कॉन्ग्रेस पार्टी आजकल हर आलोचना का जवाब एक ही वाक्य से दे रही है – जाति जनगणना करा के रहेंगे। पार्टी न इसके फायदे गिना पा रही है, न ही ये कि इसके बिना नुकसान क्या है। लेकिन हाँ, जाति जनगणना के नाम पर राजनीति खूब हो रही है। 3000 से भी अधिक जातियों और 25,000 से भी अधिक उपजातियों वाले देश में जातिगत पहचान को और आगे किया जा रहा है, जातिगत भेदभाव को और गहरा किया जा रहा है, जाति आधारित राजनीति को फिर ज़िंदा किया जा रहा है।
चलिए, बिना समय गँवाए सीधे मुद्दे पर चलते हैं। योगेंद्र ‘सलीम’ यादव – कॉन्ग्रेस पार्टी ने अपने पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के रणनीतिकारों में से एक रहे इस शख्स को आगे किया है अपने एजेंडे का बचाव करने के लिए। कारण – योगेंद्र यादव शब्दों को चबा-चबा कर बोलते हैं, अंग्रेजी में लिखते हैं और खुद को ‘सेफोलॉजिस्ट’ जैसी भारी-भरकम उपाधि से नवाज़ते हैं। उन्होंने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में लेख लिख कर समझाया है कि जाति जनगणना क्यों ज़रूरी है।
योगेंद्र यादव जी, X-Ray मशीन जाति नहीं पूछती
आइए, सीधे देखते हैं कि योगेंद्र यादव ने क्या लिखा है और क्यों उनका प्रपंच इस बार नहीं चलेगा। वो अपनी बात शुरू करते हैं एक ‘X-Ray सवाल’ से, कि किसी भी चीज के पक्ष या विपक्ष में होने की शर्त होती है कि अगर वो ज़रूरी और संभव है तो उत्तर ‘हाँ’ होता है और वो जोखिम भरा या फिर पहुँच से बाहर हो तो उत्तर ‘ना’ होता है। ठीक है, बहुत बढ़िया। अब योगेंद्र यादव ‘हाँ’ या ‘ना’ के निर्णय के लिए 5 बिंदु गिनाते हैं, और उनके ही बिंदुओं के हिसाब से पता चल जाता है कि जाति जनगणना ज़रूरी नहीं है।
चूँकि योगेंद्र यादव ने अपनी बात X-Ray से शुरू की है, इसीलिए पहले तो उन्हें ये बताना ज़रूरी है कि आज तक किसी भी X-Ray मशीन ने किसी व्यक्ति की जाति नहीं बताई उसके शरीर को स्कैन कर के। कहाँ फ्रैक्चर है ये तो बताया, शरीर के अंदर क्या समस्याएँ हैं ये भी दिखाया, लेकिन किसी की जाति नहीं बताई। दूसरी बात, एक्स-रे मशीन किसी के शरीर को स्कैन करने से पहले जाति नहीं पूछती। लैब/अस्पताल वाला पैसे लेता है, बिना जाति पूछे मशीन उसकी तस्वीर निकाल देती है।
खैर, पॉइंट्स पर भी आ ही जाते हैं। सबसे पहले योगेंद्र यादव कहते हैं कि कोई समस्या अथवा रोग है या नहीं, इस पर निर्भर करता है कि उसका समाधान किया जाए या नहीं। इसमें कोई शक नहीं कि भारत में जातिगत भेदभाव रहा है, लेकिन जिन जातियों को OBC या SC/ST में डाला गया है, उनमें भी आपस में भेदभाव है। ये हम नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के होने वाले मुख्य न्यायाधीश BR गवई ने SC/ST में आरक्षण के आधार पर उपवर्गीकरण का आदेश देते हुए कहा।
उदाहरण के तौर पर, अक्सर ये कहा जाता है कि कोई ब्राह्मण किसी डोम समाज के व्यक्ति के घर में पानी नहीं पीता, लेकिन उदाहरण के लिए ये पूछा जा सकता है कि क्या OBC में शामिल यादव, निषाद, कुर्मी अथवा SC/ST में ही शामिल जाटव, मीणा या फिर पासी समाज के लोग क्या किसी मुसहर या फिर डोम समाज के घर में पानी पीते हैं? एक-दूसरे की जाति में शादी-विवाह करना तो दूर की बात है, क्या इसे भेदभाव की श्रेणी में गिना जा सकता है या नहीं?
