कथित तौर पर नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसान संगठनों ने इस साल 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस पर राजधानी में व्यापक स्तर पर परेड निकालने की योजना बना रखी है। कहा जा रहा है कि करीब 1 लाख ट्रैक्टर के साथ यह परेड निकाला जाएगा। इसको लेकर लोग कई तरह की आशंका जता रहे हैं और किसान संगठनों के नेताओं के मंसूबों पर सवाल उठा रहे हैं।
यह बेवजह भी नहीं है। ये संगठन न केवल सरकार के साथ बातचीत में अड़ियल रवैया अपनाए हुए हैं, बल्कि परेड को लेकर कानून प्रवर्तन एजेंसी के आदेश को भी चुनौती दे रहे हैं। इनके परेड को दिल्ली पुलिस की इजाजत नहीं है। सुरक्षा के लिहाज से इसी संबंध में पुलिस ने सर्वोच्च न्यायालय का भी दरवाजा खटखटाया था। लेकिन, कोर्ट ने ट्रैक्टर रैली को कानून-व्यवस्था से जुड़ा मामला बताते हुए कहा कि यह फैसला करने का पहला अधिकार पुलिस को है कि राष्ट्रीय राजधानी में किसे प्रवेश की अनुमति दी जानी चाहिए और किसे नहीं।
कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद चूँकि फैसला पुलिस को लेना था तो उन्होंने गुरुवार (जनवरी 21, 2020) को किसान संगठनों के साथ बैठक की। इसमें पुलिस ने प्रस्तावित ट्रैक्टर रैली को दिल्ली के व्यस्त बाहरी रिंग रोड की बजाय कुंडली-मानेसर पलवल एक्सप्रेस-वे पर आयोजित करने का सुझाव दिया, जिसे किसान संगठनों ने अस्वीकार कर दिया और अपनी बात अड़े रहे।
यहाँ सवाल यह है कि गणतंत्र दिवस के मायने जब सबको मालूम हैं तो आखिर ये जिद्द कैसी है और क्यों हैं?
आशंका जताई जा रही है कि 26 जनवरी को ऐसी कोशिशों के चलते अराजकता फैलाई जा सकती है। पूर्व में भी इस तरह के प्रयास लिबरल, कट्टरपंथी और हिंसक ताकतें कर चुकी हैं।
35 साल पहले एक ऐसी ही कोशिश सांसद सैयद शहाबुद्दीन ने की थी। 23 दिसंबर 1986 को अखिल भारतीय बाबरी मस्जिद कॉन्फ्रेंस का गठन कर मीडिया को बुलाया गया और 26 जनवरी का बायकॉट करने का ऐलान मुस्लिमों से किया गया। शुरू में इस ऐलान पर ज्यादा किसी ने ध्यान नहीं दिया लेकिन बाद में मामला तूल पकड़ता गया। सैयद शहाबुद्दीन ने उस साल मुसलमानों से गणतंत्र दिवस समारोह से अलग रहने की अपील की थी।
9 साल पहले कश्मीर में हुर्रियत के कट्टरपंथी नेता सैय्यद अली शाह गिलानी ने लोगों से गणतंत्र दिवस समारोह के बहिष्कार का आह्वान किया था। गिलानी ने कहा था कि शरीयत अदालत ने जिस तरह ईसाई मिशनरियों के खिलाफ फतवा जारी किया है, वैसा ही कश्मीर में भारत के कब्जे के खिलाफ भी फतवा जारी करना चाहिए। गिलानी का कहना था कि कि गणतंत्र दिवस समारोह का कश्मीर से कोई सरोकार नहीं है।
3 साल पहले 2019 को मिजोरम में एनआरसी का विरोध करके सारे मामले को गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम की ओर घुमाया गया था। एक जगह 70वें गणतंत्र दिवस पर पूरा देश में धूम थी, वहीं मिजोरम के कई संगठनों ने राज्यव्यापी कार्यक्रमों के बहिष्कार की घोषणा की थी।
आज कृषि आंदोलन के नाम पर देश में वही माहौल बना दिया गया है कि पूरा राष्ट्र 26 जनवरी पर ध्यान केंद्रित करने की जगह एक ऐसी रैली पर ध्यान टिकाए बैठा है, जिसे न पुलिस मंजूरी दे रही है और न सरकार की। लोगों में सुरक्षा को लेकर संदेह है। उन्हें डर है कि कहीं देश के लिए इतने महत्वपूर्ण दिन इसका फायदा देशविरोधी ताकतें न उठा लें।
वैसे भी राकेश टिकैत जैसे लोग बोल चुके हैं कि जिसने भी उन्हें रोकने का प्रयास किया उसका बक्कल उतार दी जाएगी और खालिस्तानी ऐलान कर चुके हैं कि जो भी इस दिन इंडिया गेट पर उनका झंडा फहराएगा उसे वे न केवल भारी इनाम से नवाजेंगे, बल्कि विदेश में परिवार सहित बसने का भी मौका देंगे।
ऐसे ही असुरक्षा के तमाम संकेत होने के बावजूद ‘किसान नेता’ सुनने को तैयार नहीं हैं। वह एक ऐसे दिन पर अपनी राजनीति करना चाहते हैं जिसके तार न केवल इतिहास से जुड़े हैं बल्कि भावनात्मक तौर पर भी यह तारीख लोगों के जहन में जिंदा है।
1990 में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन द्वारा राष्ट्रपति को लिखे एक पत्र से इसके मायने समझे जा सकते हैं। अपने पत्र में उन्होंने इस्लामी आतंवाद पर पहली मनौवैज्ञानिक जीत पर लिखा था, “यह वाकई चमत्कार था कि 26 जनवरी को कश्मीर बचा लिया गया और हम राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय शर्मिंदगी उठाने से बच गए। इस दिन की कहानी लम्बी है और यह बाद में पूरे ब्यौरे के साथ बताई जानी चाहिए।”
असल में उस साल 26 जनवरी जुमे के दिन थी। ईदगाह पर 10 लाख लोगों को जुटाने की योजना बनाई गई थी। मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से लोगों को छोटे-छोटे समूह में ईदगाह पहुॅंचने को उकसाया जा रहा था। श्रीनगर के आसपास के गॉंव, कस्बों से भी जुटान होना था। योजना थी कि जोशो-खरोश के साथ नमाज अता की जाएगी। आजादी के नारे लगाए जाएँगे। आतंकवादी हवा में गोलियॉं चलाएँगे। राष्ट्रीय ध्वज जलाया जाएगा। इस्लामिक झंडा फहाराया जाएगा। विदेशी रिपोर्टर और फोटोग्राफर तस्वीरें लेने के लिए वहॉं जमा रहेंगे। उससे पहले 25 की रात टोटल ब्लैक आउट की कॉल थी। गौरतलब है कि 19 जनवरी 1990 को ही कश्मीरी पंडितों के खिलाफ बर्बर अभियान शुरू हुआ था।
आज परिस्थितियाँ वैसी ही हैं। कथित किसान आंदोलन पर कट्टरपंथियों, खालिस्तानियों के कब्जे को लेकर कई खबरें सामने आ चुकी है। लेकिन, यह भारत है। उसका गणतंत्र है। लिबरल चोले में लिपटी कट्टरपंथी, अराजक, खालिस्तानी ताकतें परास्त होंगी।