Saturday, November 16, 2024
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बालपन की कुछ सफेद कहानियाँ और काले कपड़ों वाली कॉन्ग्रेस…

शायद इन कहानियों से कोई रास्ता भी निकलता हो जो मृत्यु शय्या पर पड़ी पार्टी को कुछ जीवन दे जाए। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि अपने राजनीतिक फायदे के लिए जिस पार्टी ने देश को सही इतिहास नहीं पढ़ने दिया, क्या उस पार्टी के नेताओं ने कभी ये नैतिक कहानियाँ पढ़ी होंगी?

एक परिवार। इतना सशक्त कि स्वतंत्र भारत में उसके सामने खड़े होने की कोई कल्पना न कर सके। जो चुनौती दे उसका अस्तित्व ही मिट जाए। या फिर उसे पिछलग्गू बन शेष जीवन गुजारना पड़े। आज उसे ईडी के सामने हाजिरी लगानी पड़ रही है। हेराफेरी के आरोपों में कब गिरफ्तारी हो जाए, कहा नहीं जा सकता।

एक पार्टी। इतनी ताकतवर कि उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूरब से लेकर पश्चिम तक उसके सामने किसी का वजूद न दिखे। वह आज खुद वजूद के संकट से जूझ रही है।

जो मनमर्जी से मुख्यमंत्री बदलते रहे हैं, पर्दे के पीछे से प्रधानमंत्री को हाँकते रहे हैं, हर संवैधानिक संस्था को कुचलने के आदी रहे हैं, आज उसके वारिस को इस देश का आम आदमी ‘पप्पू’ समझे तो तड़पना स्वभाविक है।

यही कारण है कि शुक्रवार (5 अगस्त 2022) को कॉन्ग्रेस के शीर्ष परिवार ने अपने समर्थकों के साथ काले कपड़ों में संसद से सड़क तक जो हंगामा किया वह बेअसर ही रही। मीडिया के लिए भी कमोबेश यह एक सियासी नौटंकी ही थी, जो नेशनल हेराल्ड मनी लॉन्ड्रिंग मामले में प्रवर्तन निदेशालय के कसते शिकंजे से उपजा था।

कॉन्ग्रेस की इस बौखलाहट से बचपन की कुछ कहानियॉं स्मृतियों में तैरने लगी। ये वे कहानियॉं हैं जो बताती हैं कि कॉन्ग्रेस की दुर्गति होनी ही थी, उसके शीर्ष परिवार का अहंकार टूटना ही था। एक दिन इस देश और उसकी जनता के सामने उसे नग्न होना ही था।

पहली कहानी: उल्लू (कॉन्ग्रेस) और बंदर (जनता)

जंगल में एक उल्लू रहता। उसे दिन में कुछ दिखाई नहीं देता। वह दिनभर घोंसले में छिपा रहता। एक दिन भयंकर गर्मी में कहीं से कोई बंदर उस घोंसले के पास आया और कहा कि आज सूर्य किसी आग के गोले की तरह चमक रहा। यह सुन उल्लू बोल उठा- तुम झूठ बोलते हो। सूर्य कुछ होता नहीं। चंद्रमा कहते तो मैं भी मान लेता। बंदर ने समझाने का काफी प्रयास किया। लेकिन उल्लू सुनने को तैयार नहीं। उलटा अपने साथियों के संग बंदर का मजाक उड़ाने लगा। बंदर को मारने पर उतावले हो गया। आखिर में बंदर ने भागकर जान बचाई।

ठीक इसी कहानी की तरह कॉन्ग्रेस के शीर्ष परिवार ने जनपथ की कोठरी में खुद को कैद कर लिया। जनता की आवाज को अनसुना किया। मुस्लिम तुष्टिकरण की आड़ में हिदू भावनाओं की उपेक्षा की। बहुमत के बल पर सत्य को असत्य बताती रही। मानती रही कि उसका कहा ही अंतिम सत्य है। लिहाजा जब भारत की नई पीढ़ी ने अंगड़ाई ली, सोशल मीडिया ने उनकी मुखरता को आवाज दी तो कॉन्ग्रेस को पता ही नहीं चला कि उसके पैरों के नीचे से जमीन कब खिसक गई।