तो हाँ, भेदभाव है और इतिहास में भी रहा है। लेकिन, क्या दमा के रोग में गठिया की दवा चलाई जा सकती है? अगर योगेंद्र यादव कहते हैं कि किस जाति के कितने लोग हैं ये गिनती कर लेने से रोग खत्म हो जाएगा या समस्या का समाधान हो जाएगा, तो या तो उनके अंदर का ‘सलीम’ कुछ ज़्यादा ही जाग उठा है या फिर ‘बुद्धिजीवी’ होने की आड़ में वो प्रपंच चला रहे। दूसरी बात, वो कहते हैं कि जाति जनगणना का मतलब सिर्फ जाति गिनने से नहीं है, बल्कि ये एक बड़ी इमारत का स्टोरहाउस है।
बहुत अच्छे! लेकिन, क्या वो भूल जाते हैं कि आज तक ऐसे जितने भी आँकड़े आए हैं उनका इस्तेमाल ग़रीबों के उत्थान के लिए कम और राजनीति के लिए अधिक हुआ है। उदाहरण के रूप में आप ‘मंडल आयोग’ को ही ले लीजिए। इसने OBC को 52% आरक्षण देने की सिफारिश की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत से अधिक किए जाने को असंवैधानिक करार चुका है। VP सिंह जब प्रधानमंत्री थे तब उन्होंने OBC समाज के लिए 27% आरक्षण की व्यवस्था की।
उस दौरान पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हुए, सैकड़ों छात्रों ने आत्मदाह कर लिया, लालू यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं ने इसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया और खुद VP सिंह नेपथ्य में चले गए। अगर ये फैसला उतना ही क्रांतिकारी होता, तो OBC समाज विश्वनाथ प्रताप सिंह को वैसे ही पूज रहा होता, जैसे दलित भीमराव आंबेडकर को पूजते हैं। बाद में ओबीसी में भी सुप्रीम कोर्ट को क्रीमीलेयर की व्यवस्था करनी पड़ी, अर्थात, जो अमीर हो गए उन्हें आरक्षण छोड़ने का नियम बनाना पड़ा।
OBC के नाम पे राजनीति ही हुई, समाज को क्या मिला?
OBC समाज के नेता होने के नाम पर करोड़ों रुपयों के घोटालों में लालू यादव के नाम आए, मुलायम सिंह यादव पर सैकड़ों करोड़ रुपए की संपत्ति अर्जित करने का आरोप लगा, और यहाँ तक कि बिहार में कुछ खास सामान्य वर्ग की जातियों को निशाना बनाते हुए ‘भूरा बाल साफ़ करो’ का नारा दिया जाने लगा। OBC आरक्षण का हुआ क्या? रोहिणी आयोग ने पाया कि OBC के लिए आरक्षित नौकरियों/एडमिशन में 97% सीटें सिर्फ एक चौथाई जातियों को गई।
और तो और, आयोग ने अध्ययन के बाद ये भी पाया कि 24.95% सीटें तो OBC की सिर्फ 10 जातियों में बँट गईं। समस्या ये है कि एक बार इस तरह के फैसले ले लिए जाते हैं तो पीछे मुड़ कर देखने, पुनः समीक्षा या परिस्थितियों के हिसाब से बदलाव का कोई मौका नहीं रहता 100 साल बाद भी। सिफारिशों के बावजूद OBC वर्ग में उपवर्गीकरण की सलाह ठंडे बस्ते में पड़ी हुई है। जब ऐसा कुछ फैसला होगा, फिर योगेंद्र यादव जैसे लोग आग लगवाने के लिए बाहर निकलेँगे और लेख लिखेंगे।
इसी तरह उत्तर प्रदेश में रिटायर्ड जज राघवेंद्र कुमार के नेतृत्व वाले पैनल ने भी OBC के उपवर्गीकरण की सिफारिश की। योगेंद्र यादव कहते हैं कि जाति के अलावा अन्य चीजें भी नोट की जाएँगी, जैसे खाना गैस चूल्हे पर बनता है या मिट्टी के चूल्हे पर, बिजली-पानी की व्यवस्था है, घर की स्थिति कैसी है, इत्यादि। अगर समाजिक-आर्थिक सर्वे ही कराना है और उद्देश्य अंतिम पायदान पर खड़े लोगों का उत्थान तो फिर जाति पूछने की ज़रूरत ही नहीं। बिना जाति पूछे ही सर्वे करा कर उन तक सरकारी योजनाओं के लाभ पहुँचाए जा सकते हैं।
बिहार में जाति जनगणना से क्या पटना अब न्यूयॉर्क बन गया?
