पत्रकरिता बँट गई है। इतनी बँट गई है कि पत्रकारों के हितों की बात करने का दावा करने वाला संगठन एडिटर्स गिल्ड भी अपने पास एक ऐसी सूची रखता है जिसमें इस बात का विवरण होता है कि फलाँ पत्रकार को अगर मार भी डाला जाए तो चूँ तक नहीं करना है और फलाँ पत्रकार को छींक भी आए तो 2-4 बयान यूँ ही जारी कर देने हैं। यह हद दर्जे का दोहरा रवैया है। बंगाल में एक टीवी चैनल के पत्रकारों को मार-मार कर घायल कर दिया जाता है लेकिन मीडिया के तमाम बड़े महारथी आँख मूँद लेते हैं। कर्नाटक में सीएम के बेटे के बारे में लिखने पर संपादक पर ही कार्रवाई हो जाती है लेकिन कहीं से कोई आवाज़ नहीं आती।
सोनभद्र में प्रियंका गाँधी के गुर्गों द्वारा एबीपी पत्रकार के साथ की गई अभद्रता पर चुप्पी भी इसकी ही एक कड़ी है। पत्रकार नीतीश पांडेय ने तो बस एक सवाल पूछा था। मामूली सा सवाल। इसमें अनुच्छेद 370 पर कॉन्ग्रेस की आपत्ति के बारे में पूछा गया था। प्रियंका गाँधी ने जवाब नहीं दिया। इसमें कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि जिस तरह किसी पत्रकार को हक़ है किसी राजनेता से सवाल करने का, उसी तरह राजनेता को भी पूरा अधिकार है कि वह सवाल को दरकिनार कर दे। लेकिन, इसके कई तरीके होते हैं।
अलग-अलग राजनेताओं ने इसके लिए विभिन्न प्रकार की बानगी पेश की है। पुराने उदाहरण की बात करें तो दिवंगत कांशीराम ने झापड़ लगाया था। ताज़ा उदाहरण की बात करें तो मणिशंकर अय्यर ने पत्रकार के पाँव छू कर माफ़ी माँगी। हाल ही में बाढ़ पर बुलाए गए प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल ने अनुच्छेद 370 पर टिप्पणी करने से मना कर दिया। आइए सबसे पहले जानते हैं कि प्रियंका गाँधी वाले मामले में हुआ क्या? प्रियंका सोनभद्र के दौरे पर थीं। वहाँ आदिवासियों की ज़मीन को लेकर ख़ून-ख़राबा हुआ था। प्रियंका पीड़ित परिवारों से मिलने गई थीं। इसी बीच एबीपी के रिपोर्टर ने उनसे सवाल पूछा।
प्रियंका ने सवाल का जवाब देने से मना कर दिया और कहा कि वो यहाँ लोगों से मिलने आई हैं। असली खेल इसके बाद शुरू हुआ। वामपंथी से कॉन्ग्रेसी बने संदीप सिंह ने रिपोर्टर को धमकाते हुए कहा, “सुनो-सुनो, ठोक के यहीं बजा दूँगा। मारूँगा तो गिर जाओगे।” रिपोर्टर ने प्रियंका से हस्तक्षेप करने को कहा और बताया कि उनके गुर्गे किस तरह से व्यवहार कर रहे हैं? प्रियंका गाँधी ने आसपास होते हुए भी उसे अनसुना कर दिया। प्रियंका के सहयोगी संदीप ने कहा कि उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता और कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। क्या पूछा जा सकता है कि इस आत्मविश्वास की वजह क्या है?
इस दौरान कैमरे को भी ढँकने का प्रयास किया गया ताकि चीजें ठीक से रिकॉर्ड न हो पाएँ। कैमरे को धक्का भी दिया गया। रिपोर्टर पर भाजपा से रुपए लेकर सवाल पूछ्ने यानी बिकाऊ होने के आरोप लगाए गए। अब आते हैं इस घटना के बाद इसे लेकर उठे सवाल पर। जैसा कि स्पष्ट है, एडिटर्स गिल्ड का कोई बयान नहीं आया। भाजपा सरकार के कार्यकाल में मीडिया की स्वतंत्रता के खतरे में होने का रोना रोने वाले गिरोह विशेष के सदस्यों ने इस घटना की निंदा तक नहीं की। क्यों नहीं की? इसके पीछे बहुतेरे कारण हो सकते हैं, जिनमें से 2 प्रमुख है।
Is it 1975 ? https://t.co/3f8JE72t7L
— Meenakshi Joshi (@IMinakshiJoshi) August 14, 2019
कारण नंबर एक- वह पत्रकार डिज़ाइनर गिरोह का सदस्य नहीं था। उसने कभी सेनाध्यक्ष की तुलना जलियाँवाला नरसंहार कराने वाले जनरल डायर से नहीं की थी। वही सेना जो कन्याकुमारी से कश्मीर तक और असम से लेकर केरल तक में हर एक आपदा में लोगों के लिए रक्षक बन कर आती है। उस पत्रकार ने किसी आतंकी के मारे जाने के बाद उसके परिवार की ‘हालत’ दिखा कर उसके प्रति सहानुभूति उपजाने की कोशिश नहीं की थी। उस पत्रकार ने कभी पाकिस्तानी एजेंडा नहीं चलाया था। उसके लिए आउटरेज कर के क्या फायदा मिलता? अगर उसने मोदी को सुबह-शाम गाली दी होती तो शायद उसके पक्ष में पत्रकारिता के सभी पुरोधा आवाज़ उठाते।
कारण, नंबर दो- प्रियंका गाँधी कॉन्ग्रेस के शीर्ष परिवार से आती हैं, उनकी जगह अगर कोई भाजपा वार्ड सदस्य के साले के फूफे की बहन का भतीजा होता तो न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट में भी इस पर एकाध लेख लिखा जा चुका होता कि कैसे भारत की ‘राइट विंग हिंदुत्व पार्टी’ ने मीडिया की स्वतंत्रता पर ग्रहण लगा दिया है और देश में पत्रकारों को खतरा है। यह खेल नैरेटिव का है। ‘द प्रिंट’ की पत्रकार को चिदंबरम बेइज्जत भी कर दें तो चलता है क्योंकि वह ‘अपने’ हैं। वह दो-चार झापड़ लगा भी दें तो चलेगा। ताज़ा मामले में शेखर गुप्ता ने घटना की निंदा तो की लेकिन प्रियंका गाँधी को ‘सो पोलाइट’ बता कर।
All this was happening in front of Priyanka and she didn’t stop.
