‘गाँधी हत्या’ की घटना ने इस देश को नाथूराम गोडसे के नाम से परिचित करवाया। नाथूराम गोडसे आज ही के दिन वर्ष 1910 में महाराष्ट्र के पुणे के पास बारामती में जन्मे थे। एक व्यक्ति का हथियार, दूसरे व्यक्ति की असुरक्षा की भावना हो सकती है।
इसी तरह एक व्यक्ति का सत्य दूसरे व्यक्ति के लिए महज एक परिकल्पना हो सकती है। एक व्यक्ति की सभ्यता दूसरे व्यक्ति के लिए सभ्यता का संघर्ष हो सकता है और इस तरह से एक ही विषय पर दो लोगों की परिभाषाएँ या उनके हिस्से की वास्तविकताएँ भिन्न हो जाती हैं।
नाथूराम गोडसे विकसित समाज के न्याय की अपनी एक परिभाषा पर पहुँचे; वो अपने सही या गलत के फैसले की समझ के साथ मुक्त भी हो गए। लेकिन समाज आज तक भी उस एक विचार में उलझा हुआ है और इस जटिल विषय से मुक्त नहीं हो सका।
इतिहासकारों के अनुसार, नाथूराम गोडसे की बन्दूक से निकली महात्मा गाँधी पर दागी गई वो तीन गोलियाँ समाज के लिए एक अंतहीन जटिल परिभाषा दे गई और आज तक भी यह समाज इस परिमेय के निष्कर्ष तक पहुँच पाने में असफल ही रहा है।
नाथूराम गोडसे का पक्ष आज तक भी महात्मा गाँधी की मौत को ‘वध’ की संज्ञा (गोपाल गोडसे की पुस्तक ‘गाँधी वध क्यों’) देता है जबकि एक दूसरा वर्ग है जो आज तक ‘अहिंसा के महात्मा’ की हत्या के सदमे में नजर आता है। और अब यह अंतहीन विवाद बनकर रह गया है।
नाथूराम गोडसे की पहचान महात्मा गाँधी की मौत से जुड़ी है, इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन गाँधी को विचार मानने वाले यह सत्य भी कभी स्वीकार नहीं कर सके कि जिस गाँधी को विचार साबित करने का प्रयास वो आज तक करते आ रहे हैं, उसी विचार की हत्या गाँधी की मौत से पहले कई बार मोहम्मद अली जिन्ना और स्वयं गाँधी के चहेते जवाहर लाल नेहरू कर चुके थे।
ऐसी ही कुछ बातें गोपाल गोडसे की पुस्तक ‘गाँधी वध और मैं’ में मिलती हैं, जिनमें स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि गाँधी वध (करने वाला) यदि गँवार, स्वार्थी, भ्रमिस्ट होता तो गाँधी जी के नाम का व्यापार करने वाले दुखी अवश्य होते और फिर क्रुद्ध न होते।
गाँधी के विरोधाभास, जो अंत तक उनके साथ रहे
गाँधी की मृत्यु से जन्मा हर इतिहास विचारों और सिद्धांतों की मृत्यु का इतिहास ही माना जाता है, इसलिए यह जिक्र करना जरूरी है कि एक उदारवादी मोहम्मद अली जिन्ना का आजादी की लड़ाई के दौरान अचानक से कट्टरपंथी में तब्दील हो जाना भी कोई संयोग नहीं था। यह कोई छुपी हुई बात भी नहीं है कि किस तरह से खिलाफत आन्दोलन में महात्मा गाँधी के नजरिए से जिन्ना बेहद नाराज और असमंजस की स्थिति में थे।
वजह यह थी कि खिलाफत आंदोलन को मोहम्मद अली जिन्ना किसी भी तरह से राजनीतिक मुद्दा नहीं मानते थे। बावजूद इसके, जिन्ना ने इस मामले में दिलचस्पी जरूर ली, लेकिन जिन्ना इसका साथ देने से मुकर गए। मुस्लिमों के बड़े पैरोकार और प्रसिद्ध वकील मोहम्मद अली जिन्ना नहीं चाहते थे कि धर्म के मामले से राजनीति को जोड़ा जाए।
जिन्ना और गाँधी के व्यक्तित्व के विरोधाभास से अंग्रेज हुकूमत तक अच्छी तरह परिचित थी। जिन्ना को जहाँ वो एकांत प्रिय और बेहद होशियार जानती थी, वहीं महात्मा गाँधी के विचारों की अस्थिरता को वो भाँप चुके थे।
