राजनीति बड़ी कुत्ती चीज़ है!
ऐसा हम नहीं कहते, ऐसा कई राजनेता भी व्यक्तिगत बातचीत में स्वीकार लेंगे। राजनीति को बुरा इसलिए माना जाता है, क्योंकि इसमें आप अपने घोषित शत्रुओं और प्रतिद्वंदियों से ही प्रतिस्पर्धा नहीं करते। आपके मित्रों से भी आपको आगे रहना पड़ता है।
प्रबंधन (मैनेजमेंट) में कभी-कभी सिखाया जाता है कि आप अपने मातहतों से ही सम्बन्ध नहीं बनाते, आपके वरिष्ठों से आपके सम्बन्ध कैसे हैं, इस पर भी काफी कुछ निर्भर करता है। जैसे मैनेजमेंट सिर्फ ऊपर से नीचे की तरफ नहीं, नीचे से ऊपर की तरफ भी चलता है, राजनीति में स्थिति उससे भी बुरी हो जाती है।
राजनीति में आपको अपने सामानांतर वाले संबंधों का भी ध्यान रखना पड़ता है। अफ़सोस के साथ कहा जा सकता है कि ऐसे विषयों पर भी हिन्दी साहित्य में रचनाएँ नहीं बनीं। हिन्दी लिखने वाले तथाकथित बुद्धिपिशाचों की इतनी हिम्मत ही नहीं थी कि ऐसे विषय पर लिखते। जो कहीं आप थोड़े पढ़े-लिखे हैं तो अंग्रेजी में इस विषय पर ‘टीम ऑफ़ राइवल्स’ (https://amzn.to/35MouGz) लिखी गई है। ये अब्राहम लिंकन के मंत्रिमंडल में शामिल प्रतिस्पर्धियों पर किताब है। एक-दूसरे से शत्रुता जैसी प्रतिस्पर्धा रखने वालों के साथ मिलकर अब्राहम लिंकन ने मंत्रिमंडल (कैबिनेट) कैसे चलाया, उस विषय पर ये मोटी सी (करीब नौ सौ पन्नों की) किताब देखी जा सकती है।
वापस भारत पर आएँ तो यहाँ की राजनीति में भी ऐसा होता रहता है। पिछले लोकसभा चुनावों के दौर में जो एक नाम बड़ा उछला था वो एक वामपंथी पोस्टर बॉय का था। बिहार की भूमिहार जाति से सम्बन्ध रखने वाले इस तथाकथित नेता के लिए बॉलीवुड से कई हस्तियाँ भी प्रचार को बेगूसराय में उतर आईं थी। उसके स्वजातीय ‘आत्मनिर्भर’ सम्बन्धियों (जैसे स्वरा भास्कर) जैसों के प्रचार का भी उसे कोई फायदा नहीं हुआ। वैसे तो उसके चुनाव प्रचार पर नजर रखने वाले उसकी विचारधारा की ओर झुकाव रखने वाले कई लोग (जैसे राहुल पंडिता) भी वहॉं गए, मगर जब नतीजे आए तो पता चला कि ये स्त्रियों के सामने अश्लील हरकतें करने वाला कोई पंचायत चुनाव जीतने लायक भी नहीं है।
जाहिर है ऐसे में आयातित विचारधारा को नए चेहरों की जरूरत पड़ गई। पुराना नाम नहीं चला तो कोई नया नाम निकालो! ऐसे में ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ ने उसी कुकृत्य से कुख्यात हुए एक दूसरे चेहरे को सामने रखना शुरू कर दिया। जिन्हें वो दौर याद होगा उन्हें पता होगा कि ये वो पहली मुहिम थी, जिसमें वामपंथी टुकड़ाखोरों ने भारत के तिरंगे झंडे का इस्तेमाल किया था। इससे पहले, सत्तर वर्षों में, किसी मुहिम में उन्होंने तिरंगा नहीं उठाया। जो ज्यादा करीब से जानते हैं वो ये भी बता देंगे कि मुहिम में तिरंगा लहराने वाला आयातित विचारधारा का टुकड़ाखोर नहीं था। जो भी हो, पुराने नाम के दोबारा सामने आने से कई बातें हुई।
एक तो ये स्पष्ट पता चल गया कि आयातित विचारधारा के लिए सिर्फ ‘धर्म अफीम है’। उनके लिए मजहब अफीम नहीं, क्योंकि जिन नारों के लिए ये नया उछाला जा रहा नाम कुख्यात है, उसमें ‘टुकड़े होंगे’ के साथ ‘इंशाअल्लाह’ कहा जा रहा था। वैसे उस पर यथा पिता, तथा पुत्र का जुमला भी फिट बैठता है, क्योंकि उसका बाप पहले ही ‘सिमी’ नाम से जाने वाले प्रतिबंधित इस्लामी अलगाववादी-आतंकवादी संगठन का हिस्सा रहा है। ऐसे में बेटे ने आतंकवाद और अलगाववाद की राह चुनकर बाप का नाम रोशन ही किया है। अब सवाल है कि इसमें राजनीति, ‘टीम ऑफ़ राइवल्स’, और सामानांतर प्रतिद्वंदियों का मुद्दा क्या है?
सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों को पता होगा कि महिला छात्रावास के सामने अश्लील हरकतें करने वाला बेगूसराय का बकैत काफी दिनों से चुप था। हाल के दौर में उसके ट्वीट काफी कम रहे हैं। अब जब उसके प्रतिद्वंदी के रूप में एक चेहरा उसी की विचारधारा के लोगों ने खड़ा कर दिया है तो बेचारे को फिर से सक्रिय होना पड़ गया। वरना बिहार चुनावों में उसे जिस तरह से हाशिए पर धकेल दिया गया है, उससे इस लफंगे के एक राजनेता के रूप में करियर, दाँव पर लगा दिखता है। उम्मीद है कि अपने प्रयासों से बेचारा बिहार चुनावों में फिर से इक्का-दुक्का जगहों पर रैलियों में मंच पर दिख पाएगा।
बाकी आयातित विचारधारा की राजनीति कैसे एक व्यक्ति को उठाती है, फिर विरोधियों के बीच उसे छोड़कर किसी और का दामन थाम लेती है, वो भी देखिए। राजनीति की प्रयोगशाला कहलाने वाले बिहार के चुनावों में आपका स्वागत है!