Friday, April 26, 2024
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1857 का स्वतंत्रता संग्राम, मुस्लिम तुष्टिकरण और साम्प्रदायिकता… बाद में अलीगढ़ वाले सैयद अहमद की भूमिका

सैयद के प्रयास सामाजिक और धार्मिक सुधारों तक ही सीमित नहीं थे। इतिहासकार आरसी मजूमदार लिखते है कि उन्होंने मजहबी राजनीति को उस ओर मोड़ दिया जोकि सिर्फ हिंदू विरोधी बन गई थी। एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज हिंदुओं के खिलाफ प्रचार का मुख्य केंद्र बन गया था। उसका निर्देशन एक ब्रिटिश व्यक्ति बेक के पास था जोकि सैयद अहमद का करीबी दोस्त और मार्गदर्शक था।

डलहौजी ने भारत से जाने के बाद, 29 फरवरी, 1856 को विक्टोरिया को एक पत्र लिखा। उसने अपनी महारानी को बताया कि भारत में शांति कब तक बनी रहेगी, इसका कोई भी सही आकलन नहीं है। उसने पत्र में आगे लिखा कि इसमें कोई छिपाव भी नहीं है कि किसी भी समय संकट उठ खड़ा हो सकता है।

भारत का अगला गवर्नर-जनरल कैनिंग बना और उसने भी डलहौजी के मत की पुष्टि की। जैसा कि अनुमान था, हकीकत में ही उपरोक्त चिट्ठी के एक साल के अन्दर ही भारत में स्वतंत्रता संग्राम शुरू हो गया था।

ब्रिटेन की तरफ से कोई प्रतिक्रिया होती, इससे पहले ही देश में स्वतंत्रता की लड़ाई व्यापक हो चुकी थी। इस तथ्य की पुष्टि हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में 13 जुलाई, 1857 को पूछे गए एक प्रश्न से हो जाती है। उस दिन ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ़ कंट्रोल के अध्यक्ष और गवर्नर-जनरल (1842-1844) रह चुके ऐलनबरो ने बताया कि यह ‘खतरनाक और लगातार फैल रहा हैं’। उसने संसद को यह भी बताया कि हमारा साम्राज्य खतरे में है और स्थिति बद-से-बदतर होती जा रही है।

भाषण के इन अंशों से स्पष्ट और पर्याप्त है कि संग्राम से ईस्ट इंडिया कंपनी, संसद और ब्रिटिश क्राउन सभी की नींवें हिल चुकी थी। स्वतंत्रता संग्राम का असर इतना तीव्र था कि विक्टोरिया को खुद हस्तक्षेप करके पूरी व्यवस्था में परिवर्तन करना पड़ गया था।

विक्टोरिया ने 19 जुलाई, 1857 को अपने प्रधानमंत्री पामर्स्टन को एक पत्र भेजा। उस चिट्ठी में ब्रिटेन की महारानी ने संग्राम को ‘भयभीत’ करने वाला अनुभव बताया। उसी दौरान पामर्स्टन ने भी एक पत्र लिखा। जिसके अनुसार उसे खुद भी अंदाजा नही था कि संग्राम देश भर में फैल जाएगा। इस चिट्ठी के आखिरी में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने संग्राम का कारण हिन्दू संतों को बताया।

स्वतंत्रता संग्राम जब शुरू हुआ तो ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पामर्स्टन थे। जब यह समाप्ति की ओर था तो वहाँ सरकार का नेतृत्व डर्बी के हाथों में था। दोनों का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि पामर्स्टन ने ही ईस्ट इंडिया कंपनी से सत्ता का हस्तांतरण क्राउन को दिए जाने का प्रस्ताव रखा। जिसे उसने हॉउस ऑफ कॉमन से पास करवा लिया था। जबकि डर्बी के कार्यकाल में यह प्रस्ताव अधिनियम बना। इस अधिनियम की एक महत्वपूर्ण उपज ‘सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फ़ॉर इंडिया’ नाम से नए विभाग का सृजन था। वैसे तो यह पूर्ववर्ती कंपनी के कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर के अध्यक्ष का ही नया नाम था, लेकिन इस बार इसकी कार्यशैली में परिवर्तन किया गया था।