महात्मा गाँधी के विचारों के विरोधाभास का शिकार होने वाले एक या दो नाम नहीं थे। जिन्ना से शुरू हुआ यह सफर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तक जारी रहा। लेकिन भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू के प्रति उनके मन में हमेशा ही एक स्नेह रहा। जबकि जिन्ना से लेकर नेताजी तक सब किनारे लगा दिए गए।
ऐसे भी कई उदाहरण हैं जब नेहरू से गाँधी का वैचारिक मनमुटाव रहा, लेकिन अन्य लोगों की तुलना में गाँधी ने खुद को कभी नेहरू से अलग भी नहीं पाया।
वहीं, कॉन्ग्रेस के भीतर मौजूद दक्षिणपंथियों को ठिकाने लगाने के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गाँधी की हत्या को एक राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया। इसका सबसे पहला नतीजा तब देखने को मिला था जब वर्ष 1950 में दक्षिणपंथी विचारधारा के माने जाने वाले पुरुषोत्तम दास टंडन को हटाकर जवाहर लाल नेहरू स्वयं ही कॉन्ग्रेस अध्यक्ष बन बैठे।
गाँधी जी की हत्या के ठीक अगले दिन महाराष्ट्र में हुई चितपावन ब्राह्मणों की हत्या ने ही इस बात की पोल खोलकर रख दी थी कि खुद कट्टर गाँधीवादी, गाँधी के सिद्धांतों के कितने करीब थे।
गोडसे ने भी गाँधी को फैसला लेने में असमर्थ व्यक्तित्व वाला बताया था। ‘गाँधी वध और मैं’ पुस्तक के अनुसार भी यही कहा गया है कि महात्मा गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के लिए बहुत अच्छा काम किया था, लेकिन भारत आकर सही-गलत जैसे फैसले करने लगे थे। गोडसे का कहना था कि गाँधी खुद को न्यायाधीश मानते थे और इसी विचारधार के चलते वह दो रास्तों पर खड़े रहते थे।
वास्तव में जिस गाँधी के विचार को देश का प्रगतिशील वर्ग आज तक भुनाने की कोशिश करता आया है, उसकी हत्या पहले भारत के विभाजन में और उसके बाद प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस में महात्मा गाँधी की परिस्थितियों से पलायन के वक्त ही हो गई थी।
नाथूराम ने कहा कि इस सोच के साथ दो रास्ते नहीं हो सकते, या तो कॉन्ग्रेस को गाँधी के लिए अपना रास्ता छोड़ना होता और गाँधी की सारी सनक, सोच, दर्शन और नजरिए को अपनाना होता या फिर गाँधी के बिना आगे बढ़ना होता।
व्यक्तिगत कारणों से नहीं की थी हत्या
लेकिन गोडसे ने मौत के अपने आखिरी पलों तक भी गाँधी के प्रति द्वेष प्रकट नहीं किया। स्पष्ट था कि गाँधी पर गोडसे के बन्दूक तानने के पीछे उनके व्यक्तिगत कुछ नजरिए थे और गाँधी की मौत उन्हीं नतीजों की परिणति बना।
गोडसे ने गाँधी की हत्या को लेकर एक जरूरी कारण यह भी कहा था कि वो मौजूदा सरकार का सम्मान नहीं करते, क्योंकि उनकी नीतियाँ मुस्लिमों के पक्ष में थीं। गोडसे ने कहा, “लेकिन उसी वक्त मैं ये साफ देख रहा हूँ कि ये नीतियाँ केवल गाँधी की मौजूदगी के चलते ही थीं।”
गोपाल गोडसे की पुस्तक ‘गाँधी वध और मैं’ में ऐसे ही कई प्रसंग हैं, जिनमें जिक्र किया गया है कि गाँधी की हत्या पूर्ण रूप से एक राजनीतिक हत्या थी, ना कि किसी सत्ता की अभिलाषा या द्वेष का परिणाम।
गाँधी के बेटे से गोडसे की मुलाकात
नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे की किताब ‘गाँधी वध और मैं’ में बताया गया है कि जब गोडसे संसद मार्ग थाने में बंद थे, तब उन्हें देखने और मिलने वहाँ कई लोग जाया करते थे। इन्हीं में से एक थे महात्मा गाँधी के बेटे देवदास गाँधी!
