बुद्धिजीवी कुछ सकुचाए, भरमाए से एक बात कह रहे हैं कि 2019 का चुनाव मुद्दों का चुनाव नहीं रहा। यह चुनाव केवल एक मुद्दे पर लड़ा गया वह है मोदी। या तो आप मोदी के लिए वोट दे रहे थे या मोदी के विरुद्ध। भाजपा की तरफ से कोई दूसरा प्रत्याशी किसी चुनाव क्षेत्र में नहीं था और दूसरी तरफ विपक्ष की ओर से भी कोई स्थानीय प्रत्याशी किसी स्थानीय प्रत्याशी के विरुद्ध नहीं खड़ा हुआ था।
चुनाव को मुद्दों का चुनाव बनाने की जिम्मेदारी विपक्ष की होती है, सत्ता में जो दल रहेगा वह तो अपना गुणगान करेगा ही। लेकिन कॉन्ग्रेस ने कुछ मुद्दे गलत चुने जिसका परिणाम उसे भुगतना पड़ा। जो कॉन्ग्रेस दिसंबर 2018 तक सोशल मीडिया पर बहुत आगे दिख रही थी फ़रवरी आते आते पिछड़ गयी। कॉन्ग्रेस के सामने समस्या यह भी है कि भाजपा की सरकारों ने मानदंड ऐसे स्थापित किये हैं जिनपर खरा उतर पाना और तुलना से बचना बिना कठिन परिश्रम के संभव नहीं।
न्याय योजना एक अच्छा दांव था लेकिन राजस्थान और मध्यप्रदेश की सरकार अपने वादे पूरे नहीं कर पाई जिससे यह पूर्व नियोजित दांव कमजोर पड़ गया। कई स्थानों पर फॉर्म बंटवा कर वोटरों को भ्रमित करने का भी कार्य हुआ। उसके आलावा कॉन्ग्रेस के पास न कोई मुद्दा दिखा न कोई नीयत। कॉन्ग्रेस और अन्य सभी दलों ने किसी मुद्दे को उठाने के स्थान पर मोदी को हटाने की बात पर अधिक जोर दिया जिससे एक प्रकार से मोदीजी को ही बल मिला। असीमित अपशब्दों और घृणा के बाद भी मोदीजी की यह जीत अप्रत्याशित ही नहीं विपक्ष के लिए शोध का विषय भी है।
भ्रष्टाचार का आरोप मोदी पर लगाना पानी में तेल मिलाने जैसा मुद्दा था, लेकिन कॉन्ग्रेस अपने पूरे प्रचार में इसी पर अड़ी रही। यहाँ तक कि कोर्ट से फटकार मिलने के बाद भी राहुल गाँधी क्षमा तो माँगते दिखे लेकिन वही बात दोहराते रहे। उनका सलाहकार ठीक होता तो उन्हें इस बात को बहुत पहले ही छोड़ देने को कहता। बचने का तरीका यह था कि आप कह देते कि चलिए उच्चतम न्यायलय कह रहा है तो उनका सम्मान कहते हुए हम मान जाते हैं और अगर हमारी सरकार बनी तो इस मामले में जो दोष होंगे उन्हें दूर करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं किया गया।
इसका परिणाम यह हुआ कि राहुल गाँधी के पूर्वज भी चुनाव में घसीट लिए गए। राफेल की बात बोफोर्स पर जाकर कॉन्ग्रेस के गले में अटक गई। व्यक्तिगत टिप्पणियाँ आज की बात नहीं हैं, चुनावों में सदा से होती आई हैं, बस आजकल सोशल मीडिया की वजह से प्रतिक्रिया तुरंत मिल जाती है, जो पहले संभव नहीं होती थी। किसी नेता ने कुछ कहा, जब तक वह बात फैलती थी तब तक दूसरा कुछ कह देता था और जनता के मन में छोटी मोटी बातें नहीं टिक पाती थीं, अब वैसा सम्भव नहीं है। जो भी सार्वजानिक जीवन में नेता करते और कहते हैं वह एक मुद्दा होता है।
कॉन्ग्रेस को अब राहुल गाँधी के आगे सोचना होगा, एक नेता और देश के नेतृत्त्व के लिए वे स्वयं को सर्वोत्तम प्रत्याशी साबित नहीं कर पाए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे स्वयं भी प्रधानमंत्री बनना नहीं चाहते हैं और उन्हें पार्टी जबरदस्ती नेता बना कर रखना चाहती है। कहना अलग बात है और करना अलग।
