आम आदमी की तरह दिखने वाले जो लोग बात-बात पर चिंतित हो जाते हैं, अक्सर उन्हें बुद्धिजीवी या विशेषज्ञ मान लिया जाता है। देश, समाज और काल में किसी क्रिया या समस्या से भविष्य में होने वाले असर के प्रति अक्सर फ़र्ज़ी चिंता के प्रदर्शन का और उसे समझाने का महत्वपूर्ण काम ये बुद्धिजीवी और विशेषज्ञ अपने काँधे पर ले लेते हैं। इस तथाकथित ज़िम्मेदारी का एहसास ही उन्हें आम आदमी से अलग करता है।
अब कोरोना की ही बात ले लीजिए। जब एक वर्ष पहले यह भारत में घुसा तो चिंतित होने का सबसे महत्वपूर्ण काम ऐसे लोगों ने किया जो ख़ुद को भारतवर्ष के सामने विशेषज्ञ घोषित कर चुके थे। इन विशेषज्ञों ने अपने मन में चलने वाली अंक गणित का हिसाब लगाया और घोषणा की कि बस महीना दो महीना में करोड़ों पीड़ित होंगे और लाखों की संख्या में लोग मारे जाएँगे। इन तथाकथित विशेषज्ञों की भविष्यवाणी को मीडिया ने खूब जगह दी। जो बातें ढाई मिनट के वीडियो में बताई जा सकती थीं उन्हीं बातों को बताने के लिए साढ़े बारह मिनट के वीडियो बनाए गए। जो बातें ढाई सौ शब्दों में लिखी जा सकती थीं उन्हें लिखने के लिए पंद्रह सौ शब्दों का सहारा लिया गया ताकि भविष्यवाणियों पर लोगों का विश्वास पुख़्ता किया जा सके।
खान मार्केट मीडिया ने सवा महीने इन भविष्यवाणियों का सस्वर पाठ किया। विदेशी मीडिया ने इन्हें उछाला। विदेशी मीडिया का कोई मंच बचा नहीं था जहाँ ख़ुशी ज़ाहिर न की गई। सूत्रों के सहारे हतप्रभ कर देने वाले फ़र्ज़ी टेबल बनाकर फ़र्ज़ी बातों और परिकल्पनाओं की जलेबी काढ़ी गई। यह सोचकर सब बहुत खुश थे कि जल्द ही भारतवर्ष लाशों से पट जाएगा। चारों ओर हाहाकार मचेगा। सब तरफ़ तबाही फैल जाएगी। जिस तरह के कॉलम लिखे गए उन्हें पढ़कर साफ़ दिखाई दिया कि कैसे गिद्धों की एक पूरी टोली लाशें देखने के लिए पाँत लगाए बैठी हुई है कि कब लाशें गिरें और ये गिद्ध डान्स शुरू करें।
पर हाय, नियति को यह मंज़ूर न था। भारत ने लॉकडाउन करके, स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार करके, मेडिकल उपकरण बनाकर और डॉक्टर और स्वास्थ्य योद्धाओं के लगातार प्रयास से ऐसा होने नहीं दिया। जब काफ़ी दिनों की प्रतीक्षा के बाद भी ऐसा न हुआ तो निराश हुए इन लोगों ने भारत से निकल रहे आँकड़ों पर शंका ज़ाहिर करना शुरू किया।
प्रोपेगेंडा का प्रथम चरण था। प्रश्नवाचक चिन्ह लगाकर आँकड़ों के प्रति आम भारतीय के मन में शंका पैदा करने की कोशिश शुरू हुई। फिर भारत में बन रही वैक्सीन को लेकर शंका पैदा करने की कोशिश की गई। वैक्सीन बनाने वाली कम्पनियों के प्रयास और ट्रायल के आँकड़ों को झुठलाने की कोशिश की गई। गैंग मेम्बर, छुटभैय्ये राजनेता, हारे हुए कॉन्ग्रेसी और बेरोज़गार संपादकों के ईकोसिस्टम ने हर वह प्रयास किया जिससे कोरोना के विरुद्ध देश की लड़ाई को कमजोर किया जा सके।
तरह-तरह की आवाज़ें सुनाई दीं। “ये भाजपा की वैक्सीन है” से लेकर “पहले प्रधानमंत्री खुद लगवाएँ” तक का सफ़र महीने भर में तय हो गया। भारत के जिस वैक्सीन मैत्री को दुनियाँ ने सराहा उसी की बुराई करने के प्रयास में इस ईकोसिस्टम ने नए-नए कीर्तिमान गढ़े। “ये वैक्सीन दूसरों को क्यों दी जा रही है” से लेकर “इक्स्पाइअर्ड वैक्सीन दे दिया” तक कोई प्रॉपगैंडा बचा नहीं जिसे न फैलाया गया। बाद में जिस वैक्सीन को बेकार बताया गया उसी की कमी का शोर उन्हीं लोगों ने मचाया जिन्होंने उसे बेकार बताया था।
विपक्षी नेता सार्वजनिक तौर पर वैक्सीन के ख़िलाफ़ बोलते रहे और व्यक्तिगत तौर पर उसी वैक्सीन की सुई घोंपवाते रहे। देश में बनने वाली वैक्सीन के ख़िलाफ़ प्रॉपगैंडा फैलाने का काम कालांतर में छुटभैय्ये नेताओं से मुख्यमंत्रियों तक के हाथ में आ गया। जब इस सबसे बात नहीं बनी और वैक्सीन प्रोग्राम सफल होता दिखा तब उसकी कमी की बात उठाई गई। साथ ही यह सवाल उठाया गया कि वैक्सीन सबको क्यों नहीं लगाई जा रही? हर बार प्रश्न पूछकर यही साबित करने की कोशिश की गई जैसे कोरोना के ख़िलाफ़ सरकार की लड़ाई बिना किसी प्लान या नीति के कर रही है और उसमें विशेषज्ञों का कोई हाथ नहीं है।
जब सब कुछ करके थक गए तो डॉक्टर मनमोहन सिंह को आगे रखकर पत्र लिखने की राजनीति पर उतर आए। मनमोहन सिंह पत्र लिखकर सरकार को पारदर्शिता की नसीहत दे रहे हैं। पारदर्शिता से डॉक्टर सिंह का रिश्ता टू जी और कोलगेट के समय से रहा है। वे कहीं से भी चलते हैं पारदर्शिता पर ज़रूर पहुँचते हैं। डॉक्टर हर्षवर्धन के जवाबी पत्र ने उनके सवालों और सुझावों की कलई उतार दी है। ऐसा पहली बार हुआ जब केंद्र सरकार ने जवाब देते हुए किसी तरह की कोई कोताही नहीं बरती।
अब जबकि पंद्रह दिनों ने कोरोना की दूसरी लहर चली है और आम भारतीय उससे पीड़ित हुआ है, ईकोसिस्टम और उसके सहायक विदेशी मीडिया में फिर उसी उल्लास की आँधी चल रही है जो एक वर्ष पूर्व चली थी। गिद्धों की पाँत फिर से वैसे ही बैठ गई है। फिर से हेडलाइन के आगे प्रश्नवाचक चिन्ह के सहारे वक्तव्य दिए जा रहे हैं। फिर से श्मशान घाट की दो-ढाई वर्ष पुरानी तस्वीरें सोशल मीडिया पर शेयर की जा रही हैं। नेताओं द्वारा फ़र्ज़ी प्रश्न उठाए जा रहे हैं। शायद फिर उसी आकाँक्षा के साथ कि भारत कोरोना के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई हार जाएगा।