इस किताब के अनुसार, नाथूराम गोडसे ने उन्हें जेल की सलाखों से देखकर ही पहचान लिया था। उन्होंने देवदास गाँधी से कहा, “मैं नाथूराम विनायक गोडसे हूँ। हिंदी अख़बार हिंदू राष्ट्र का संपादक। जहाँ गाँधी की हत्या हुई, मैं भी वहाँ मौजूद था। आज तुमने अपने पिता को खोया है। मेरी वजह से तुम्हें दुख पहुँचा, इसका मुझे भी बड़ा दुख है। मेरा विश्वास करो, मैंने यह काम किसी निजी रंजिश के कारण नहीं किया है, ना तो मुझे तुमसे कोई द्वेष है और ना ही कोई ख़राब भाव।”
देवदास ने तब पूछा, “तब, तुमने ऐसा क्यों किया?” जवाब में नाथूराम ने कहा, “केवल और केवल राजनीतिक वजह से।”
इस मुलाकात के बाद देवदास गाँधी ने नाथूराम को एक पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने लिखा, “आपने मेरे पिता की नाशवान देह का ही अंत किया है और कुछ नहीं। इसका ज्ञान आपको एक दिन होगा, क्योंकि मुझ पर ही नहीं संपूर्ण संसार के लाखों लोगों के दिलों में उनके विचार अभी तक विद्यमान हैं और हमेशा रहेंगे।”
गोपल गोडसे ने अपनी पुस्तक में इस बात का जिक्र किया कि देवदास गाँधी शायद इस उम्मीद में नाथूराम गोडसे से मिलने गए कि उन्हें कोई डरावनी शक्ल वाला, गाँधी के खून का प्यासा कातिल नज़र आएगा, लेकिन नाथूराम सहज और सौम्य थे। उनका आत्म विश्वास बना हुआ था, देवदास ने जैसा सोचा होगा, उससे एकदम विपरीत।
वास्तविकता से गाँधी का पलायन
जिन्ना की जिद और सर सैयद अहमद खान की परिकल्पनाओं ने भारत-पाकिस्तान बँटवारे को आखिरकार अंजाम दे डाला। देशभर में व्यापक स्तर पर दंगे हुए। इससे पहले यह देश मुस्लिमों द्वारा हिन्दुओं के खिलाफ की गई ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ के रक्तरंजित इतिहास का गवाह देख चुका था।
लेकिन गाँधी जी ने अपनी निजी विचारधारा के सम्मुख धृतराष्ट्र बनना स्वीकार किया। इतिहासकारों की मानें तो गाँधी जी किसी भी तरह से विवाद को खत्म करना चाहते थे। यही वो समय था जब गाँधी जी ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया कि उसे पाकिस्तान को उसके हिस्से के 50 करोड़ रुपए का भुगतान करना चाहिए।
गाँधी जी ने अपनी परिचित शैली में इसके लिए भी आमरण अनशन शुरू कर दिया। आखिरकार उनकी जिद के आगे सरकार झुकी और पाकिस्तान को 50 करोड़ रुपए का भुगतान कर दिया गया।
नाथूराम गोडसे के साथ ही एक बड़े वर्ग ने मुस्लिमों द्वारा की गई विभीषिका को जानने के बाद गाँधी जी की इस जिद को बेहद गैर जरूरी माना था और इसके परिणाम भी तुरंत ही कश्मीर में प्रायोजित आतंकवाद के रूप में तब दिखे थे, जो आज तक देखे जा रहे हैं।
गोडसे ने महसूस किया कि देशवासियों का पहला दायित्व हिंदुत्व और सिर्फ हिंदुओं के लिए होना चाहिए। वह मानते थे कि यदि 30 करोड़ हिंदुओं (तब) की स्वतंत्रता और हितों की रक्षा की गई तो भारत अपने आप सुरक्षित होगा।
‘गाँधी वध और मैं’ में लिखा गया है कि जब आजीवन हिन्दू विचारों की पैरवी करने का दावा करने वाले महात्मा गाँधी ने मुस्लिमों के पक्ष में अपना अंतिम उपवास रखा, तो गोडसे को लगा कि अब गाँधी नाम के विचार को शून्य हो जाना चाहिए। इसके आगे जो हुआ, वह सब इतिहास है।