अगर उनकी मानसिकता को समझा जाए तो जिस प्रकार से उन्होंने एक खबर फैलाई कि प्रियंका गाँधी वाराणसी से चुनाव लड़ेंगी और फिर वे पीछे हट गए, वह उनका कमजोर पक्ष दिखाता है। सन्देश यह गया कि वे मुकाबला करना ही नहीं चाहते। उसके बाद वे कहते दिखे कि ‘वे तो सबको सस्पेंस में रखना चाहते थे और उसमे में सफल हुए हैं’। अगर उनके मन में प्रधानमंत्री का पद सँभालने की इच्छा होती तो स्वयं को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित करके कम से कम 400 सीटों पर चुनाव लड़ते। लेकिन वे स्वयं जीतना नहीं चाहते। वो केवल मोदी को हराना चाहते थे। अब तक वे अपनी क्षमता पर लोगों को विश्वास दिलाने में असफल ही रहे हैं। प्रियंका गाँधी से कॉन्ग्रेस ने बहुत उम्मीद लगाई थी लेकिन वे भी एक प्रकार से स्वयं को उस स्तर पर स्थापित नहीं कर पाईं जिसकी उनसे आशा थी।
कॉन्ग्रेस को अगर आगे अपना अस्तित्त्व बचाना है और बेहतर राजनैतिक दल के रूप में उभरना है तो गाँधी परिवार के आगे सोचना होगा। कॉन्ग्रेस को अपने भूत और वर्तमान के बोझ से एक बार में मुक्ति पानी होगी। अगर पुनर्निर्माण करना है तो पूरी तरह मिटना होगा।
कॉन्ग्रेस की समस्या शक्ति के केंद्र कुछ गिने चुने परिवारों और उनके मित्रों के बीच रहना है। हेमंत विश्व शर्मा उनके सामने एक ऐसा उदाहरण है। अकेले इन्होंने पूर्वोत्तर की राजनीति को पूरी तरह बदल दिया है। मनमोहन सिंह से बेहतर प्रधानमंत्री प्रणव मुखर्जी साबित होते लेकिन प्राथमिकताएँ और थीं। ऐसे ही अनेक प्रतिभाशाली नेता कॉन्ग्रेस के पास निश्चित होंगे लेकिन उनके पास उचित अवसर नहीं हैं।
अन्य दलों ने भी कॉन्ग्रेस की ही नीति अपनाते हुए केवल मोदी के विरुद्ध वोट करने की माँग की अपने लिए वोट नहीं माँगे, जैसे इनके पास अपनी कोई योजना नहीं है। प्रतिद्वंद्वी की छवि को बिगाड़ने के प्रयास करने से स्वयं की छवि का निर्माण नहीं हो सकता।
प्रतिभा की कमी कॉन्ग्रेस के पास भी नहीं है बीजेपी के पास नहीं, नेताओं की छवि जनता के मन में एक-सी ही है। सच कहें तो जिन्हें लोग, पिद्दी, आपिया या भक्त कहते हैं उनमे से अगर कुछ आईटी सेल वाले और कुछ कट्टर समर्थक निकाल दिए जाएँ जो कि एजेंडा को बढ़ाते हैं तो बाकी के लोग आम जनता ही हैं। चुनाव समाप्त होंगे तो अधिकतर अपने अपने काम में लग जाएँगे। किसी भी दल का समर्थक हो, सभी को वही रोटी, कपड़ा, मकान और रोजगार चाहिए। सभी अपने देश से प्रेम करते हैं बस सबका दृष्टिकोण अलग अलग है। अपनी दृष्टि में जो ठीक लगता है उसके साथ वे खड़े हो जाते हैं चाहे वो किसी भी दल से क्यों न हो। कल जो कॉन्ग्रेस के साथ थे आज जो बीजेपी के साथ हैं और कल वो कॉन्ग्रेस के साथ फिर जा सकते हैं, लेकिन परिपक्व नेतृत्त्व उनकी शर्त है।
वोटर के मन में क्या था अब यह स्पष्ट हो गया है। आशा है सभी विपक्षी दल इससे कुछ सीखेंगे और फिर से सत्ता में आई मोदी सरकार राष्ट्रनिर्माण में कोई कसर नहीं छोड़ेगी क्योंकि इस बार उम्मीदें पिछली बार से अधिक होंगी। विपक्ष को सलाह है कि वे लोगों की उम्मीदों पर अधिक ध्यान दें, मोदी को गिराने की जगह स्वयं को राष्ट्रनिर्माण में सहयोगी की तरह प्रस्तुत करें अन्यथा अगला चुनाव भी स्वप्न ही होगा।