बीते दिनों से शाहीन बाग पर मुस्लिम महिलाओं के नेतृत्व में हुआ विरोध प्रदर्शन काफी चर्चाओं में रहा। इस बीच कई मीडिया संस्थान ऐसे दिखे जिन्होंने धरने पर बैठी मुस्लिम महिलाओं के ऊपर अपनी लगातार कवरेज की और उन्हें SHEORES बनाकर उभारा। सोशल मीडिया पर भी इन महिलाओं को नारी सशक्तिकरण का असली चेहरा बनाकर पेश किया गया। इसी क्रम में अपनी अजेंडापरस्त पत्रकारिता के लिए मशहूर बीबीसी ने कल अपनी एक रिपोर्ट की।
हालाँकि, बीबीसी ने रिपोर्ट में क्या लिखा? इस पर चर्चा करने से पहले ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि बीबीसी ने अपनी पूरी रिपोर्ट किसके पक्ष में और क्या एंगल रखकर की होगी… लेकिन फिर भी बता दें कि शाहीन बाग पर कवरेज करते हुए बीबीसी ने इस बार इस प्रोटेस्ट का समर्थन कर रही महिलाओं के हिजाब और बुर्के को केंद्र रखा। साथ ही आर्टिकल को हेडलाइन दी गई- “CAA: मुस्लिम लड़कियों का आंचल बना परचम, क्या हैं इसके मायने?”
लेख की शुरुआत मजाज की लिखी पंक्तियों से हुईं- “तेरे माथे पर ये आंचल ख़ूब है लेकिन तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।” इसके बाद लेख में बताया गया कि इन पंक्तियों को महिलाएँ अलग-अलग प्रदर्शन में गा रही हैं और पुलिस की क्रूरता के सामने तनकर खड़ी हैं। प्रदर्शन में मुस्लिम महिलाओं के योगदान को, उनकी प्रदर्शन के प्रति प्रतिबद्धता को उभारा गया और साथ ही उनके बुर्के-हिजाब पर भी बात हुई। अपने लेख और उसकी हेडलाइन में बीबीसी ने जिस बखूबी से उन्होंने बुर्के और हिजाब को घुसाया, वो देखने वाला है। बीबीसी लिखता है- “अपने हिजाब और बुर्के में वे (मुस्लिम महिलाएँ) पहचान की राजनीति के ख़िलाफ़ भी संघर्ष कर रही हैं।” इसके बाद आगे सारी बात और कुछ एक मुस्लिम महिलाओं के सीएए के ख़िलाफ़ विचार….
यहाँ गौर देने वाली बात है कि हिजाब और बुर्के से जोड़कर मुस्लिम महिलाओं के संघर्ष पर अपना लेख लिखने वाला बीबीसी अक्सर हिंदुओं की घूँघट प्रथा का पुरजोर विरोधी रहा है। लेकिन, मुस्लिम महिलाओं के प्रदर्शन की बात आते ही, वे यहाँ उन्हें बुर्के या हिजाब से आजाद होकर सामने आने की सलाह नहीं दे रहा। बल्कि मजाज की पंक्तियों का इस्तेमाल करते हुए उन्हे इस बंधन के साथ ‘लड़ने’ के लिए उकसा रहा है।
गौरतलब है कि बीबीसी की रिपोर्ट्स में हिंदू बनाम मुस्लिम ध्यान रखते हुए एकतरफा पत्रकारिता का फर्क़ पहली बार नहीं झलक रहा। बल्कि यदि बीबीसी की वेबसाइट पर जाकर सर्च बॉक्स में इन दोनों (घूँघट और बुर्का/हिजाब) शब्दों को टाइप किया जाए तो इनके इस पूरे अजेंडे का खुलासा होता है।