दूसरी कहानी: मेंढक (कॉन्ग्रेस) और बैल (जनता)

तालाब में एक मेंढक अपने परिवार के साथ रहता। खुद को बड़ा बताने और ताकतवर दिखाने के लिए अपने ही बच्चों को झूठी कहानियाँ सुनाता। एक दिन मेंढक के बच्चे तालाब से बाहर निकल गए। एक बैल को देखा। उसका कद-काठी और ताकत देख अचंभित हो उठे। तालाब में लौट पिता को बैल के बारे में बताया। कुंठित मेंढक बच्चों को प्रभावित करने के लिए अपने शरीर को फुलाते गया और आखिर में फटकर छितरा गया।

जमीन से कट चुकी कॉन्ग्रेस ने तालाब को ही पूरा देश मान लिया। मान लिया कि नेहरू-गाँधी परिवार से न कोई बड़ा, न कोई ताकतवर। लिहाजा जब जनता ने अपना बल दिखाया तो फटना ही उसकी नियति थी।

तीसरी कहानी: कौवा (कॉन्ग्रेस) और बगुला (जनता)

सूखा पड़ा। मनुष्य से लेकर पशु पक्षी तक खाने-पीने को तरस गए। कई दिनों से भोजन की तालाश कर रहे कौवे ने जब एक तालाब में बगुले को चुन-चुनकर मछली खाते देखा तो उसे यह बड़ा आसान लगा। वह तालाब के किनारे पहुँचा तो बगुले ने मदद की पेशकश की। आगाह किया कि तालाब में जाना उसके लिए जानलेवा हो सकता है। लेकिन कौवा अपनी गुमान में। मछली का शिकार करने खुद तालाब में उतर गया। कीचड़ में उलझ गया। कुछ देर बाद दम घुटने से मर गया।

यह कहानी हमें बताती है कि कुछ भी बैठे-बैठे हासिल नहीं होता। उसके लिए लगातार श्रम की आवश्यकता होती है। केवल नकल भर से वांछित परिणाम हासिल नहीं किया जा सकता। 2014 में जब लगातार जमीनी श्रम की वजह से भाजपा उभरी, हिंदू भावनाओं के रथ पर सवार हो भारतीय राजनीति के पटल पर नरेंद्र मोदी छा गए, उसके बाद भी कॉन्ग्रेस मुगालते से बाहर नहीं निकली। उसे लगा कि वह हिंदुओं को मूर्ख बनाकर सत्ता फिर से हासिल कर लेगी। लिहाजा जब-जब चुनाव आते हैं उसके युवराज ‘हिंदू’ बन जाते हैं। चुनाव खत्म होते ही विदेश निकल जाते हैं। राजनीति पूर्णकालिक कार्य है। यहाँ नकल से भी नतीजे तभी मिलते हैं जब आप लगातार जमीन पर सक्रिय रहें।

बालपन की ऐसी कई कहानियाँ हैं जिन्हें हम बढ़ती उम्र के साथ भूल जाते हैं। लेकिन इनमें जीवन भर के सबक होते हैं। शायद इन कहानियों से कोई रास्ता भी निकलता हो जो मृत्यु शय्या पर पड़ी पार्टी को कुछ जीवन दे जाए। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि अपने राजनीतिक फायदे के लिए जिस पार्टी ने देश को सही इतिहास नहीं पढ़ने दिया, क्या उस पार्टी के नेताओं ने कभी ये नैतिक कहानियाँ पढ़ी होंगी?

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अजीत झा
अजीत झा
देसिल बयना सब जन मिट्ठा

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