लिबरलों के गिरोह की वास्तविकता और पूर्वग्रह जब-जब सामने आते हैं, तब-तब उनके घटिया होने की परतें खुलती चलती जाती हैं। अगर ये क्लेम करें कि दूसरे असहिष्णु हैं, तो आप आँख मूँद कर समझ लीजिए कि इनसे ज्यादा इनटॉलरेंट कोई ब्रीड नहीं है। अगर ये कहें कि फ़लाँ विचारधारा के लोग नारीविरोधी हैं, तो मान कर चलिए कि इनसे ज़्यादा मोलेस्टेशन, बलात्कार और सेक्सिज्म और कहीं नहीं दिखेगा। अगर ये कहें कि फ़लाँ विचारधारा साम्प्रदायिक है, तो समझ जाइए कि मजहबी घृणा को जितनी हवा ये लोग देते हैं, उतनी सौ ज़ाकिर नायक जैसे लोग भी नहीं दे पाएँगे।
आप लोगों ने पिछले कुछ दिनों में आज़म खान की नग्नता देखी जब उसने स्टेज पर से जया प्रदा के ऊपर बेहूदी टिप्पणी की थी। उसके बाद उसके नकारे लड़के ने जया प्रदा को निशाना बनाते हुए उसे ‘अनारकली’ कहा। जैसा बाप, वैसा बेटा। आज़म खान के बेटे से और आशा भी क्या की जा सकती थी, वो तो अपने बाप का नाम आगे बढ़ा रहा है। जैसी परवरिश उसके बाप को मिली, वैसी ही उसने आगे बढ़ाई। तो उसका बयान सुन कर मुझे कोई ताज्जुब नहीं हुआ।
इस वाहियात बयानबाज़ी के बाद, NDTV की एक रिपोर्ट मिली जो किसी दक्षिणपंथी वेबसाइट से होती, या उन्हीं शब्दों में किसी नेता का ट्वीट बन कर आती, तो पत्रकारों का समुदाय विशेष, इस ब्रीड के लिबरलों का झुंड अपने रदनक दाँतों से फाड़ कर रख देता।
इस रिपोर्ट की हेडलाइन है – आज़म खान के बाद बेटे अब्दुल्ला ने भी कसा तंज, बोले, ‘हमें अली भी चाहिए, बजरंगबली भी, लेकिन अनारकली नहीं’। इसके ठीक नीचे लेख के सारांश या संदर्भ की जगह दो लाइन में बताया गया कि आज़म खान और जया प्रदा में ‘ज़ुबानी जंग’ देखने को मिल रही है।
अब आप कहेंगे कि इसमें दिक्कत क्या है? दिक्कत है मामले की गंभीरता और शब्दों के चुनाव से छिछोरेपन को, सेक्सिस्ट बयान को, नारीविरोधी शब्दों को ‘तंज’ और ‘ज़ुबानी जंग’ के नाम पर ऐसे प्रस्तुत करना जैसे इतना तो चलता है। क्या सच में इतना चलता है? आप किसी प्रत्याशी को, उसके फ़िल्मी अदाकारा होने के कारण, कभी उसके अंतःवस्त्रों के रंग की बात करके उपहास करेंगे, और कभी आपका बेटा उसे अनारकली कह कर नीचा दिखाएगा?
अनारकली का पात्र महलों में नृत्य करने वाली महिला का है। उससे किसी को आपत्ति नहीं। वो उसका काम था, वो करती थी। लेकिन जिस संदर्भ में अब्दुल्ला ने उसका प्रयोग किया है, जिस टोन में किया है, वो रक्काशाओं को लेकर समाज में प्रचलित संदर्भ में है। इसलिए, कोई अगर यह डिफ़ेंस और जस्टिफिकेशन लेकर आए कि अनारकली कहने से अपमान कैसे हो गया, तो वो अपने कुतर्क अपने पास रखें।
लिबरलों की ब्रीड और पत्रकारिता का समुदाय विशेष, अपने विरोधियों को तो इन्हीं बातों पर घेरता रहा है। NDTV के दुर्गंध मारते पत्रकार भाजपा नेताओं के बयानों को अपने हिसाब से मोड़ कर आपातकाल तक ला देते हैं, और उनके मन में स्त्रियों की इतनी इज़्ज़त है कि बाप द्वारा स्त्री के अंडरवेयर का रंग, और बेटा द्वारा किसी को भरी सभा में अनारकली कहना महज़ ‘तंज’ हो जाता है।
NDTV या इनके जैसे बिके हुए लोगों से और कोई उम्मीद भी बेकार है। इनके सारे आदर्श अपनी ‘जात’ के बलात्कारियों तक को बचाने में उठ कर सामने आते हैं। इनके सारे आदर्श वामपंथ के उस नेता के चरण चुंबन में जाते हैं जो लिंग लहरा कर लड़कियों को धमकाता हुआ पकड़ा गया था। फिर इनसे उम्मीद तो नहीं, हाँ, इनकी नग्नता सामने लाना बहुत आवश्यक है।