ईरान और पाकिस्तान ने हाल ही में लगभग 12,000 अफगान प्रवासियों को अपने-अपने देशों से निर्वासित किया है। अफगानिस्तान के शरणार्थी और प्रत्यावर्तन मंत्रालय ने बताया कि सभी अफगान वापस अफगानिस्तान लौट आए हैं। हालाँकि, भारत में पड़ोसी देशों के मुस्लिमों को लेकर चिंतित रहने वाले कथित सेक्युलर इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। एक इस्लामी देश में ही मुस्लिमों के लिए जगह नहीं है।
ऐसा नहीं है कि ऐसा सिर्फ अफगानिस्तान के लोगों के साथ हो रहा है। जो काम पाकिस्तान अफगान लोगों के साथ करता है, वही काम अरब देश पाकिस्तान-बांग्लादेश या एशिया के अन्य इस्लामी देशों के साथ करते हैं। ऐसे में समय में देश के ये सेक्युलर जमात चुप्पी साध लेता है। इनके पास कहने को ना शब्द होते हैं और ना ही इसके पीछे देने के लिए तर्क होता है।
देश में नागरिकता संशोधन कानून लागू हुआ तो यही जमात पड़ोसी देशों के मुस्लिमों को लेकर चिंतित हो रहे थे। उनके लिए ऐसे तर्क दे रहे थे, जैसे मानवाधिकार के ये कितने बड़े रहनुमा हों। सायमा, राना अयूब, आरफा खानुम शेरवानी जैसे लोग CAA का यह कहकर विरोध कर रहे थे, जब भारत पड़ोसी इस्लामी मुल्कों के पीड़ित हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई आदि को अपने यहाँ आश्रय दे सकता है तो मुस्लिमों को क्यों नहीं।
अब जब पाकिस्तान अफगानिस्तान के मुस्लिमों को अपने यहाँ से जबरन निकाल रहा है तो ये जमात ना ही पाकिस्तान की भर्त्सना कर पा रहा है और ना ही ईरान का। एक इस्लामी मुल्क जब अन्य इस्लामी मुल्क के गरीब, पीड़ित मुस्लिमों को ही आश्रय नहीं दे रहा है तो भारत जैसे विविधता वाले देश से इस तरह की माँग किस तरह पर की जा सकती है, जबकि हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध जैसे धर्मों के लोगों को आश्रय लेने के लिए दुनिया में और कहीं जगह नहीं है।
चुनिंदा और अपनी सहूलियत के हिसाब से मुद्देे को रंग देने के कारण ही आज भारत में मुस्लिमों से जुड़े हर सवाल पर लोगों को संदेह होने लगा। इस संदेह में आरफा-सायमा जैसे नैरेटिव गढ़ने वालों का बहुत बड़ा योगदान है। वर्ना भारत में तो दुनिया भर के सताए हुए लोगों के आश्रय देने की प्राचीन परंपरा रही है। चाहे वो पारसी हों, यहूदी हों या यहीद के शासन काल के मुस्लिम ही क्यों ना हों, जिन्हें सिंध के राजा दाहिर ने अपने यहाँ शरण दिया था।
भारत में शरण पाने के बाद सारे समुदाय एवं पथ के लोग भारत की संस्कृति में समाहित हो गए, रच-बस गए लेकिन इस्लाम हमेशा खुद को अलग-थलग रखा। वह खुद को विशेष महसूस कराने के दायित्व दूसरे पर डालता रहा। परिणाम ये रहा है कि वे स्थानीय समुदाय के मन-मस्तिष्क में ऐसे लोगों की वजह से अपना स्थान नहीं बना पाए, जो आज के सेक्युलर बिरादरी जैसे कारामात उस दौरान के कुछ कथित लोग भी करते रहे होंगे।
