भीड़ और उसके द्वारा की जाने वाली हिंसा की बातें तो हो रहीं हैं, मगर पूरे तौर पर नहीं हो रहीं। भीड़ ने असंवैधानिक कृत्य किए हों, कानून अपने हाथों में ले लिया हो, ऐसा भारत में पहली बार तो नहीं हुआ। हाल के समय में ऐसा तो कई बार आंदोलनों के नाम पर हो चुका है। ये राजस्थान के गुर्जर आंदोलनों के समय भी हुआ था, जब कथित रूप से आन्दोलनकारियों ने रेल की पटरियाँ उखाड़ दी थीं। इसी वर्ष फ़रवरी में गुर्जर नेता करोड़ी सिंह बैंसला अपने बेटे के साथ “राष्ट्रहित” में भाजपा में शामिल हो गए हैं। उस समय भी उन्होंने आठ दिन से राजस्थान में चल रहे आन्दोलन को रोकने की बात की और अपने समर्थकों से अवरोधों को हटा लेने कहा।
बिलकुल ऐसा ही तब भी हुआ था जब हरियाणा में जाट आन्दोलन कुछ दिन चला। फ़रवरी 2016 में हुए इस आन्दोलन में तो कथित रूप से 12 लोगों को मार डाला गया था और कथित “आन्दोलन” के दौरान दंगाइयों ने करोड़ों की संपत्ति भी लूट ली थी। इस आन्दोलन को रोकने के लिए पुलिस के अलावा सेना भी बुलानी पड़ी थी। फ़रवरी 2016 में ही ये आन्दोलन राजस्थान के भरतपुर जैसे इलाकों तक भी पहुँच चुका था और तब की मुख्यमंत्री सिंधिया ने आन्दोलनकारियों से शांति बनाए रखने की अपील शुरू कर दी थी। कई जाट नेताओं ने इस दौरान शांति बनाए रखने की अपील की, जिससे किसी के कान पर जूँ भी नहीं रेंगी। अंततः जब जाटों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण की माँग राज्य सरकार द्वारा मान ली गई तब जाकर कहीं आन्दोलन थमा।
ऐसा ही एक आन्दोलन “पद्मावत” फिल्म को लेकर भी शुरू हो गया था। हिंसा के स्तर पर देखें तो इसमें कोई लूट या हत्या जैसी घटनाएँ नहीं हुई थीं। एक अंतर ये भी था कि दूसरे आंदोलनों को हिंसक बताने से परहेज रखती पेड परंपरागत मीडिया ने इस बार आन्दोलनकारियों के लिए खुलकर “राजपूत गुंडे” जैसे जुमलों का इस्तेमाल किया। बाकी आंदोलनों में होती हिंसा पर ऐसा क्यों नहीं हुआ, और इस आन्दोलन में “गुंडे” शब्द कैसे इस्तेमाल हुआ, ये अलग चर्चा का विषय हो सकता है। इस आन्दोलन में नतीजे के तौर पर फिल्म प्रतिबंधित नहीं हुई, नेतागण या राजनैतिक दल भी समर्थन में नहीं उतरे थे। इसके वाबजूद फिल्म में कई दृश्यों में फेरबदल करना पड़ा था।
ऐसे आंदोलनों की कड़ी को और आगे बढ़ाएँ तो अफवाहों पर आधारित एक और भी हिंसक आन्दोलन हुआ था। इस आन्दोलन में ऐसा मान लिया गया था कि असंवैधानिक एट्रोसिटीज एक्ट को सरकार हटाने जा रही है। सच्चाई ये थी कि एक असंवैधानिक काले कानून पर सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल उठा दिया था। मामला बस इतना था कि इस एक्ट में जाँच से पहले गिरफ़्तारी होनी चाहिए या नहीं, इस पर विचार करने कहा गया था। इस हिंसक आन्दोलन में भी मौतें हुईं। हाँ एट्रोसिटीज एक्ट के डर से पेड परंपरागत मीडिया इस बार किसी को “गुंडा” घोषित करने का साहस नहीं जुटा पाई। जैसा कि पहले भी होता था, वैसे ही एट्रोसिटीज एक्ट में बिना जाँच गिरफ़्तारी और जेल की असंवैधानिक परम्परा कायम रही।
एक “पद्मावत” फिल्म पर हुए विरोध को छोड़ दें तो बाकी सभी में भाजपा सरकारों का झुकना, या कहिए कि माँगें मान लेना साफ़ नजर आता है। गुर्जर आन्दोलन के करोड़ी सिंह बैंसला अब भाजपा में हैं। जाट आन्दोलन में भी माँगें मानी गईं। एट्रोसिटीज एक्ट पर भाजपा नेताओं ने ही जोर शोर से समर्थन दिया था और बिना जाँच गिरफ़्तारी को कायम रखा था। लेकिन, किन्तु, परन्तु, अब भाजपा की नैतिकता नजर नहीं आ रही। जब मामला भाजपा के ही एक विधायक पर बन रहा है तो एट्रोसिटीज एक्ट के तहत बिना जाँच गिरफ़्तारी के प्रावधान कहीं खो गए हैं। उनकी बेटी-दामाद द्वारा उन पर लगाए गए आरोपों में उनकी एट्रोसिटीज एक्ट में फ़ौरन गिरफ़्तारी होनी चाहिए।
बाकी बड़ा सवाल यह है कि कानून के शासन और नैतिकता, मूल्यों, आदर्शों की बातें करने वाली योगी सरकार क्या जनता के लिए अलग और अपने विधायक के लिए अलग मापदंड अपनाएगी? नेताजी के लिए “भीड़” का समर्थन आएगा, इस डर से नेताजी को छोड़ा भी जा सकता है! या फिर नेताजी भी वैसे ही जेल जाएँगे जैसे इस मामले में कोई साधारण व्यक्ति गया होता?