का इजरायल से क्या संबंध है?
यहूदी मानते हैं कि 3000 साल पहले इजरायल के उत्तरी साम्राज्य के 10 समुदायों को अश्शूर से आए असीरियन लोगों के हमले के कारण पलायन करना पड़ा था। उसके बाद से उनके बारे में बहुत कुछ पता नहीं चल पाया। इजरायली लोगों का मानना है कि उस समय पलायन करने वाले ये लोग वापस आएँगे और तब एक नए युग का प्रारंभ होगा। उस समय इन्हीं में से एक राजा डेविड का वंशज मसीहा भी होगा।
माना जाता है कि जो समुदाय खो गए हैं, वो जहाँ जाकर बसे वहीं की संस्कृति में घुल-मिल गए हैं। कुकी समाज को भी ऐसे ही एक ट्राइब के रूप में जाना जाता है, जिसे वो ‘Bnei Menashe’ कहा जाता है। इन्हें पैगंबर जोसेफ के बेटे बिबिलिकल मनस्सेह के वंशजों के रूप में जाना जाता है। बताया जाता है कि 1950 के दशक में मिजोरम-मणिपुर के 10,000 कुकी लोगों ने ईसाई मजहब छोड़ कर यहूदी मजहब अपना लिया था, जब उन्हें अपनी तथाकथित वास्तविक मातृभूमि का पता चला था।
कैसे ये समुदाय अपने कथित मूलस्थान से परिचित हुआ, इसकी भी एक अलग कहानी है। इसकी शुरुआत 1950 के दशक में हुई थी। मिजोरम के बुआल्लॉन में मेई चलाह नाम के एक मजहबी मंत्री ने बताया था कि उसने सपने में आया है कि कुकी लोग ज़िओन समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। साथ ही उन्होंने बताया था कि सपने में ये भी आया कि कुकी लोगों को अब अपने मूलस्थान की तरफ लौट चलना चाहिए।
इतिहास की बात करें तो कुकी समाज जीववाद (Animism), अर्थात पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं के अलाव प्रकृति की पूजा करता रहा है। साथ ही वो ‘मनमासी’ (मानसिया) समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। इसके बाद वहाँ मिशनरियों का प्रभाव बढ़ने लगा और कई जनजातीय समुदायों, खासकर कुकी लोगों ने ईसाई मजहब अपना लिया। ये मिशनरी ब्रिटेन और अमेरिका से आए थे। बनेई मेनाशे कम्युनिटी का दावा है कि धर्मांतरण के दौरान उन्होंने ईसाई मजहब और अपने परंपराओं के बीच समानता पाई।
मिशनरियों ने उन्हें खूब बाइबिल की कहानियाँ सुनाईं और खुद की परंपराओं से समानता पाते हुए उन्होंने थोक में धर्मांतरण किया। ब्रिटिश मिशनरियों को भी खुद के और इनकी परंपराओं में समानता मिली। दावा किया जाता है कि कुकी लोगों के कुछ प्राचीन गानों में बाइबिल के शब्द मिलते हैं। ‘सिकपुई हला’ उनमें से ही एक गाना है, एक कुकी सब-ट्राइब हमार द्वारा सदियों से गाया जाता रहा है।
ये लोग फसल की कटाई के मौसम ‘सिकपुइरोइ’ के दौरान इसे गाते हैं। ये गाना इजिप्ट से इजरायली लोगों के पलायन की बात करता है। फिर इसमें बताया जाता है कि कैसे लाल सागर ने उन्हें बचाया। ‘लिटेन्टेन ज़िओन’ नाम का एक गीत भी है, जिसका अर्थ है – ‘चलो, जिओन की ओर चलें।’ इजरायल की लोककथाएँ भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में गीत के रूप में कैसे आ गईं, ये एक रहस्य है। ‘सेलाह’, ‘अबोरीज़ा’ और ‘एलो’ जैसे शब्द बाइबिल में कई बार मिलते हैं।
वहीं Pslam की किताब में जहाँ ‘Selah’ शब्द मिलता है, ‘अबोरीज़ा’ एक हिब्रू शब्द है जिसका इस्तेमाल ईश्वर की प्रशंसा के लिए किया जाता है। ‘बुलपिजेम’ नाम की कुकी स्क्रिप्ट में 32 अक्षर हैं और इनका कनेक्शन भी Jews से सामने आता है। बताया जाता है कि ये चीन में राजा शीह हुंगताई के समय खो गया था। ये 214 ईसापूर्व की बात है। बिबिलिकल इजरायलियों से भी कुछ समानताएँ कुकी समाज से हैं।
समुदाय ‘Bnei Menashe’ द्वारा ओढ़ी जाने वाली एक प्रकार की शॉल यहूदियों द्वारा प्रार्थना के समय पहनी जाने वाली ‘तल्लीत’ से काफी मिलती-जुलती है। बाइबिल में लिखा है कि ऐसे शॉल के किनारों पर एक नाले रंग की डिजाइन वाला घेरा होना चाहिए, जो ‘Puan’ के लिए भी सटीक बैठता है। ‘Zelengam’ के तथाकथित झंडे में भी एक प्रकार का स्टार है, जिसे ‘स्टार ऑफ डेविड’ भी कहा गया है।
इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारियों के आधार पर रिसर्च करने पर पता चलता है कि माना जाता है कि 30 लाख कुकी ‘Bnei Menashe’ हैं, जिन्हें उत्तरी इजरायल से निकाला गया था और वो सदियों तक चले पलायन में मध्य एशिया तक आए। फिर वो चीन और बर्मा से होते हुए उत्तर-पूर्वी भारत में पहुँचे। बताया जाता है कि उन्हें यहाँ पर ‘Shinlung’ कहा गया, क्योंकि वो चीन में यालुंग नदी के किनारे स्थित छीनलूंगसान से आए थे।
सबूत कहाँ है?