भारत का पहला सेक्रटरी एडवर्ड हेनरी स्टेनली को बनाया गया जोकि डर्बी का बेटा था। विक्टोरिया ने खुद 1 नवम्बर, 1858 को इस विभाग के संदर्भ में घोषणाएँ की थीं। अब भारत के गवर्नर जनरल के नाम के आगे वायसराय शब्द जोड़ दिया गया था। ब्रिटेन की महारानी से सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के माध्यम से वायसराय को आदेश और अधिनियम मिलने का प्रावधान भी शामिल किया।

वास्तव में, सेक्रेटरी ऑफ स्टेट की भूमिका एक कुख्यात साजिशकर्ता के रूप में थी। इसका एक उदाहरण 1883 में मिलता हैं। उस समय मुस्लिम राजनीति एक अंग्रेज लेखक डब्लूएस ब्लंट से बहुत हद तक प्रभावित थी। ब्लंट के माध्यम से ही भारतीय मजहबी नेताओं में पैन-इस्लामिज्म की धारणा तेजी से फैलनी शुरू हुई थी। इसने कोई दोराय नही है कि इस एक विचार ने भारतीय राष्ट्रवाद को बहुत नुकसान पहुँचाया था।

वास्तव में, पैन इस्लामिक मूवमेंट की शुरुआत अफगानिस्तान के जमाल अफगानी ने की थी। वह 1881 के आसपास भारत आया था और गुप्त रूप से मजहबी नेताओं को खलीफा के समर्थन के लिए भड़काता था। राष्ट्रवादी नेता बिपिन चन्द्र पाल अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “इन सभी (मजहब विशेष के लोग) में पैन-इस्लामिक वाइरस का टीकाकरण किया गया। इसके बाद उन्होंने हिन्दुओं से राजनैतिक दूरियाँ बनाना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे हमारे राष्ट्रीय प्रयासों में हिन्दुओं और प्रबुद्ध मुस्लिमों के बीच गहरी खाई उत्पन्न होने लगी।”

समुदाय विशेष के बीच पनप रहे इस मूवमेंट की जानकारी ब्रिटिश सरकार को थी। उस वक्त के सेक्रटरी ऑफ़ स्टेट, हेमिल्टन ने वायसराय एल्गिन को 30 जुलाई, 1897 को एक पत्र लिखा, “पैन-इस्लामिक काउंसिल के माध्यम से हमें भारत में साजिश और उत्तेजनाओं को भड़काने का नया अवयव मिल गया है।” सेक्रेटरी ऑफ स्टेट का यही एक वास्तविक काम था, जिसकी जिम्मेदारी विक्टोरिया ने दी थी। इन षड्यंत्रों को पूरा करने की जिम्मेदारी वायसराय को मिली हुई थी।।

स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश क्राउन का एकतरफा नियम था कि मुस्लिमों को हिन्दुओं के ब्रिटिश विरोधी आंदोलन में शामिल नहीं होने देना है। इसके लिए उन्होंने मजहबी तुष्टिकरण का इस्तेमाल किया। पिछले 150 सालों के इतिहास में इसके प्रारम्भिक निशान अलीगढ़ में मिलते हैं।

सैयद अहमद ने 1869 में इंग्लैंड का दौरा किया और अगले साल भारत लौटने के साथ ही मुस्लिमों में अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रसार के लिए जोरदार प्रचार शुरू कर दिया। उन्होंने 1877 में अलीगढ़ में मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की।

इतिहासकारों के अनुसार सैयद के प्रयास सामाजिक और धार्मिक सुधारों तक ही सीमित नहीं थे। इतिहासकार आरसी मजूमदार लिखते है कि उन्होंने मजहबी राजनीति को उस ओर मोड़ दिया जोकि सिर्फ हिंदू विरोधी बन गई थी। एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज हिंदुओं के खिलाफ प्रचार का मुख्य केंद्र बन गया था। उसका निर्देशन एक ब्रिटिश व्यक्ति बेक के पास था जोकि सैयद अहमद का करीबी दोस्त और मार्गदर्शक था।

कॉलेज का मुखपत्र अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गजट का संपादन बेक के पास था। उसका मानना था कि भारत के लिए संसदीय व्यवस्था अनुपयुक्त है और इसके स्वीकृत होने की स्थिति में, बहुसंख्यक हिन्दुओं का वहाँ उस तरह राज होगा, जो किसी मुगल सम्राट का भी नहीं था। यह कोई संयोग नहीं था कि मोहम्मद अली जिन्ना ने भी इसी आधार पर पाकिस्तान की माँग की थी। यह सब पूर्व सुनियोजित था, बस किरदारों में समय-समय पर बदलाव होते रहे।

