नागरिकता विधेयक पर अपने पिछले लेख की ही तरह इस बार भी मैं शुरुआत इसी सवाल से करूँगा कि मजहब विशेष के लोग भारत में ‘माइनॉरिटी’ आखिर किस पैमाने पर, किस तर्क से हैं? 20 करोड़ की आबादी, जनसंख्या में दूसरी सबसे बड़ी हिस्सेदारी, तकरीबन 1000 साल तक इस देश पर शासन, फिर पहले ब्रिटिश और उसके बाद सेक्युलर सरकारों द्वारा जमाईयों वाला आदर-सत्कार। इसके बाद भी यह मजहब अगर खुद को ‘सताया हुआ’ समझते हैं तो इसमें किस का दोष है?
पहले इस्लामी शासन में अपनी संख्या बढ़ाने के लिए जजिया से लेकर तलवार और बलात्कार के इस्तेमाल की छूट, हज़ारों मंदिरों को ढहा कर उनके ऊपर मस्जिद बनाने की स्वच्छंदता, और ब्रिटिश शासन के अंत में देश के हिन्दुओं से उनकी एक तिहाई ज़मीन छीन लेना- इतना सब जी भर कर एक हज़ार साल तक करने के बाद भी अगर इस देश के समुदाय विशेष के पूर्वजों ने उन्हें ऐसी स्थिति में छोड़ा कि उनका एक बड़ा तबका ‘ghetto’ वाली झुग्गियों में रहता है, आधुनिक शिक्षा को ‘हराम’ मानता है, अपनी बीवियों से जबरन हलाला करवाता है, दूसरे मज़हबों के जुलूसों पर पत्थरबाज़ी करता है, तो इसमें हिन्दुओं का दोष कहाँ से हुआ?
इतनी बड़ी भूमिका बाँधना गैर-ज़रूरी लग सकता है, लेकिन है अति-आवश्यक। NDTV के सम्पादक श्रीनिवासन जैन नागरिकता विधेयक को लेकर अपने ट्वीट के चंद शब्दों ‘excludes a specific minority community’ में जो हिन्दुओं के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने, उन्हें नाहक ग्लानि का अनुभव कराने और मजहब विशेष को बिना किसी ठोस आधार के बेचारा दिखाने का जो प्रपंच रच रहे हैं, उसे विस्तार से ही काटा जा सकता है।
A Bill that excludes a specific minority community is not against minorities? https://t.co/bRmyJ9jGVM
— Sreenivasan Jain (@SreenivasanJain) December 9, 2019
जिस ‘specific minority community’ यानी कि कथित अल्पसंख्यकों के लिए उनके दिल में इतनी हूक उभर रही है, भारत के, और दूसरे देशों के, संदर्भ में उसे स-प्रसंग देखे जाने की ज़रूरत है।
भारत के संदर्भ में हमने देखा कि अगर वे मानव विकास के कुछ सूचकांकों पर, एक हज़ार साल की प्रभुसत्ता के बाद भी, पिछड़े हुए हैं, तो यह हिन्दुओं या अन्य किसी समुदाय की गलती से नहीं है, जो वह समुदाय अपने हितों, या देश के राष्ट्रीय हितों को कुर्बान कर इसकी भरपाई करे।
और भी ज़्यादा ज़रूरी नागरिकता बिल के संदर्भ को देखा जाना है। नागरिकता बिल के संदर्भ में जिन लोगों की बात हो रही है, यानी अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, वे अल्पसंख्यक नहीं हैं- इस्लामी देशों के बहुसंख्यक समुदाय हैं। और अगर NDTV यह नहीं कह रहा है कि ऐसा केवल और केवल हिन्दू-बहुल देशों और इलाकों में ही होता है कि अल्पसंख्यकों पर ही अत्याचार हो, व अत्याचार करने वाला बहुसंख्यक ही हो, तो उसके द्वारा प्रतिपादित अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक संबंधों के फ़लसफ़े के हिसाब से तो इन देशों में शोषण, प्रताड़ना, हिंसा, बलात्कार करने वाले बहुसंख्यक यानी मजहब विशेष से हुए, और इसके शिकार होने वाले अल्पसंख्यक यानी हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई आदि। यानी NDTV के संपादक महोदय खुद के ट्वीट में ही कंफ्यूजियाए से, अतार्किक दिखते हैं।
भारत सरकार यह बिल मानवीयता के आधार पर, न कि किसी क़ानूनी जिम्मेदारी के तहत, दूसरे देशों के उन नागरिकों के लिए ला रही है, जो वहाँ पर मज़हबी प्रताड़ना का शिकार हैं। पहली बात तो मानवीयता किसके अंदर किस आधार पर होगी, किस हद तक होगी, यह न संविधान या कानून तय करते हैं, न ही मीडिया गिरोह। दूसरी बात, अगर इस्लामी आक्रांताओं ने भारत के पड़ोसियों में कोई ऐसा देश छोड़ा होता, जहाँ समुदाय विशेष वाले अल्पसंख्या में होते और शांति से रह कर दिखा देते, तो उन पर विचार करने की बात आती। अब बाबर, अब्दाली, तुग़लक़ और लोदी ने कोई ऐसा समाज भारत के आसपास मजहबी-प्रभुत्व से अछूता छोड़ा ही नहीं, तो इसमें हम क्या करें!
भारत अपनी मर्ज़ी से, बिना किसी संवैधानिक अनिवार्यता के किसी देश के अल्पसंख्यकों की जान बचाने का ज़िम्मा ले रहा है तो इसका मतलब यह नहीं कि उस देश के अत्याचारी बहुसंख्यक समुदाय का भी ठेका उसके सिर केवल इसलिए आ जाए क्योंकि वह जिहादी बहुसंख्यक समुदाय इस देश के ‘समुदाय विशेष’ की उम्मत का हिस्सा है।
सच्चाई यही है कि इनके राजनीतिक आकाओं को समुदाय विशेष के वोटों की काटनी है फ़सल! लेकिन अभी के राजनीतिक समीकरण में यह होता जा रहा है मुश्किल। क्योंकि अब मजहब विशेष के एक हिस्से ने कट्टरता से किनारा करना शुरू कर दिया है (जिसका सबूत है इस साल लोकसभा चुनावों में आधी मजहबी प्रभुत्व वाली सीटों पर अकेले मोदी/BJP का जीत दर्ज करना, हलाला पर प्रतिबंध को समुदाय विशेष की महिलाओं का समर्थन, आदि)। इसके अलावा हिन्दू भी भाजपा के पक्ष में होने लगे हैं ध्रुवीकृत, जो उनके ख़िलाफ़ चल रही नफ़रती मुहिम के चलते स्वभाविक है। इसलिए भारत के इस मजहब में वही असुरक्षा और कुंठा भरने का काम अब पत्रकारिता का समुदाय विशेष कर रहा है, जो सैकड़ों सालों से इन्हें हिंसा और जिहाद की घुट्टी पिलाने वाले करते चले आए हैं।
और हाँ! एक सच यह भी है कि इस सच को मानने के बजाय श्रीनिवासन जैन साहब और उनका समूचा NDTV दिल्ली के ज़ाफ़राबाद, जाकिरनगर, सीलमपुर, मुबारकपुर, जामियानगर, या निजामुद्दीन शिफ़्ट हो जाना पसंद करेगा बजाय कैलाश कॉलनी के अपने वर्तमान पते के!
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