लगभग महीने भर से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का शताब्दी समारोह मनाया जा रहा है। भारत में इस समारोह की शुरुआत The Hindu ने एक पूरे पेज के बधाई युक्त विज्ञापन से की थी। इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए वामपंथी नेताओं ने चीन की कम्युनिस्ट सरकार का यशगान किया। अब सीपीएम नेता सीताराम येचुरी, सीपीआई के डी राजा और कुछ अन्य नेताओं ने चीनी दूतावास द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लिया।
भारत के वामपंथियों ने (जी हाँ, ये भारतीय वामपंथी कहलाना पसंद नहीं करते) चीनियों के विश्वास की हमेशा रक्षा की है। ऐसे में शताब्दी समारोह में शामिल न होने का कोई कारण नहीं था। वैसे भी, कोई अपने बॉस को कैसे मना कर सकता है और भारत के वामपंथियों के वर्तमान बॉस पूरी दुनिया पर बॉस गिरी झाड़े पड़े हैं।
पिछले पाँच वर्षों में चीन के साथ हमारे संबंध केवल सीमा पर ही नहीं, बल्कि और क्षेत्रों में भी कैसे रहे हैं, यह जगजाहिर है। पिछले वर्ष लद्दाख में चीनी सेना द्वारा सीमा पर अतिक्रमण की जो कोशिश की गई वह भी सबके सामने है। गलवान घाटी में दोनों सेनाओं के बीच झड़प हुई और चीनी सैनिकों ने प्रोटोकॉल तोड़ते हुए हमारे जवानों पर हमला किया। पूरा देश जब चीन की वैचारिक और सामरिक आक्रामकता के विरुद्ध एक है, उस समय इन वामपंथी नेताओं का चीनी दूतावास के समारोह में भाग लेना क्या संदेश देता है? जब ये नेता चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और उसकी सरकार की खुलकर बड़ाई करते हैं तब देश के नागरिकों को कैसा सन्देश जाता है? भारत में तथाकथित फासीवाद का रोना रोने वाले ये वामपंथी जब अलोकतांत्रिक चीनी सरकार की वैश्विक स्तर पर चल रही अतिक्रमण की नीतियों की आलोचना तक नहीं कर पाते तो क्या संदेश जाता है?
ये ऐसे प्रश्न हैं जो बार-बार उठते हैं और जब उठते हैं तब इन्हें दुनिया भर के कम्युनिस्ट कुतर्क या बौद्धिकता के तीर से मार गिराते हैं। ऐसे में यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि जो कम्युनिस्ट अपनी हर बौद्धिक जुगाली में एक सीमाविहीन दुनिया की कल्पना करते हुए रूमानी हुए रहते हैं वे ‘अपने बॉस’ से यह तक नहीं पूछ पाते कि बॉस, आपने हमें इस काम पर लगा दिया है कि हम विश्व भर को एक सीमाविहीन दुनिया का सपना दिखाएँ पर खुद पूरी दुनिया की सीमाओं पर अतिक्रमण करते क्यों घूम रहे हैं? क्यों नहीं पूछते कि हे बॉस, हम आपकी घटिया करतूतों की रक्षा में ‘ग्लोबल वर्ल्ड’ जैसे घटिया तर्क देते हैं और आपने खुद के देश को ग्लोबल वर्ल्ड से अलग क्यों रखा है? नहीं पूछते कि साम्राज्यवाद के विरुद्ध जुगाली करते-करते आप खुद साम्राज्यवादी कैसे बन गए और एशिया से लेकर अफ्रीका तक अपनी कॉलोनी बसाने पर आमादा हैं?
सबसे मजे की बात यह है कि कम्युनिस्ट मीडिया, उसके संपादक, उसके बुद्धिजीवी और पत्रकार ऐसा करना तो अफोर्ड भी कर सकते हैं पर भारतीय चुनावों में भाग लेकर सरकार बनाने वाले ये वामपंथी लोकतंत्रविहीन चीन और उसकी सरकार का यशगान कैसे अफोर्ड कर लेते हैं? वह भी तब जब इन्हें चुनाव लड़कर सरकार बनाने और राज करने के लिए जनता के बीच जाना पड़ता है। यह करने के लिए किस स्तर की ढिठाई की आवश्यकता पड़ती होगी और वो ढिठाई ये कहाँ से आयात करते होंगे?
भारत के वामपंथी देश भर की भावनाओं की परवाह इक्कीसवीं सदी में नहीं करते, ऐसे समय में जब बातें और मुलाकातें छिपाए नहीं छिपती। ऐसे में यह विचारयोग्य बात है कि जब हम सुनते हैं कि 1962 के युद्ध में ये चीन के साथ खड़े थे तो इस बात पर हमें विश्वास क्यों न हो? जब हम सुनते हैं कि हमारे ये वामपंथी भारत-चीन लड़ाई के समय चीन के लिए चंदा इकट्ठा कर रहे थे या भारतीय सरकार को अतिक्रमणवादी बता रहे थे तब हमें इन बातों पर विश्वास क्यों न हो?
हमारे वामपंथियों को तो कॉन्ग्रेस पार्टी की तरह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ किसी समझौता ज्ञापन को भी छिपाने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा भी नहीं कि सीपीसी के साथ समझौता ज्ञापन पर दस्तखत के सालों बाद भारत को पता चले कि दुनिया में ऐसे भी विषय हैं जिन पर लोकतान्त्रिक भारत की ‘ग्रैंड ओल्ड पार्टी’ और अलोकतांत्रिक चीन की सीपीसी एक ही तरह से सोचते हैं। या हम उस दिन की कल्पना करें जब वामपंथियों की कला सीख कर कॉन्ग्रेसी भी भविष्य में चीनी दूतावास के समारोहों में खुलेआम दिखाई दे सकते हैं!