कही-सुनी गई बातों के अलावा इजरायल के ‘Manasseh’ और कुकी समाज के बीच संबंध को लेकर कोई और सबूत नहीं है। 2003 में कुकी समाज के सब ट्राइब्स हमार, कोम, लेंथंग, चांगसां, लुन्किम और हूआलंगो समाज के लोगों का DNA टेस्ट कराया गया, जो नेगेटिव निकला। 2005 में एक अन्य डीएनए टेस्ट में कुछ कनेक्शन निकला। कलकत्ता के सेन्ट्रल फॉरेंसिक इंस्टीट्यूट ने इस टेस्ट सैम्पल्स की जाँच की थी।
इसमें पाया गया कि जहाँ उनके पुरुष वाले हिस्से का कोई विदेशी लिंक सामने नहीं आया, उनके महिला वाले हिस्से का कनेक्शन मध्य-पूर्व से सामने आया। इस रिसर्च में शामिल एक स्कॉलर ने कहा था कि दुनिया के दो अलग-अलग इलाकों में रह रहे समुदायों के डीएनए में समानता मुश्किल है, जब तक वो एक ही जगह से न आएँ रहे हों। एक अन्य रिसर्च में पता चला कि रोग ‘Tay-Sachs’ और हड्डी रोग ‘Saitika-Zenghit’ रोग CHIKIMZO ट्राइब्स के अलावा सेमिटिक यहूदियों में भी पाया जाता है।
हालाँकि, 2005 में कराए गए ये टेस्ट इतने विश्वसनीय नहीं हैं। इजरायल के प्रोफेसर स्कोरकी जेनेटिसिस्ट्स ने पार्शियल सिक्वेंसिंग का सहारा लिया और पूरी तरह से सेक्वेंशिंग नहीं की। उन्होंने कहा था कि हजारों वर्षों बाद कॉमन जेनेटिक ओरिजिन का पता लगा पाना मुश्किल है।
अपनी ‘मूल भूमि’ की तरफ लौटने वाली थ्योरी
1970 के दशक में ‘Bnei Menashe’ का एक समूह इजरायल की यात्रा पर निकला, जहाँ उसने रब्बी एलियाहु अविचाईल से मुलाकात की, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने ही इस समुदाय का नामकरण किया। साथ ही ‘Amishav’ नाम का एक NGO (जिसका अर्थ है – मेरे लोग वापस आएँगे) भी है, जो इजरायल से पलायन करने वाले ट्राइब्स को ढूँढने में लगा हुआ है। साथ ही ये संगठन उन्हें वापस यहूदी मजहब में धर्मांतरित करने करने के प्रयास में भी ये लगा रहता है।
उसी साल अविचाईल ने भारत का दौरा कर ‘बनई मेनाशे’ समुदाय के लोगों से मुलाकात की। उन्होंने ही इस समुदाय को इजरायल के करीब लाने में अहम भूमिका निभाई और आइजोल के साथ-साथ इम्फाल में भी धर्मांतरण की शुरुआत की। उन्होंने इस दावे पर भी रिसर्च किया कि उनके इजरायल से पलायन करने की बातों में कितनी सच्चाई है। इम्फाल में येरुसलम के रब्बी ने ‘अमिषाव हाउस’ भी खोला। उसमें एक सिनेगॉग भी है।
उसमें 2 गेस्ट रूम, एक मिक्वाह (परंपरागत नहाने का स्थान), एक क्लासरूम और कर्मचारियों के रहने के लिए क्वार्टर भी हैं। हालाँकि, इजरायल सरकार ने इस समुदाय के इजरायल माइग्रेशन ‘अलियाह’ का समर्थन नहीं किया। 90 के दशक में इस समाज के कुछ लोग इजरायल पर्यटक बन कर पहुँचे और वहाँ बस गए। उन्हें वहाँ की नागरिकता भी मिली और वो यहूदी कहलाए। 1997 में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के डिप्टी कम्युनिकेशंस डायरेक्टर माइकल फ्रूंड को इस समाज का एक पत्र मिला और उन्होंने इनसे मिलने का मन बनाया।
