Tuesday, April 23, 2024
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‘आतंकवाद के आरोपित जेल में बंद मुस्लिमों का केस वापस’ – चुनाव के समय अखिलेश यादव ने कहा था, चुनाव फिर आने वाला है

2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय सपा ने एक वादा यह भी किया था कि; सत्ता में आते ही मुस्लिम समुदाय के उन लोगों का केस वापस लिया जाएगा, जो आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद हैं। सत्ता प्राप्ति के बाद उनकी सरकार ने अपना यह वादा निभाया भी था।

उत्तर प्रदेश के ATS ने अपने एक ऑपरेशन में काकोरी से अल क़ायदा के दो आतंकवादियों को गिरफ्तार कर लिया। इन आतंकवादियों के पास से हथियार और गोला बारूद बरामद किए गए। उत्तर प्रदेश पुलिस के अनुसार पूछताछ के बाद अल क़ायदा द्वारा आतंकी घटनाओं को अंजाम देने की एक वृहद योजना का पता चला। जानकारी के अनुसार इन आतंकवादियों द्वारा प्रदेश के कई शहरों में बम ब्लास्ट करने की योजना का पर्दाफाश हुआ।

सूचना यह भी मिली कि पकड़े गए आतंकवादियों के तार और प्रदेशों में जुड़े हुए हैं। इन आतंकवादियों के पास से जो गाड़ी बरामद हुई, वह जम्मू कश्मीर में पंजीकृत है। इस गिरफ्तारी के बाद से प्रदेश के कई और शहरों में रेड अलर्ट जारी कर दिया गया और कई जगहों पर कॉम्बिंग ऑपरेशन शुरू हो गए। एक आतंकवादी ने पुलिस को जानकारी दी कि वह प्रेशर कुकर बम बनाने में माहिर है और केवल तीन हज़ार रुपयों में बम बना सकता है – कारीगरी के लिहाज से यह प्रोफेशनल कॉम्पिटेंन्स के दायरे में आएगा।

किसी भी राज्य के ATS के लिए यह एक सामान्य ऑपरेशन है पर इस ऑपरेशन पर आने वाली राजनीतिक प्रतिक्रिया सामान्य नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से जब आतंकवादियों की गिरफ्तारी पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रश्न पूछा गया तो उनक कहना था कि उत्तर प्रदेश पुलिस पर उन्हें भरोसा नहीं है और भाजपा सरकार पर तो बिलकुल नहीं है।

ऐसा नहीं कि अखिलेश यादव से इस बयान की उम्मीद बिलकुल नहीं की जा सकती, पर यह बयान इस मामले में सामान्य नहीं है कि पुलिस की यह कार्रवाई एक लोकतान्त्रिक सरकार की पुलिस कर रही है। अखिलेश यादव खुद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उसी प्रदेश के जहाँ उनकी सरकार के ऊपर यह आरोप था कि पुलिस की भर्ती के दौरान उनकी सरकार ने एक जाति के लोगों को दरोगा के पद पर नियुक्त किया। ऐसे में आज यदि वही अखिलेश यादव कहें कि उन्हें उत्तर प्रदेश पुलिस पर भरोसा नहीं है तो यह बात कितनी तार्किक है?

अखिलेश यादव और उनका दल उत्तर प्रदेश की राजनीति के महत्वपूर्ण किरदार हैं। अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों में वर्तमान सरकार और उसके मुखिया योगी आदित्यनाथ के लिए सबसे बड़ी चुनौती शायद अखिलेश और उनके ही दल से आएगी। ऐसे में प्रश्न यह है कि यादव के लिए इस तरह के बयान देना कितना सही है, वो भी तब जब आधुनिक राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में आतंकवाद को विश्व भर में सबसे बड़े खतरे के रूप में देखा जाता है?

