Monday, October 7, 2024
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‘मुझे पता है इसी व्यक्ति ने यह अपराध किया है…’: प्रियदर्शिनी की राह पर तेजपाल का केस, क्या वैसा ही होगा आखिरी फैसला

गोवा सरकार द्वारा की जाने वाली यह अपील हमें आशावान अवश्य बनाती है। यह आशा दिलाती है कि न्यायालय के फैसले में सबूत नष्ट करने की बात का जिक्र बिना किसी लाग-लपेट के किया गया तो उच्च न्यायालय अपील में इस बात का संज्ञान लेते हुए न्याय की दिशा में जाएगा।

आठ वर्ष लग गए यह तय करने में कि तरुण तेजपाल पर बलात्कार के आरोप झूठे थे। न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा थी वह अंत में आया और तब पता चला कि तेजपाल निर्दोष हैं। खुशियाँ मनाई गई। तेजपाल ने अपने मृत वकील के लिए बड़ा भावनात्मक धन्यवाद ज्ञापन लिखा। साथ ही उन्होंने भारत की न्याय व्यवस्था में अपनी आस्था जाहिर की। कई लोगों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा।

तेजपाल के मित्रों और समर्थकों ने राहत की साँस लेते हुए बताया कि उन्हें तेजपाल पर और देश की न्याय व्यवस्था, दोनों पर विश्वास था और दोनों ने उनके इस विश्वास की रक्षा की। सोशल मीडिया पर उपस्थित लोगों ने यह कहते हुए- ‘यदि तेजपाल निर्दोष थे तो उन्होंने वह स्वीकारोक्ति क्यों लिखी थी जिसमें उन्होंने खुद को दोषी मानते हुए किसी पछतावे की बात कही थी’, शोर जैसा कुछ मचाने की कोशिश की। कुछ लोग यह कहते हुए निराश दिखे कि देश की न्याय व्यवस्था बड़े लोगों का कुछ नहीं कर पाती।
       
न्याय व्यवस्था और न्यायालयों की अपनी प्रक्रिया होती है। वे उसी अनुसार चलते हैं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि किसी निर्णय से लोग निराश दिखे। यह पहले भी सैकड़ों बार हो चुका है और भविष्य में भी होगा। केवल इतिहास ही खुद को नहीं दोहराता, न्यायालय भी खुद को दोहराते हैं। साक्ष्य की उपलब्धता या अनुपलब्धता के आधार पर होने वाले फैसले किसी न किसी को निराश करते रहे हैं और तरुण तेजपाल पर अपराध का यह मामला अपवाद नहीं है।

अब जबकि न्यायालय का विस्तृत फैसला आ चुका है, तेजपाल को निर्दोष साबित करने के पीछे के कारणों का पता चल रहा है। पता चल रहा है कि गिरफ्तारी के समय जिस तेजपाल को गोवा की कानून-व्यवस्था पर जरा भी विश्वास नहीं था और बार-बार यह रटे जा रहे थे कि उन्हें फँसाया जा रहा है, क्योंकि गोवा में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, उसी तेजपाल को बाद में गोवा की कानून-व्यवस्था और भारत की न्याय व्यवस्था पर इतना विश्वास कैसे हो गया।

527 पेज के विस्तृत फैसले से महत्वपूर्ण हिस्से को उद्धृत करते हुए आई खबर से पता चल रहा है कि कैसे जाँच अधिकारी ने अपराध के इस मुक़दमे में सबूत मिटाए या उनकी अनदेखी की। अपने फैसले में न्यायाधीश क्षमा जोशी लिखती हैं, “गोवा पुलिस ने अपराध के इस मामले में ठोस सबूत मिटाने का काम किया।” फैसले में यह बताया गया है कि कैसे जाँच अधिकारी ने होटल के फर्स्ट फ्लोर के सीसीटीवी फुटेज मिटाने का काम किया।

न्यायाधीश ने अपने फैसले में लिखा, “जाँच अधिकारी ने ग्राउंड फ्लोर और सेकंड फ्लोर का सीसीटीवी फुटेज न्यायालय के सामने रखा पर फर्स्ट फ्लोर का सीसीटीवी फुटेज न्यायालय के सामने रखा ही नहीं गया और यह जाँच अधिकारी द्वारा की गई बहुत बड़ी भूल है। न्यायालय ने और बहुत से उदहारण गिनाए हैं जिनसे लगता है कि जाँच अधिकारी और गोवा पुलिस ने अपराध की जाँच ठीक तरह से नहीं की और सबूतों को मिटाने में भी उनकी भूमिका थी।  

यह फैसला हमारी कानून-व्यवस्था को अपराधियों द्वारा साध लेने की कहानी का दस्तावेज है। पर न्यायालय द्वारा गोवा पुलिस और जाँच अधिकारी के काम को भूल बताया जाना भी कुछ तर्कपूर्ण नहीं लगता। यदि इस बात के सबूत हैं कि ऐसा जानबूझकर किया गया है तो पुलिस के खिलाफ कोई मामला क्यों नहीं बन सकता? जिन सबूतों के आधार पर अपराध के एक मुकदमे में फैसला होना है, उसे जानबूझकर मिटाना भूल है या अपराध?