उन्होंने इसके बाद कहा कि उक्त समाज और बिबिलिकल इजरायलियों में काफी समानताएँ हैं। उनकी परंपराओं और विश्वासों में भी उन्हें समानता मिली। उन्होंने इस समाज के माइग्रेशन को सपोर्ट करने के लिए फंड भी इकट्ठा किया। उनका मानना है कि इजरायल का खोया हुआ समुदाय यही है। उनके प्रयासों के कारण हर साल 100 ‘बनई मेनाशे’ को इजरायल में जाकर बसने और यहूदी बनने की अनुमति मिली।
उन्होंने एक ‘Shavei’ नामक एक NGO की भी स्थापना की, जिसने इजरायल की खोई हुई ट्राइब्स को वापस लेकर बसाने को अपना लक्ष्य बताया। 2003 तक इस समाज के 1000 लोगों को इजरायल में बसाया जा चुका था। उसी साल इजरायल के तत्कालीन इंटीरियर मिनिस्टर अवराहम पोराज ने कुछ राजनीतिक और मजहबी कारणों से फिर इस प्रक्रिया पर रोक लगा दी। लेकिन, फ्रूंड इसके लिए प्रयास करते रहे और 2005 में एक फैसला कराया कि इस समाज को यहूदियों का ही हिस्सा माना जाए।
इस फैसले के बाद उनके NGO का खासा उत्साहवर्धन हुआ और उन्होंने मिजोरम और मणिपुर में धर्मांतरण के लिए सेंटरों की स्थापना की। अगर ‘Bnei Menashe’ को यहूदी का दजा मिल गया तो वो बिना रोकटोक इजरायल में जाकर बस सकेंगे। 2006 में इस प्रक्रिया के तहत 218 ऐसे लोगों को ‘Bnei Menashe’धर्मांतरित कर इजरायल ले जाया जाना था, लेकिन भारत सरकार ने इस पर आपत्ति दर्ज कराई। बताया जाता है कि 10,000 लोग इजरायल जा चुके हैं।
क्या कुकी और ‘Bnei Menashe’ को उनकी असली भूमि मिल गई?
यहूदियों ने भी कुकी समाज के ‘Bnei Menashe’ होने के दावों पर आपत्ति जताई है। भारत और इजरायल की सरकारों ने भी इसके खिलाफ आवाज उठाई है। इजरायल के कई नेता भी इन्हें यहूदी नहीं मानते। इजरायली आलोचकों का कहना है कि उन्हें वेस्ट बैंक और गाजा से लगे इलाकों में जानबूझकर एक साजिश के तहत बसाया गया। बेंजामिन नेतन्याहू इन्हें वहाँ बसाने के पक्ष में थे, ऐसे में वो अपने देश में विवादों के केंद्र में भी आ गए।
इस समाज को पूरी तरह यहूदी कहलाने के लिए भी काफी संघर्षों का सामना करना पड़ा। स्टैण्डर्ड ऑफ लिविंग से लेकर आर्थिक स्थिति तक, शुरुआत में बिल्कुल भी इस समाज को समर्थन नहीं मिला। कइयों ने नागरिकता ली और इजरायल की सेना में भी शामिल हुए। भारत में इस धर्मांतरण के खिलाफ भी आवाज उठी। इसमें कोई शक नहीं है कि कुकी समाज में अधिकतर प्रवासी ही रहे हैं।
वहीं दूसरी तरफ ‘कुकी नेशनल ऑर्गेनाइजेशन (KNO)’ का नेता पीएस हाओकीप अभियान चला रहा है कि पूरे कुकी समाज को एक ‘Zelengam’ के अंतर्गत लाया जाए। इसे ‘लैंड ऑफ फ्रीडम’ भी कहा जाता है और यहूदी थ्योरी ही मानी जाती है। कुकी समाज की कई पहचान है, जिससे वो कहाँ से ताल्लुक रखते हैं इस पर संशय बना रहता है। अब इस पर और रिसर्च हो या कोई सबूतों वाला इतिहास निकले तो इस बारे में और पता चलेगा। इतिहास के गर्त में छिपा पलायन के इस रहस्य से पूरी तरह पर्दा हटना अभी बाक़ी है।
(OpIndia पर प्रकाशित मूल अंग्रेजी लेख यहाँ क्लिक कर के पढ़ें।)