21 जुलाई 2022 को देश को नया राष्ट्रपति मिल जाएगा। 18 जुलाई को मतदान होना है। माना जा रहा है कि बीजेपी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू (Draupadi Murmu) देश की अगली राष्ट्रपति हो सकती हैं। यदि ऐसा हुआ तो इस पद पर पहुँचने वाली वह दूसरी महिला और अनुसूचित जनजाति (ST) वर्ग से आने वाली पहली शख्सियत होंगी।
द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी की घोषणा से पहले ही विपक्ष के कुछ दलों ने मिलकर यशवंत सिन्हा को अपना उम्मीदवार चुना था। लेकिन, मुर्मू के नाम की घोषणा ने इन विपक्षी दलों में से कुछ को अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर कर दिया। इनमें से एक शिवसेना भी है, जिसने अब मुर्मू के समर्थन का ऐलान किया है। झारखंड में कॉन्ग्रेस की सहयोगी झामुमो (JMM) आज भी उधेड़बुन में है कि वह किधर जाए। यही हाल आम आदमी पार्टी (AAP) का भी है।
मतदान से पहले ही विपक्षी एकता फूटने कुलबुलाहट भी देखी जा रही है। इसी व्याकुलता में बुधवार (13 जुलाई 2022) को कॉन्ग्रेस नेता अजय कुमार ने द्रौपदी मुर्मू को ‘बुरे पक्ष का प्रतिनिधि’ बता दिया। इस दौरान उन्होंने मुर्मू की अनुसूचित जनजाति पहचान पर भी सवाल उठाए।
#WATCH | Yashwant Sinha is good candidate, Droupadi Murmu is a decent person but she represents evil philosophy of India. We shouldn’t make her symbol of tribals…Ram Nath Kovind is President but atrocities happening on SCs. Modi govt’s fooling people: Congress leader Ajoy Kumar pic.twitter.com/E2vFyTT0aP
— ANI (@ANI) July 13, 2022
दरअसल, मुर्मू का अनुसूचित जनजाति से होना वह मसला है, जिससे ईसाई मिशनरी भी भड़के हुए है। उनका देश के शीर्ष पद पर होना हिंदू आदिवासियों को निशाना बनाने वाले धर्मांतरण माफियाओं के खिलाफ एक अचूक हथियार साबित हो सकता है। मुर्मू ने ओडिशा के रायरंगपुर के आदिवासी क्षेत्रों में धर्मांतरण माफिया के खिलाफ बड़े पैमाने पर काम भी किया है।
हम सब जानते हैं कि किस प्रकार से ईसाई मिशनरी गरीब और अनुसूचित जनजाति के लोगों को प्रलोभन देकर धर्मांतरण करवाते हैं। ऐसे में द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने और उनकी जीत करीब-करीब तय होने से इस समाज में एक नई जनचेतना का संचार हुआ है। इस फैसले से मोदी सरकार अनुसूचित जनजाति के लोगों को यह संदेश देने में कामयाब रही है कि सरकार उनके साथ खड़ी है। यह संदेश धर्मांतरण के ठेकेदारों के लिए बड़ा झटका है। इससे उनके लिए निर्धारित लक्ष्यों को पूरा कर पाना कठिन हो गया। इससे विदेशी फंडिंग से हिंदुस्तान की धरती पर धर्मांतरण कर अस्थिरता पैदा करने की साजिशों पर भी विराम लगेगा।
एनडीए के इस फैसले के बाद अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति तक यह संदेश गया है कि वे भी देश के सर्वोच्च पद तक जा सकते हैं। प्रथम नागरिक बनने की क्षमता उनमें भी है। यह आत्मविश्वास न केवल उनके विकास को गति देगी, बल्कि हिंदुत्व के प्रति भी उन्हें अडिग करेगी।
एक अति सामान्य परिवार से आने के बावजूद द्रौपदी मुर्मू जिस तरह मिशनरियों से लड़ीं, जिस प्रकार हिंदुत्व को मजबूत करने का कार्य करती रहीं, यह उनके समाज के अन्य लोगों को भी प्रेरित करेगी। उनके पास राज्यपाल के तौर पर 6 साल से भी ज्यादा के कार्यकाल का अनुभव है। झारखंड की राज्यपाल रहते हुए उन्होंने शिक्षा, कानून व्यवस्था, स्वास्थ्य और जनजातीय मामलों में बेहद संवेदनशीलता का परिचय दिया। ऐसे कई मौके आए जब राज्य सरकारों के निर्णयों में हस्तक्षेप किया। बावजूद उनकी छवि निर्विवाद बनी रही, क्योंकि उन्होंने ये हस्तक्षेप पूरी तरह से संवैधानिक मर्यादा में रहकर आम लोगों के हक में किए।
झारखंड के कई विश्वविद्यालयों में कुलपति और प्रतिकुलपतियों के रिक्त पदों पर नियुक्तियाँ उनके ही कार्यकाल में हुई। बता दें कि राज्यपाल विश्वविद्यालयों की पदेन कुलाधिपति होते हैं। राज्यपाल द्रौपदी मुर्म की संवेदनशीलता ही थी कि उन्होंने पदेन कुलाधिपति के रूप में उच्च शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर लोक अदालत का आयोजन किया। इस लोक अदालत में विश्वविद्यालय शिक्षकों और कर्मचारियों के तकरीबन 5000 मामले निबटाए गए। झारखंड में आज विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में केंद्रीयकृत नामांकन प्रक्रिया अपनाई जाती है। इसके लिए द्रौपदी मुर्मू ने ही चांसलर पोर्टल का निर्माण कराया था।
उनकी उम्मीदवारी से राजनैतिक तौर पर भी बीजेपी ने कई सांकेतिक संदेश दिए हैं। इससे जनजातीय समाज में पार्टी की पैठ और भी गहरी हो सकती है। साथ ही ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के बाद बीजद में नेतृत्व के स्तर पर शून्यता दिखती है। माना जा रहा है कि पटनायक का ये आखिरी कार्यकाल होगा। ऐसे में मुर्मू की उम्मीदवार ओडिशा में भी बीजेपी के लिए नई राजनैतिक संभावनाओं को जन्म दे सकती हैं। मुर्मू न केवल ओडिशा से आती हैं, बल्कि यहॉं से मंत्री भी रहीं हैं। जनजानतीय समाज के बीच उनकी गहरी प्रतिष्ठा भी है। जाहिर है, विपक्ष की बेचैनी बढ़नी ही है।