यदि न्यायालय का मानना है कि ऐसा करने के पीछे उद्देश्य आपरधिक मुक़दमे के निर्णय को प्रभावित करना था तो फिर तेजपाल दोषी हों या निर्दोष, वह जाँच अधिकारी तो दोषी है। सबूतों के अभाव में जिस तरह से तेजपाल निर्दोष साबित हुए उसे देखते हुए मुझे प्रियदर्शिनी मट्टू बलात्कार और हत्या के आपराधिक मुकदमे की याद आ गई। उस मुक़दमे में भी सबूतों के अभाव में फैसला सुनाते हुए न्यायाधीश ने फैसला सुनाते हुए कहा था, “मुझे पता है कि इसी व्यक्ति (संतोष कुमार सिंह) ने यह अपराध किया है पर सबूतों के अभाव में मुझे बेनिफिट ऑफ डाउट देते हुए इसे रिहा करना पड़ रहा है।” 

प्रियदर्शिनी मट्टू के बलात्कार और हत्या के मामले में जो ‘बेनिफिट ऑफ डाउट’ 1999 में संतोष कुमार सिंह को मिला था ठीक वही ‘बेनिफिट ऑफ डाउट’ 2021 में तरुण तेजपाल को मिला है। न्यायालय के फैसले से पता चलता है कि सबूतों का अभाव नहीं था, बल्कि अभाव बनाया गया। गोवा सरकार ने निर्णय के खिलाफ मुंबई उच्च न्यायालय में अपील की गई है पर ऐसी अपील का क्या अर्थ? जब मामला सेशन कोर्ट में था तब राज्य सरकार के वकील को यह पता नहीं चला कि उसी की तरफ से जाँच अधिकारी या गोवा पुलिस क्या कर रही है तो मुंबई उच्च न्यायालय में गोवा पुलिस और राज्य सरकार के वकील मिलकर ईमानदारी से मुकदमा लड़ेंगे, इस बात की गारंटी कौन देगा?
 
सबूतों के अभाव में तेजपाल के निर्दोष साबित होने से लेकर गोवा सरकार द्वारा मुंबई उच्च न्यायालय में की गई अपील तक यह मामला भी प्रियदर्शिनी मट्टू केस की तरह ही दिखाई दे रहा है। यह समानता यही ख़त्म हो जाएगी या आगे तक चलेगी, यह मुंबई उच्च न्यायालय में होने वाली सुनवाई और उसके तरीकों से पता चलेगा। प्रियदर्शिनी मट्टू केस केवल बलात्कार ही नहीं, बल्कि हत्या का भी मामला था ऐसे में उसे लेकर लोगों की और दिल्ली उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की प्रतिक्रिया जैसी थी, वैसी ही मुंबई उच्च न्यायालय में दिखाई देगी या नहीं, यह समय बताएगा।

यह बात जरूर है कि गोवा सरकार द्वारा की जाने वाली यह अपील हमें आशावान अवश्य बनाती है। यह आशा दिलाती है कि न्यायालय के फैसले में सबूत नष्ट करने की बात का जिक्र बिना किसी लाग-लपेट के किया गया तो उच्च न्यायालय अपील में इस बात का संज्ञान लेते हुए न्याय की दिशा में जाएगा। 

अंत में प्रश्न यह उठता है कि न्यायाधीश क्षमा जोशी द्वारा लिखे गए इस विस्तृत फैसले के सार्वजनिक होने के बाद तेजपाल नैतिकता के किस टीले पर खड़े होकर गौरवान्वित महसूस करेंगे? न्यायालय से निर्दोष करार दिए जाने के बाद जिस बनावटी नैतिकता ओढ़ते हुए उन्होंने जिस न्याय-व्यवस्था में अपनी आस्था जाहिर की थी, उसका आस्था का अब क्या होगा? साथ ही न्याय-व्यवस्था में प्रकट की गई उनके मित्रों की आस्था का क्या होगा? फिर से वही प्रश्न उठाये जाएँगे कि यदि निर्दोष ही थे तो आठ वर्ष पहले माँगी गई माफी के पीछे क्या कारण थे? उस पछतावे के मूल में क्या था जिसे उन्होंने अपनी सजा के तौर पर स्वीकार किया था? क्या एक बार फिर से वर्षों की बेशर्मी न्याय व्यवस्था में प्रकट की गई आस्था के ऊपर चढ़ बैठेगी?

विस्तृत फैसले में सबूतों को मिटाने की बात से एक सीख सरकार चलाने वालों के लिए भी है। विचार करें कि प्रशासन सरकार के नीचे है या ऊपर?

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