अब योगेंद्र यादव के तीसरे पॉइंट पर आते हैं, योगेंद्र यादव का कहना है कि ये इस पर निर्भर करता है कि वास्तविक जीवन की परिस्थितियों और उपलब्ध समय के हिसाब से व्यावहारिक होना चाहिए। बिहार में जाति जनगणना के मॉडल की वो बात करते हैं। 500 करोड़ रुपए लगा कर क्या हुआ? कुछ जातियों ने अपनी जनसंख्या छिपाने का आरोप लगाया, आपस में सोशल मीडिया में सिर-फुटव्वल हुई, हर जाति के ठेकेदारों ने इस हिसाब से खुद को तौला और शुरू हो गई नेतागिरी।
ऐसा कुछ तो नहीं है न कि जाति जनगणना करा लिए जाने के बाद से पटना में न्यूयॉर्क जैसे विकास हो गया है? उलटे सत्ता बदल गई, नीतीश कुमार ने एक बार फिर से राजद के साथ गठबंधन तोड़ कर भाजपा का दामन थाम लिया। जाति जनगणना अगर इतना ही सुंदर और व्यावहारिक फैसला होता तो फिर गठबंधन में दरार क्यों आ गई? इसका उद्देश्य था कि हर नेता अपनी-अपनी जाति की जनसंख्या जान ले, बस हो गया। जाति के नाम पर घृणा फैलाने वाले कुछ अन्य जातियों को गाली दे दें, हो गया।
चौथे पॉइंट में योगेंद्र यादव कहते हैं कि जातिगत जनगणना का खर्च असंभव नहीं होना चाहिए। भारत में ऐसे कार्यों के लिए किन्हें लगाया जाता है? शिक्षकों को, सरकारी कर्मचारियों को। इससे पठन–पाठन का नुकसान होता है। सभी जातियों को, क्योंकि 14 साल तक के बच्चों के लिए या 8वीं कक्षा तक के लिए सरकारी स्कूलों में शिक्षा बिल्कुल मुफ्त है। यहाँ आरक्षण नहीं है। शिक्षक हमेशा जनगणना से लेकर चुनावी ड्यूटी तक पर लगे रहें, और योगेंद्र यादव जैसे लोग जाति जनगणना की बातें कर-कर के अपना उल्लू सीधा करते रहें, यही उद्देश्य है।
योगेंद्र यादव पाँचवें पॉइंट में कहते हैं कि प्रक्रिया जोखिम भरी नहीं होनी चाहिए और इसका नुकसान इसके लाभ से कम होने चाहिए, फिर उत्तर ‘हाँ’ होता है। ये जोखिम भरा तो है। जिस भारत में जातिवाद मिटाने की बात की जाती है, जहाँ जाति को लेकर कई भीषण संघर्ष हो चुके, वहाँ आप जातिगत पहचान को ही सबकी प्राथमिक पहचान बना दे रहे हैं, क्या ये उचित है? भारतीयता और सामाजिक पहचान गई तेल लेने, सब अपनी-अपनी जाति के आधार पर ही जाने जाएँ, है न?
इसके तहत पहले कथित सवर्णों और पिछड़ों को लड़ाया जाएगा, फिर OBC आरक्षण की सच्चाई सामने आएगी कि कुछ ही समूह सारा लाभ खा रहे हैं और फिर SC/ST को लेकर ये बात सामने आएगी कि कुछ समूह तमाम आरक्षण के बावजूद हाशिए पर पड़े ही हुए हैं, इससे आंतरिक संघर्ष और बढ़ेगा, जाति के आधार पर पहचान ऊपर आ जाएगी और बाकी चीजें नीचे चली जाएँगी तो देश गृहयुद्ध की तरफ बढ़ेगा। तो हाँ, ये खतरनाक है। नेता लोग भी चुनाव जीतने के लिए इस संघर्ष का इस्तेमाल करेंगे, खून बहने से राजनीति को आज तक अफ़सोस नहीं हुआ है।
जाति पूछने पर क्यों भड़कते हैं राहुल गाँधी?
