Friday, November 15, 2024
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झारखंड विधानसभा में नमाज के लिए कमरे का आवंटन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के नए अध्याय की शुरुआत, भविष्य और भी खतरनाक

सवाल यह है कि अचानक कौन सी आवश्यकता आ गई कि विधानसभा भवन में नमाज पढ़ने के लिए ऐसी व्यवस्था की जाय? क्या देश में पहले मुसलमान विधायक नहीं होते थे? या संविधान की किसी धारा के तहत प्रदेश विधानसभा में नमाज पढ़ना अचानक अनिवार्य कर दिया गया है?

कहा जाता है कि; पॉलिटिक्स इस द आर्ट ऑफ़ द पॉसीबल, अर्थात राजनीति संभावनाओं की कला है, अर्थात इसमें कभी भी कुछ भी हो सकता है। जब सबको लग रहा था कि हमारे राजनीतिक दल सेकुलरिज्म के नाम पर दशकों से चले आ रहे मुस्लिम तुष्टिकरण की परिपाटी से धीरे-धीरे निज को अलग करना सीख रहे हैं तभी झारखंड में सत्ताधारी दलों ने अपने कर्म और राजनीतिक चाल से साबित कर दिया कि; सबकुछ वैसा ही नहीं है जैसा सोचा जा रहा है।

प्रदेश विधानसभा से जारी आदेश में विधानसभा भवन के एक कमरे को नमाज पढ़ने के लिए आवंटित कर दिया गया। ऐसा पहली बार हुआ है जब एक विधानसभा भवन में नमाज पढ़ने के लिए ऐसी व्यवस्था की गई है। सत्ताधारी दलों के इस कदम को लेकर भारतीय जनता पार्टी के विधायकों ने अपना विरोध दर्ज कराया है और आठ सितंबर को विधानसभा भवन के घेराव की घोषणा की है।

हमारे अधिकतर राजनीतिक दलों के लिए मुस्लिम तुष्टिकरण ऐसी अफीम है जिसे पूरी तरह से भुला देना इन दलों और उनके नेताओं के लिए लगभग असंभव है। हाल यह है कि इससे छुटकारा पाने के लिए रिहैब सेंटर में भर्ती दल भी इस अफीम को एक बार फिर से चाटने का उपक्रम कर ही लेता है। ऐसा करके झारखंड में सत्ताधारी कॉन्ग्रेस पार्टी वही अफीम चाटने की कोशिश कर रही है जिसे पिछले तीन-चार वर्षों से वो भुला चुकी थी। 

दरअसल सेक्युलर दलों का यह राजनीतिक दर्शन इतनी गहरी जड़ें जमा चुका है कि चाहकर भी ये दल और उसके नेता इसका मोह नहीं छोड़ पाते। पिछले महीने ही झारखण्ड सरकार ने प्रदेश की रोजगार नीति में बदलाव करते हुए परीक्षा के माध्यम के तौर पर हिंदी संस्कृत को हटाने और उर्दू को रखने की घोषणा की थी। तब भी प्रतिक्रिया स्वरूप राज्य के विपक्षी दल भाजपा ने अपना विरोध जताया था।

प्रदेश विधानसभा से निकले आदेश के बाद अब उत्तर प्रदेश विधानसभा में कानपुर से समाजवादी विधायक इरफ़ान सोलंकी ने भी यह माँग उठा दी है कि झारखण्ड की तरह ही उत्तर प्रदेश विधानसभा में भी नमाज के लिए कमरा आवंटित हो। सोलंकी का कहना है कि; ऐसे कदम से साबित होगा कि हम प्रगति कर रहे हैं और साथ ही देश भी प्रगति कर रहा है।

क्या ऐसी माँग उत्तर प्रदेश तक ही रुक पाएगी? यह ऐसा सवाल है जिसका उत्तर आने वाले समय में बार-बार मिलने की संभावना है। सवाल यह है कि अचानक कौन सी आवश्यकता आ गई कि विधानसभा भवन में नमाज पढ़ने के लिए ऐसी व्यवस्था की जाय? क्या देश में पहले मुसलमान विधायक नहीं होते थे? या संविधान की किसी धारा के तहत प्रदेश विधानसभा में नमाज पढ़ना अचानक अनिवार्य कर दिया गया है?

धर्मनिरपेक्षता को आगे रखकर बार-बार “धर्म एक व्यक्तिगत विषय है” कहने वालों के लिए ऐसे आदेश में कोई बुराई नजर नहीं आएगी क्योंकि ऐसे आदेश उनकी नीति को आगे बढ़ाते हैं। ऐसे लोगों के लिए धर्म एक व्यक्तिगत विषय है, केवल कहने के लिए होता है और ये धर्म को व्यक्तिगत बनाए रखने की अपेक्षा हर समुदाय से करते भी नहीं। ये लोग यह सूक्ति केवल हिन्दुओं के लिए रिज़र्व रखते हैं।

पिछले कई वर्षों से नमाज पढ़ने का कार्यक्रम हाईवे से लेकर सड़कों और पार्कों में होता रहा है और विधानसभा में इसके लिए कमरा आवंटित करने का परिणाम यह होगा कि सार्वजनिक स्थलों पर पढ़ी जा रही नमाज का सामान्यीकरण हो जाएगा और भविष्य में सार्वजनिक स्थलों पर नमाज पढ़ने को लेकर जब बहस होगी या उसका विरोध किया जाएगा तब उसका बचाव यह कह कर किया जाएगा कि; जब देश की विधानसभाओं में इसके लिए पूरी व्यवस्था की गई है तो फिर हाईवे, पार्क या सड़कों पर पढ़े जाने पर विरोध सही नहीं है।

झारखंड में सत्ताधारी दलों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि उनके ऐसा करने से बाकी प्रदेशों की विधानसभा में नमाज़ के लिए कमरा आवंटित करने के लिए उठने वाली संभावित माँगों का क्या असर होगा? वर्तमान में कॉन्ग्रेस पार्टी ऐसा करने का जोखिम उठा सकती है क्योंकि उसके पास खोने या पाने के लिए बहुत कुछ है ही नहीं। झारखंड मुक्ति मोर्चा इसे लेकर कुछ कर नहीं सकती क्योंकि उसे कॉन्ग्रेस पार्टी का समर्थन चाहिए। 

अभी झारखंड में विरोध हो ही रहा था कि उत्तर प्रदेश में एक विधायक ने माँग उठा दी है। उन्हें देखकर और प्रदेशों के मुसलमान विधायक भी माँग उठाएंगे। ऐसी माँगों का कोई अंत नहीं होता और 1947 में उठी पाकिस्तान की माँग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अभी बहुत पुरानी बात नहीं है जब एक मौलाना ने बद्रीनाथ मंदिर में भी नमाज पढ़े जाने की माँग रखी थी। प्रश्न यह नहीं कि ऐसी माँगे कितनी अतार्किक हैं या इन्हें माना जाता है या नहीं, प्रश्न यह है कि बार-बार ऐसा करने से जिस बात या माँग के सामान्यीकरण किए जाने का खतरा लगातार बढ़ेगा उसके हल का रास्ता कहाँ से होकर जाता है?

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