इसमें आखिरकार नुकसान गरीब मुस्लिम वर्ग का ही हुआ। लेकिन, इन लोगों के लिए ये कभी मुद्दा रहा ही नहीं कि गरीब मुस्लिमों के बीच शिक्षा और विकास को तवज्जो दी जाए। अगर ऐसा होता तो ये सीरिया, लेबनान, इराक जैसे हिंसा ग्रस्त मुल्कों के आवाज उठाते। वहाँ के आतंकियों और सरकारों को कोसते। विश्व समुदाय के लोगों से उनके बीच शांति बहाल करने की कोशिश करते। हालाँकि, ऐसी माँग करते हुए उन्हें कभी देखा नहीं गया।
जब ईरान और पाकिस्तान की सरकारों ने अफगानिस्तान के हिंसा प्रभावित लोगों को देश से बाहर निकाल दिया तो हैदराबाद के सांसद ओसदुद्दीन ओवैसी भी चुप्पी साधे बैठे हैं। वे शपथ ग्रहण करते हुए जय फिलिस्तीन के नारे लगा सकते हैं, पाकिस्तान के मुस्लिमों को CAA के तहत भारत में बसने के अधिकार की माँग कर सकते हैं लेकिन अफगानिस्तान के अपने मुस्लिम भाइयों के लिए आवाज नहीं उठा सकते।
ये सारा कुछ इस्लाम की वैश्विक भाईचारा का नतीजा है कह लें, देश की राजनीति में मुस्लिमवाद को बढ़ावा देने की कोशिश, ताकि खुद को पीड़ित शोषित दिखाकर विशेष रियायतों की माँग की सके। दुनिया को यह बताया जा सके कि देखो कि भारत किस तरह मुस्लिमों की अनदेखी करता है। इस तरह नैरेटिव ग़ढ़ने में यहाँ का बुद्धिजीवी, राजीनतिक और समाज का एक बड़ा तबका आक्रामक ढंग से काम कर रहा है।
ईरान और पाकिस्तान द्वारा अफगान शरणार्थियों को जबरन वापस भेजे जाने के बाद अफ़गानिस्तान में मानवीय संकट और भी बढ़ गया है। इनमें से कई निर्वासित अफ़गानिस्तान लौटने के बाद अनिश्चित भविष्य का सामना कर रहे हैं, क्योंकि देश आर्थिक अस्थिरता और बुनियादी सेवाओं की कमी का सामना कर रहा है। इसके अलावा, इन्हें नस्लीय भेदभाव एवं उत्पीड़न का सामना करना पड़ सकता है।
दुनिया भर के मानवाधिकार समूहों और संगठनों ने सामूहिक निर्वासन की निंदा की है और अफ़गान निर्वासितों की सुरक्षा और भलाई के बारे में चिंता व्यक्त की है। अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार समूहों ने कहा कि इस तरह की कार्रवाइयाँ अंतर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करती हैं। इसके तहत शरणार्थियों को ऐसे देशों में जबरन वापस लौटने पर प्रतिबंध है, जहाँ उन्हें उत्पीड़न का सामना करना पड़ सकता है।
देश दुनिया के तमाम मानवाधिकार संगठनों द्वारा पाकिस्तान और ईरान सरकार की निंदा की जा रही है, लेकिन भारत के बुद्धिजीवी खामोश हैं। उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ रहा है कि इन देशों से वापस भेजे गए अफगान प्रवासी किस तरह अपना जीवन यापन करेंगे। ये भी पता नहीं है कि उनके साथ उनके देश में किस तरह का सलूक होगा।
इस तरह आरफा-सायमा और ओवैसी जैसे लोगों के लिए दो मुस्लिम देशों के बीच उनका आंतरिक मामला बन जाता है, जबकि वे भारत से चाहते हैं कि बांग्लादेशी मुस्लिम ही नहीं, म्यांमार के रोहिंग्या, पाकिस्तान के शिया-सुन्नी और अफगानिस्तान के मुस्लिमों को भी भारत अपने यहाँ शरण दें।