— Ankur Singh (@iAnkurSingh) August 14, 2019
Now that the clip has gone viral, Darbari journalists are only blaming Sandeep Singh.
Won’t be surprised if Priyanka meets the journalist so media starts cheerleading and doing shows on it, who are silent now. https://t.co/N1nFxH25Z9
मीडिया की स्वतंत्रता का अर्थ मीडिया कारोबारियों को अच्छी तरह पता है। शेयर्स की धोखाधड़ी से लेकर इनकम टैक्स चोरी तक, किसी न्यूज़ चैनल के ख़िलाफ़ सरकारी एजेंसियाँ जाँच करें तो बवाल खड़ा हो जाता है क्योंकि यह मीडिया की स्वतंत्रता का हनन है। हजारों करोड़ के मालिक भी ख़ुद को पत्रकार बता कर इस लिबर्टी को एन्जॉय करना चाहते हैं। पूरी बिरादरी एक हो जाती है, जैसे उनके ख़िलाफ़ सारे संवैधानिक नियम-क़ानून बौने हैं। ऐसे डिज़ाइनर पत्रकार जो भी करें, उनकी कम्पनी जो भी करे और उनके रिश्तेदार जो भी करें- किसी भी संवैधानिक संस्था को उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का हक़ नहीं है, क्योंकि यह मीडिया की स्वतंत्रता का मामला है।
अव्वल तो यह कि राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी की ट्वीट्स में अक्सर पत्रकारों व मीडिया हितों से जुड़े मुद्दे उठते हैं। दोहरेपन की पराकाष्ठा इतनी ऊपर पहुँच चुकी है कि एक ट्वीट से उन्हें गिरोह विशेष की वाहवाही भी मिल जाती है और पत्रकारों की बेइज्जती व उनके साथ बदतमीजी करने का सर्टिफिकेट भी। और हाँ, एडिटर्स गिल्ड तो इतना निष्पक्ष है कि कश्मीर में सुरक्षा-व्यवस्था को लेकर की गई व्यवस्थाओं को भी मीडिया से जोड़ कर देखता है और कहता है कि पत्रकारों को सही से रिपोर्टिंग नहीं करने दिया जा रहा। जब यह ख़बर आती है कि वित्त मंत्रालय में अपॉइंटमेंट लेने के बाद ही पत्रकारों को मिलने दिया जाएगा तो एडिटर्स गिल्ड उसकी निंदा करने लगता है।
एक विशेषज्ञ ने कहा था कि अब मनमोहन सिंह वाला दौर बीत चुका है और पत्रकारों को विशेष विमान में बैठा कर पीएम व मंत्रियों के विदेश दौरे पर साथ नहीं ले जाया जा रहा है। उन्हें इसी बात की खुन्नस है। या फिर अब उन्हें मंत्रियों व अधिकारियों से मिलने के लिए अपॉइंटमेंट लेना होता है, इसीलिए वे पुराने दिनों को याद कर उसी हताशा में जी रहे हैं। इससे पता चलता है कि 2014 में सरकार ही नहीं बदली बल्कि बहुत कुछ बदल गया है।
प्रियंका गांधी वाड्रा के 30 जून 2019 के इस ट्वीट को इतिहास की किताबों में धरोहर की तरह रखा जाए। उस दौर में जब उनके मैनेजर संदीप सिंह, उनकी मौजूदगी में एक पत्रकार को ठोंक देने की धमकी देते हैं, ये ट्वीट प्रियंका गांधी की “चुप्पी” पर “शर्म” की मुहर है। #PriyankaGandhi https://t.co/hsm6x8OgsD
— abhishek upadhyay (@upadhyayabhii) August 14, 2019
भाजपा के पिछले सदस्यता अभियान में 10 करोड़ से भी अधिक लोगों ने पार्टी की सदस्यता ग्रहण की थी। लगभग इतनी ही बिहार की जनसंख्या है। इतनी बड़ी पार्टी से जुड़ा कोई अदना सा व्यक्ति भी कुछ कह दे तो प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आ जाती है। आनी भी चाहिए। लेकिन प्रियंका गाँधी के गुर्गों द्वारा एक रिपोर्टर के साथ की गई बदतमीजी और दुर्व्यवहार पर गिरोह विशेष की चुप्पी खलती है। उम्मीद है अगली बार ऐसी को घटना आया-वाया भाजपा जुड़ी तो यह चुप्पी टूटेगी।