योगेंद्र यादव तर्क देते हैं कि गाँवों-बस्तियों में सबको एक-दूसरे की जाति पता है, इसीलिए जाति पूछना बड़ी बात नहीं है। फिर संसद में राहुल गाँधी की जाति जब पूछ दी गई थी तो वो क्यों उखड़ गए थे? अखिलेश यादव क्यों उखड़ गए थे? यानी, एक नेता को विशेषाधिकार है कि वो अपनी जाति न बताए, लेकिन वही नेता चाहता है कि देश के लोग अपना नाम पीछे लें और अपनी जाति आगे करें। वाह! यही वो राजनीति है तो आपसी संघर्ष माँगती है, ख़ून माँगती है, गृहयुद्ध माँगती है।
‘Caste Identity’ को और मजबूत कर ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने के पीछे और क्या उद्देश्य हो सकता है। असली मंशा तो राम मंदिर को लेकर एक हुए हिन्दुओं को बाँटना है। ‘फूट डालो और राज करो’ – शायद अंग्रेजों के ज़माने में ही कॉन्ग्रेस ने ये सीख लिया होगा। हमारी नीतियाँ शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक उत्थान की होनी चाहिए, क्योंकि इनके बिना प्रतिनिधित्व संभव नहीं है। प्रतिनिधित्व जबरन नहीं दिया जा सकता, क्योंकि इसके लिए पहला सक्षम बनाना आवश्यक है। ऐसा नहीं होगा तो घाटा सरकारी कामकाज का है।
वोट बैंक की राजनीति से बचना है तो बिना जाति पूछे हर परिवार का सामाजिक-आर्थिक सर्वे करवाइए। भेदभाव का मूल कारण दुनिया भर में अमीरी और गरीबी के बीच की खाई है। योगेंद्र यादव जाति जनगणना के बाद इस पर आधारित फैसलों के ‘Quiet implementation’ की बात करते हैं, क्या ये लोकतंत्र के विरुद्ध नहीं है? 150 करोड़ लोगों के देश में ‘चुपचाप’ सब कुछ कैसे किया जा सकता है? उस देश में, जहाँ मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहते हैं।
और हाँ, चोरी का काम तो शैतान का होता है। चोरी-छिपे कुछ करने की सलाह दी जा रही है, तो समझ लीजिए कि कोई झोल है। योगेंद्र यादव कहते हैं कि बिना X-Ray के निर्णय नहीं लिया जा सकता कि ऑपरेशन होगा या नहीं। यहाँ तो वो बिना X-Ray के सीधे अंगदान की बात कर रहे हैं, जबकि मरीज को सिर्फ बुखार ही हुआ है। जातिगत भेदभाव मिटाने के लिए जागरूकता अभियान चलाइए, पिछड़े समाज को सरकारी योजनाओं के लाभ दिलाइए और उनके क्षेत्रों में विकास कार्य की गति को तेज़ कीजिए – उद्देश्य ये होना चाहिए, जाति गिन कर राजनीति करना नहीं।
Caste census is relevant and necessary for any well-designed policy to reduce social inequality, to realise the constitutional promise of equality of opportunities and to move towards Babasaheb’s dream of annihilation of caste.
— Yogendra Yadav (@_YogendraYadav) August 4, 2024
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एक तरफ योगेंद्र यादव ‘बाबासाहब के सपनों’ की बात करते हुए जाति मिटाने की भी बात करते हैं, दूसरी तरफ ये भी चाहते हैं कि हर कोई अपनी जातिगत पहचान आगे करे। दोनों चीजें एक साथ कैसे हो सकती हैं? योगेंद्र यादव राहुल गाँधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के रणनीतिकार रहे हैं। राहुल गाँधी जाति पूछने पर भड़क जाते हैं, बाकी पूरे देश की जाति जानना चाहते हैं। दोनों चीजें एक साथ कैसे हो सकती हैं? और हाँ, योगेंद्र यादव का इतिहास भी तो दागदार रहा है।
उन्होंने CAA को लेकर कैसे झूठ फैलाया था, हमें याद करना चाहिए। योगेंद्र यादव ‘इच्छाधारी’ हैं, ‘किसान आंदोलन’ के समय वो ‘किसान नेता’ बने हुए थे। NPR को लेकर उन्होंने झूठ बोला था कि इसके तहत माता-पिता के जन्मस्थान के बारे में पूछा जाएगा, जबकि ऐसा कुछ था ही नहीं। उन्होंने झूठ फैलाया था कि मुस्लिमों को भारत का नागरिक नहीं माना जाएगा। इस कारण NPR के आँकड़े इकट्ठे कर रही कर्मचारियों पर हमले भी हुए थे, वो कर्मचारी मुस्लिम महिलाएँ ही निकली थीं।