एक बार के लिए उनका बयान भले असामान्य लगता है पर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने पर लगता है कि उनके इस बयान में आश्चर्यजनक बात नहीं है। वर्ष 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय उनके दल ने अपने चुनावी वादों में एक वादा यह भी किया था कि; सत्ता में आते ही मुस्लिम समुदाय के उन लोगों का केस वापस लिया जाएगा, जो आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद हैं। सत्ता प्राप्ति के बाद उनकी सरकार ने अपना यह वादा निभाया भी था।

अखिलेश यादव के बयान के साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री मायावती का बयान भी आया, जिसमें उन्होंने कहा कि उन्हें ATS द्वारा की गई इन गिरफ्तारियों की टाइमिंग पर शंका है। मायावती ने अपने बयान में अखिलेश की तरह साफ़-साफ़ अपनी बात नहीं कही, पर उन्होंने दूसरे शब्दों के सहारे पुलिस और उत्तर प्रदेश सरकार पर सवाल खड़े कर दिए। मायावती का बयान आश्चर्यचकित करता है, खासकर इसलिए कि ऐसी आम धारणा है कि उनके शासन काल में कानून व्यवस्था की स्थिति समाजवादी सरकार की तुलना में बेहतर थी। वैसे भी पिछले कई महीनों में राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर मायावती के सार्वजनिक बयान अपेक्षाकृत सुलझे हुए रहे हैं।

अखिलेश यादव और मायावती के इन बयानों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने जब POTA जैसा कानून पास किया, तभी से उसके विरुद्ध आवाज़ें उठने लगीं। कहीं अल्पसंख्यक समुदाय के ‘बुद्धिजीवियों’ की ओर से तो कभी सिविल सोसाइटी की ओर से। कानून के गलत इस्तेमाल के बारे में पुलिस सुधारों की बात नहीं की गई बल्कि उसे आगे रख कर एक माहौल बनाया गया कि कानून ही खराब है। माहौल बनाने की जो शुरुआत कॉन्ग्रेस ने की थी, उसमें और राजनीतिक दल शामिल होते गए। बड़ा आसान था यह विमर्श चलाना कि भाजपा अल्पसंख्यक विरोधी है, इसलिए ऐसा कानून ले आई है।

2004 के लोकसभा चुनावों में कॉन्ग्रेस ने अपने घोषणा की कि यदि वह सत्ता में आई तो POTA को रद्द कर देगी। UPA की सरकार बनी और आतंकवाद के विरुद्ध कानून रद्द कर दिया गया। उसके बाद पूरे देश में किस स्तर की आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया गया, यह इतिहास का हिस्सा है। आतंकवाद के विरुद्ध देश की लड़ाई किस तरह से प्रभावित हुई, वह किसी से छिपा नहीं है। UPA के शुरुआती पाँच वर्ष ऐसे थे, जिस दौरान आतंकवादी घटनाओं की बाढ़ आ गई थी। यह वही समय था, जब हिन्दू आतंकवाद को लेकर विमर्श चलाने की भरपूर कोशिश की गई और उसी समय मुंबई में 26/11 हुआ।

ये घटनाएँ ऐसी थीं जिनकी वजह से एक बार UPA को भी लगा कि सरकार को आतंकवाद विरोधी कानून की सख्त आवश्यकता है और इसीलिए वीरप्पा मोइली को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वे इसके बारे में एक रिपोर्ट दें। वीरप्पा मोइली ने रिपोर्ट दी कि आतंकवाद से लड़ाई लड़ने के लिए एक सख्त कानून की आवश्यकता है क्योंकि बिना किसी सख्त कानून के आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई कमजोर पड़ गई थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उनके द्वारा अनुशंसित कानून के ड्राफ्ट में आतंकवाद की घटनाओं पर गिरफ्तारी और जमानत की प्रक्रिया POTA से भी अधिक सख्त थी। POTA यानी वही कानून जिसके विरुद्ध माहौल बनाकर उसे हटाने का काम UPA ने किया था।

UPA के दौर की इन घटनाओं का जिक्र यहाँ इसलिए आवश्यक है ताकि आतंकवाद और उसके विरुद्ध लड़ाई को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जा सके। हमें समझने की जरूरत है कि आतंकवाद से खतरा कोई कहानी नहीं है और न ही इस सरकार या उस सरकार या इस समुदाय और उस समुदाय की बात है। यह खतरा काल्पनिक नहीं है, इसलिए इससे लड़ाई किसी दल के दर्शन पर नहीं बल्कि सरकार और प्रशासन पर निर्भर होनी चाहिए। ऐसे में आवश्यक है कि आतंकवाद को लेकर बयान योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्रीत्व या भाजपा की सरकार पर भरोसा या आस्था की बात से प्रभावित न हो बल्कि देश की नीति के आधार पर हो, फिर बयान सत्ताधारी दल के किसी नेता का हो या सत्ता से बाहर दल के नेता का।

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