बीबीसी की वेबसाइट पर केवल दो कीवर्ड्स डालने के बाद फिल्टर होकर सामने आई खबरों के मात्र टाइटल भर से पता चल जाता है कि बीबीसी के लिए ‘घूंघट’ का तो पर्याय हिन्दू महिलाओं के विकास में बेड़ियों का चेहरा है। जबकि मुस्लिम महिलाओं के लिए बुर्का या हिजाब उनकी पहचान है, उनका अधिकार है। जिसे लेकर यदि वे आगे बढ़ने का सफर तय करती हैं, तो वे उसे उपलब्धि की तरह अपनी खबरों में जगह देते हैं। जैसे- ‘पुणे में हिजाब वाली क्रिकेटर्स’, ‘हिजाब वाली महिलाओं का खास सैलून’, ‘हिजाब वाली बाइकर’ आदि-आदि।
आधुनिकता के इस दौर में जहाँ निस्संदेह ही हर समुदाय की महिला को अपनी पहचान बनाने के लिए अपने स्तर पर संघर्ष करना पड़ रहा है। वहाँ हिंदू महिलाओं के लिए घूंघट और मुस्लिम महिलाओं के लिए बुर्का/हिजाब दोनों ही कुरीतियों और बंधनों का प्रतिबिंब है। जिसे उनके जीवन का अहम हिस्सा बनाकर ऐसे रचा-बसा दिया गया है कि वो चाहकर भी इससे उभर नहीं पा रहीं।
लेकिन, फिर भी यदि आज के समय में देश के कई हिस्सों मे देखा जाए तो मालूम चलेगा कि हिंदू महिलाएँ धीरे-धीरे घूँघट के बंधन को नकार रही हैं। मगर, मुस्लिम महिलाओं का पढ़ा-लिखा तबका अब भी बुर्के और हिजाब को अपनी निजी पसंद कहकर बढ़ावा दे रहा हैं। जिसका हालिया उदाहरण न केवल शाहीन बाग के प्रदर्शन में बैठी घरेलू मुस्लिम महिलाओं के रूप में देखने को मिला, बल्कि जामिया मिलिया इस्लामिया में हुए प्रदर्शन में शामिल छात्राओं के रूप में भी सामने आया।
गौरतलब है कि ऐसी स्थिति में बीबीसी जैसे मीडिया संस्थान, घूँघट और हिजाब पर अपनी अलग-अलग पत्रकारिता कर दोनों समुदायों के बीच समझ की, परिवेश की, अधिकारों की एक गहराई खाईं निर्मित कर रहे हैं। जिसमें शेष हिंदू महिलाएँ तो बढ़ते समाज में अपने विवेक-अपनी बुद्धि के आधार पर सही-गलत को चुनकर बाहर निकलने में सक्षम हो जाएँगी। लेकिन मुस्लिम महिलाएँ, इसे हमेशा अपनी आन-बान-शान समझकर धँसती जाएँगी। वे इस हिजाब को अपनी पहचान बनाकर हमेशा ओढ़े रहेंगी और कट्टरवादियों द्वारा गढ़े समाज में मजहब के नाम पर इनका बचाव भी करेंगी।
सोचिए! एक ओर जहाँ नारी सशक्तिकरण के नाम पर गई जगह अभियान चलाकर महिलाओं को घूँघट से आजादी दिलवाई जा रही है। वहीं, नाइकी जैसी बड़ी कंपनी अपना फायदा साधने के लिए बाजार में मुस्लिम एथलीटों के लिए हिजाब उतार रही हैं और उन्हें अपनी ओर आकर्षित भी कर रही हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि बीबीसी की तरह नाइकी और अन्य कंपनियाँ जानती हैं कि जिन मजहबी ठेकेदारों ने उन्हें बुर्के और हिजाब में बाँधा है, वे उसके बिना न तो उन्हें खुली हवा में सांस लेने देंगे, न बतौर खिलाड़ी दौड़ने देंगे और न ही शाहीन बाग में विरोध प्रदर्शन करने देंगे।