ममता बनर्जी ने लगातार तीसरी बार सत्ता में वापसी कर ली है। इसे निश्चित रूप से उनकी एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा जाएगा। राजनीतिक पंडितों के लिए आश्चर्य की बात यह रही कि दस वर्षों के शासन के बाद ममता बनर्जी अपनी सीट तो हार गईं पर उनकी पार्टी फिर से जीत गई। ऐसा बहुत कम होता है। भाजपा द्वारा सरकार बनाने की संभावनाएँ तेज थीं पर राजनीति की अपनी चाल होती है। कई बार चुनाव परिणाम परंपरा, तर्क, योजना या गणित से आगे रहते हैं।
सत्ता में ममता बनर्जी की वापसी के क्या कारण हैं? उनकी पार्टी के नेताओं के अनुसार उनकी अपनी नेतृत्व क्षमता, स्वच्छ प्रशासन और कारगर सरकार ही प्रमुख कारण हैं। राजनीतिक विश्लेषक कान्ग्रेस पार्टी और वाम दलों द्वारा अपने ‘सेक्युलर’ वोट तृणमूल कॉन्ग्रेस के पक्ष में ट्रांसफर कर देना प्रमुख कारण बता सकते हैं। उनके समर्थक इस सफलता का श्रेय “खेला होबे” जैसे नारे को दे सकते हैं और उनके राजनीतिक सलाहकार प्रशांत किशोर अपनी योजना में ममता दीदी को पहली बार बंगाल की बेटी के रूप में प्रोजेक्ट करने को सबसे बड़ा कारण बता सकते हैं।
पर मुझे लगता है कि सफलता के इस शोर में एक महत्वपूर्ण कारण पर चर्चा शायद न हो और वह कारण है बांग्ला उप राष्ट्रवाद। अब इसे प्रशांत किशोर द्वारा बनाई गई रणनीति का हिस्सा माने या फिर पहले से चली आ रही एक सोच जो इस चुनाव में अचानक सार्वजनिक हो गई, पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस चुनाव में शायद इसे वेदर बैलून के रूप में इस्तेमाल किया गया और मुझे यह भी लगता है कि इसके अपेक्षित परिणाम भी आए।
ऐसा नहीं है कि एक रणनीतिकार के रूप में प्रशांत किशोर ने यह काम पहली बार किया। चुनाव के मौकों पर किसी नेता को बाहरी बताने की यह रणनीति वे पहले भी उत्तर प्रदेश और बिहार में नरेंद्र मोदी के खिलाफ आजमा चुके थे पर वहाँ जनता ने इसे तवज्जो नहीं दिया था। कारण शायद यह हो सकता है कि उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग खुद भारत के कई प्रदेशों में रहने के लिए जाने जाते हैं। पर पश्चिम बंगाल में प्रशांत किशोर द्वारा आजमाई गई इस रणनीति का एक अलग ही रूप दिखा जब चुनाव प्रचार के दौरान अपने भाषणों में ममता बनर्जी ने केवल भाजपा के नेताओं को ही नहीं बल्कि दल के समर्थकों और चुनाव आयोग द्वारा तैनात किए गए केंद्रीय सुरक्षा बलों के जवानों को बंगाल के बाहर का बताया। अपनी इस शिकायत के साथ उन्होंने दो बातें और जोड़ दी; पहली यह कि “बाहर से आए” इन लोगों को बांग्ला बोलना नहीं आता और दूसरी यह कि पश्चिम बंगाल में इनकी वजह से ही कोरोना का संक्रमण बढ़ा है।
उनके इस दृष्टिकोण का संभावित असर और परिणाम भी चुनाव के दौरान ही दिखा। भारतवर्ष ने देखा कि उनके द्वारा अपने दल के समर्थकों से सुरक्षाबलों को घेरने की उनकी अपील का शीतलकुची में क्या परिणाम हुआ। चुनाव के समय किसी राज्य में अपनी ड्यूटी करने आए केंद्रीय सुरक्षा बलों के लिए ऐसी बात इससे पहले किसी मुख्यमंत्री ने कही हो, ऐसा नहीं जान पड़ता। एक बार के लिए यह लग सकता है कि ममता बनर्जी ने जो किया वह उनके केंद्र से असहयोग आंदोलन के विस्तार का ही एक रूप है, पर ध्यान से देखने पर लगता है कि यह जाँच करने के लिए सीबीआई को अपने राज्य में न घुसने देने की घोषणा या नागरिकता संशोधन कानून को पश्चिम बंगाल में लागू न करने की घोषणा से आगे का मामला है। यह केंद्र-राज्य संबंधों पर राजनीति से आगे की बात है जिसमें एक अलग तरह का खेल दिखाई देता है जो आगे चलकर एक वृहद रूप ले सकता है।
यह संभावित वृहद रूप क्या हो सकता है? जो कुछ भी इस बार विधानसभा चुनावों में दिखा या आजमाया गया, उससे मिली सफलता तृणमूल कॉन्ग्रेस को प्रेरित करेगी कि पार्टी इसे भविष्य में बार-बार आजमाए। यदि ऐसा हुआ तो पश्चिम बंगाल की राजनीति के तमिलनाडु की द्रविड़ियन पार्टियों के हिंदी विरोधी राजनीति जैसी होने का खतरा पैदा हो जाएगा। एक ऐसी स्थिति जिसमें बांग्ला न बोलने वालों को बाहर वाला समझे जाने की संभावना बनेगी। जिसमें अपनी ड्यूटी करने के लिए केंद्र सरकार या उसकी संस्थाओं की ओर से आए सरकारी कर्मचारियों को बाहर वाला बताए जाने का खतरा रहेगा। बंगाल से बाकी के भारत के लोगों का सम्बन्ध बहुत पुराना है पर राजनीतिक कदमों की सफलता के साथ एक समस्या यह होती है कि उसे बार-बार आजमाया जाता है।
क्षेत्रीय नेताओं की राजनीति उनके इर्द-गिर्द घूमती है। साथ ही शासन में रहकर लंबे समय तक राज्यों को नियंत्रित करने की महत्वाकांक्षा उनसे ऐसा बहुत कुछ करवाती है जो परंपरागत राजनीति से हटकर होता है। ऐसे नेताओं के साथ एक समस्या यह होती है कि कभी कोई राजनीतिक फॉर्मूला काम कर जाता है तो वे उसी फार्मूले के नए-नए रूप अप्लाई करते रहते हैं। ममता बनर्जी ने जो फार्मूला इस बार आजमाया उसे वे आगे भी आजमाएँगी। इस आजमाइस में राज्य की दिशा और दशा क्या होगी, इसका निर्णय समय करेगा।