अगली योजना में, आगा खान के नेतृत्व में 1 अक्तूबर, 1906 को 36 मुस्लिमों का एक दल वायसराय मिन्टों से मिला। समुदाय के लोगों ने अपनी कुछ साम्प्रदायिक माँगे रखी और मिन्टों ने भी उनकी सभी माँगों पर सहमती जताते हुए कहा, “मैं पूरी तरफ से आपसे सहमत हूँ। मैं आपको यह कह सकता हूँ कि किसी भी प्रशासनिक परिवर्तन में समुदाय विशेष अपने राजनैतिक अधिकारों और हितों के लिए निश्चिंत रहे।”

इस प्रतिनिधि दल का रचना खुद ब्रिटिश सरकार ने की थी। अंग्रेजों की योजना में समुदाय विशेष को उस राजनैतिक संघर्ष से दूर रखना था जिसका संचालन हिन्दुओं द्वारा किया जा रहा था। इस संदर्भ में, लेडी मिन्टो लिखती हैं, “यह मुलाकात भारत और भारतीय इतिहास को कई सालों तक प्रभावित करेगी। इसका मकसद 60 मिलियन लोगों को विद्रोही विपक्ष के साथ जुड़ने से रोकने के अलावा कुछ नहीं हैं।”

ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे रामसे मैक्डोनाल्ड ने इस मुलाकात को ‘डिवाइड एंड रूल’ पर आधारित जानबूझकर और ‘पैशाचिक’ काम बताया। अपनी पुस्तक ‘एवकिंग ऑफ़ इंडिया’ में उन्होंने लिखा है, “इस योजना का पहला परिणाम दोनों समुदायों को अलग करना और समझदार एवं संविधानप्रिय राष्ट्रवादी लोगों के लिए अड़चनें पैदा करना था।”

मैक्डोनाल्ड यह भी खुलासा करते हैं कि मजहबी नेता कुछ एंग्लो-इंडियन अधिकारियों से प्रेरित थे। इन अधिकारियों ने शिमला और लन्दन कई तार भेजे। इसमें हिन्दुओं एवं दूसरे मजहब के बीच एक सोची-समझी कलह और द्वेष के आधार पर मजहबी नेताओं ने अपने लिए विशेष समर्थन माँगा। तुष्टिकरण के इसी आधार पर करांची में 30 दिसंबर, 1906 को आल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना हुई।

प्लासी के युद्ध (1757) के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ों को उखाड़ फेंकने का सुनहरा अवसर 1857 का स्वतंत्रता संग्राम था। चूँकि यह हिन्दुओं द्वारा शुरू किया गया था तो दूसरे मजहब वालों ने इसमें दिलचस्पी लेनी बंद कर दी। जैसा कि एक नवाब ने एक ब्रिटिश अधिकारी को बताया कि संग्राम में अधिकतर हिन्दू थे और वह उन्हें पसंद नहीं करता था। इसलिए उसने उन्हें कोई सहायता नहीं की। उस नवाब का कहना था कि वह अंग्रेज़ो की सर्वोपरिता को स्वीकार करने के लिए भी तैयार है।

इन बीते 50 सालों में मजहबी नेताओं ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ राजनैतिक आंदोलन से खुद को अलग कर लिया था। उन्हें लगने लगा कि मुस्लिम हित अंग्रेजों के हाथों में ही सुरक्षित है। अंग्रेजों ने भी इसका इस्तेमाल भारत में अपनी सरकार बचाने के लिए किया। इस बात का फायदा उठाकर मजहबी नेताओं ने पाकिस्तान के नाम से भारत विभाजन को हवा देना शुरू कर दिया। अंततः 1947 में भारत को विभाजन की त्रासदी को झेलना पड़ा।

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Devesh Khandelwal
Devesh Khandelwal
Devesh Khandelwal is an alumnus of Indian Institute of Mass Communication. He has worked with various think-tanks such as Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation, Research & Development Foundation for Integral Humanism and Jammu-Kashmir Study Centre.

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